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सुनील कुमार

दिल्ली की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी झुग्गी-झोपड़ियों व कच्ची कालोनियों में रहती है। इन्हीं बस्तियों में शहरों के निर्माण करने वाले मजदूर से लेकर शहर को चलाने वाले व सफाई करने वाली आबादी बसी हुई है। इन्हीं में से एक बस्ती है रिठाला की बंगाली बस्ती। इस बस्ती में रहने वाले लोग पश्चिम बंगाल के बीरभूम, मुर्शिदाबाद, बर्धमान, मालदा जिले से हैं। इस बस्ती में 95प्रतिशत परिवार घरों से कूड़ा उठाने से लेकर सड़कों, गलियों, मुहल्लों, कचरा स्थल से कूड़ा उठा कर दिल्ली को स्वच्छ बनाने का काम करते हैं। इस स्वच्छता के लिये उनको कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलता वह कूड़े से मिले हुये प्लास्टिक की बोतलें, प्लास्टिक,शीशे, कागज, गत्ता, लोहे को छांट कर अपनी जीविका चलाते हैं। यह रास्ते, घरों से उठाये कूड़े को अपने घर में लाते हैं और छंटाई करने के बाद उसको हफ्ते-दो हफ्ते बाद बेच देते हैं। एक अनुमान के मुताबिक 300 टन कूड़ा प्रति माह यह बस्ती वाले इक्ट्ठा करते हैं। इस बस्ती की महिलायें दूसरों के घरों में सफाई का काम करती हैं। यह बस्ती   रिठाला मेट्रो स्टेशन से 300 मीटर दूर तथा एक कि.मी. की दूरी पर राजीव गांधी केंसर अस्पताल और डॉ. भीम राव अम्बेडकर अस्पताल के पास बसी हुई है। बस्ती से एक कि.मी. से भी कम दूरी पर दमकल केन्द्र है। बस्ती के एक तरफ बहुमंजिली फ्लैट्स बनाये जा रहे हैं तो दूसरी तरफ रिठाला गांव हैं, इसी गांव के कुछ लोगों द्वारा इस बस्ती वालों से 2000 से 2500 रू. प्रति झुग्गी प्रति माह किराया वसूला जाता है।

4-5 दिसम्बर की मध्यरात्री रिठाला बंगाली बस्ती में लगभग 600 झुग्गियां धूं-धूं कर जल उठी। इस आग में लोगों की कड़ी मेहनत से जोड़ी गई पाई-पाई का सामान जल कर खाक हो गया। ऐसा नहीं है कि इस बस्ती में पहली बार आग लगी हो इससे पहले भी5 अप्रैल, 2011 को आग लग चुकी है जिसमें लोगों की मेहनत की कमाई तबाह हो गई थी। बस्ती वाले बताते हैं कि इस बार तो टेंट और खाने का सामान मिल भी गया लेकिन इसके पहले जो आग लगी थी उसमें हमें कुछ नहीं मिला था और मीडिया वालों को गांव वाले भगा दिये थे।

इस बस्ती में किराने के दुकान चलाने वाले मुराशाली जिनको बस्ती के लोग पाखी कहते हैं। पाखी तीन बच्चों और पत्नी के साथ रहते हैं उनके पत्नी और बच्चे आठ नवम्बर से गांव गये हुये हैं। पाखी बताते हैं कि वह 15 साल की उम्र में 1996 से इस बस्ती में रहते हैं। शुरूआत में वह कबाड़ चुनने का काम करते थे कबाड़ चुनने से जो पैसा इक्ट्ठा हुआ उससे किराने की दुकान खोल लिये, कुछ और पैसा इक्ट्ठा कर एक साल पहले ई-रिक्शा खरीद लिये थे। पत्नी दुकान चलाती थी वह ई-रिक्शा चलाते थे। बताते हैं कि दुकान में रखे 26 हजार के पुराने नोट सहित सभी समान जल कर खाक हो गये। पाखी सोच रहे थे कि बैंकों में भीड़ कम हो तो पुराना नोट जाकर जमा करायें। आग लगने के बाद वह दुकान में गये और केवल पुराना मोबाईल फोन ही निकाल पाये। वह अपनी जली हुई फ्रिज की तरफ देखते हुये कहते हैं कि फ्रिज नया ही था अभी दो महीना पहले उसका किश्त खत्म हुआ था। इस आग में उनका ई-रिक्शा भी जलकर स्वाहा हो गया। पाखी का कहना है कि जहां वह पन्द्रह साल पहले थे फिर से वहीं आकर खड़े हो गये। वह बताते हैं कि जो किराया लेता है वह हम लोगों का आधार कार्ड और 300 रू. लेकर गया था कि एग्रीमेंट बना कर देंगे लेकिन कभी उसने दिया नहीं। पाखी नहीं चाहते कि हम कबाड़ चुने तो हमारे बच्चे भी कबाड़ चुने। उनके तीनों बच्चे दसवीं, नवीं और छठवीं में पढ़ते हैं।

अशिलदुल शेख का जन्म इसी झुग्गी में हुआ था जिनकी उम्र अभी 22 साल हैं। वह रोहीणी सेक्टर 4 वार्ड नं. 44 से कूड़ा उठाने का काम करते हैं और उनके पिताजी रिक्शा चलाते हैं। अशिलदुल शेख बताते हैं कि यह बस्ती पहले ऐसी नहीं थी, यहां पहले काफी गड्ढ़ा था पानी भर जाता था, काफी जंगल था हम लोग जंगल में टॉयलेट के लिये जाया करते थे। लोगों ने धीरे-धीरे अपने घरों को मलवे भर-भर कर ऊंचा किया। जंगल काट कर यह सब बिल्डिंग बन गई तो घर के पास ही गड्ढ़ा खोद कर टॉयलेट बना लिया। पानी के लिये नल लगा लिये तब कहीं जाकर हम यहां रह पाते हैं।

चौथी क्लास में पढ़ने वाली सोनाली को आशा है कि ठंड से बचने के लिये नानी के घर से कपड़े आयेंगे। सोनाली कि सभी किताब,कॉपी जल चुकी है, वह कहती है कि 3-4 दिन बाद जाकर स्कूल में पता करेगी कि कैसे पढ़ाई हो पायेगी। सोनाली के पिता पिंकु कबाड़ गोदाम में छंटाई का काम करते हैं जिससे उनको 5-6 हजार रू. मिल जाता है। पिंकु का कोई बैंक का खाता नहीं है। सोनाली के नाम से ही स्कूल का बैंक खाता है जिसमें 200 रू. है। सोनाली की मां रूपाली बताती हैं कि दोबारा घर को बसाने में कम से कम तीन-चार साल लग जायेंगे। सफिदा के रिश्तेदार बताते हैं कि सफिदा परिवार सहित घर गई हुई है और उनका सभी समान जल कर खाक हो गया है।

हसीना शेख पत्नी सयरूल शेख अपनी जली हुई झुग्गी को साफ कर रहने लायक बनाने की कोशिश कर रही थी। वह बताती हैं कि उनके पति रिठाला क्षेत्र में सड़क से कबाड़ चुना करते थे अब उनका पैर टूट गया है। हसीना रोहणी तेरह सेक्टर में 5-6 घरों में सफाई का काम करती हैं। उनके दो बेटे हैं जिनकी शादी हो चुकी है वह भी परिवार के साथ यहीं रहते हैं और कूड़ा उठाने का काम करते हैं। उनके घर के कूलर, पंखा, मोबाईल, बर्तन सहित इक्ट्ठा किए हुए 15000 हजार रू. जल कर खाक हो गये। वह बताती हैं कि 1800 रू. किराया देना पड़ता है और 200 रू. बिजली का। उनको किराये लेने वाले का नाम पता नहीं है वह बताती हैं कि वे लोग आते हैं और किराया लेकर जाते हैं। वहीं पर खड़े दूसरे व्यक्ति ने बताया कि छह-सात अलग-अलग लोग हैं जो पूरे बस्ती से किराया वसुलते हैं। झुग्गी जलने के बाद किराया ले जाने वाला कोई व्यक्ति नहीं आया।

कबीर शेख सेक्टर सात में कूड़ा उठाते हैं परिवार के साथ इस बस्ती में रहते हैं। वह बताते हैं कि उनका 50-60 हजार का समान जल गया है। तीस हजार का दरवाजा गांव भेजने के लिये खरीद कर लाये थे वह भी जल गया। कबीर 5-6 माह के कूड़े इक्ट्ठा किये थे वह भी जल गया। कबीर चाहते हैं कि सरकार ऐसा करे कि हमसे कोई किराया नहीं लिया जाये।

बस्ती वालों का कहना है कि दमकल गाड़ी आग लगने के एक घंटे बाद आई जबकि दमकल केन्द्र यहां से बहुत नजदीक है 5-10मिनट में दमकल की गाड़ी आ सकती थी। गाड़ी जिस रास्ते से आई वह रास्ता पहले से सीवर डालने के लिये खुदा था। अगर गाड़ी दूसरे रास्ते से आई होती तो झुग्गियां बच गई होती। दमकल गाड़ी देर से आने पर बस्ीत वालों ने अपना रोष जताया। उनका कहना है कि हमारा कई महीनों का कबाड़ इकट्ठा था पहले कबाड़ के रेट कम होने से नहीं बेच रहे थे, इधर नोट बंदी के कारण कबाड़ बेचने में परेशानी हो रही थी। हम किसी तरह अपना गुजारा करने के लिए परिवार के अन्य लोगों के दूसरे काम या छोटे-मोटे कबाड़ बेच कर गुजारा कर रहे थे। बस्ती वालों से किराया लेने वालों का नाम पूछने पर साफ मना करते हैं कि हम किराया लेने वाले का नाम नहीं बता सकते नहीं तो हमें मार-पीट कर भगा दिया जायेगा। अब लोगों को ठंड से बचने की चिंता सता रही है।

बस्ती में ही जिला मजिस्ट्रेट से मुलाकात हुई जब उनसे यह पूछा गया कि यह जमीन किसकी है तो जिला मजिस्ट्रेट का  कहना है कि उन्हें जमीन के विषय में नहीं पता, अभी वह रिलिफ पर ध्यान दे रहे हैं। जबकि उनके साथ चल रहे एक अधिकारी ने दबी जुबान में प्राइवेट जमीन होने की बात कही। जिला मजिस्ट्रेट ने 280 झुग्गियां जलने की बात बताई जबकि लोगों का कहना है कि600 के करीब झुग्गियां जली है। शाम सात बजे तक 10-12 टेंट ही लग पाये थे। जबकि वही बगल में पाखी की बहन अपने 5साल के बच्चे को गोद में लेकर ठंड से बचाने की कोशिश कर रही थी।

बिना पारिश्रमिक लिये शहरों को स्वच्छ बनाने वाले लोगों की सुरक्षा कि जिम्मेदारी किसकी है? कौन बता सकता है कि यह जमीन किसकी है? कौन इन बस्ती वालों को सुरक्षा दे सकता है ताकि वह निर्भिक होकर बता सकें कि उनसे अवैध किराया वसूली करने वाला व्यक्ति कौन है? क्या उनको इस तरह की अवैध वसूली से कोई सिस्टम है जो छुटकारा दिला सके?

मेहतकश जनता केवल अपने आवास में ही नहीं कार्यस्थल पर भी सुरक्षित नहीं है। आवास में उसको जान-माल की क्षति होती है वहीं कार्यस्थल पर मुनाफाखोरों की जेब भरने के लिये उनको जान गंवानी पड़ती है। 10 नवम्बर को गाजियाबाद जिले के शहीद नगर में जैकेट बनाने वाली फैब्रिकेटर में 13 लोगों (अपुष्ट खबरों के अनुसार 17 लोग) की जलकर मौत हो गई। 12 नवम्बर को सिरसपुर में दो सगे भाईयों की कम्पनी में विस्फोट होने से जान चली गई। 12 नवम्बर को ही बसंत स्कावॅयर मॉल में सफाई कर्मचारी को सिवरेज सफाई करने के लिये उतार दिया गया जिसमें एक मजदूर की मौत हो गई और एक गंभीर रूप से घायल हो गया।

मेहनतकश आबादी जो कि शहर को बनाती है, चलाती है, स्वच्छ रखती है उसकी इस तरह की मौत के जिम्मेवार कौन है? सरकार दावा करती है कि वह गरीबों के लिये है तो आखिर इनकी हालात में कोई बदलाव क्यों नहीं आ पा रहा है? क्या यह वर्गीय समाज मेहनतकश आबादी को एक निर्भिक, साफ-सुथरी, जिन्दगी दे सकता है जिसमें उनके बच्चों का भविष्य उज्जवल हो? क्या इन बस्ती वालों को अवैध वसूली से बचाया जा सकता है?

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