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ऐसा मत सोचिए कि इन घटनाओं से देश हिल उठेगा या तूफ़ान खड़ा हो जाएगा. वह नहीं होने वाला क्योंकि ये सारी घटनाएं योजना के तहत हो रही हैं. ऐसा नहीं है कि मौत करवाई जा रही है मौत के लिए. बल्कि मौत करवाई जा रही है विकास के लिए. विकास की योजना के तहत यह एक स्वतः घटना है. इसलिए कोशिश हो रही है कि मनुष्य का जो मन है, बुद्धि है वह भुखमरी के बारे में, जनहत्याओं के बारे में उदासीन हो जाए.                                                              -किशन पटनायक                                                                                           (भारत शूद्रों का होगा )

प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के दौरान जिन मुर्खतापूर्ण सवालों से हर विद्यार्थी को गुजरना पड़ता है उसमें से एक है, “भारत का खाद्यान भण्डार किसे कहा जाता है?’ सामने के खांचे में उत्तर लिखा होता है पंजाब. भारत में हरित क्रांति के दौर में जिन दो राज्यों ने सबसे जबरदस्त नतीजे दिए थे वो थे पंजाब और हरियाणा. 1947 से 1978 तक भारत में प्रति यूनिट पैदावार में 30 फीसदी का ईजाफा हुआ. 1978 में 131 मिलियन टन के उत्पादन के साथ ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा कृषि उत्पादक देश बन गया. यह वही दौर था जब स्कूल की किताबों में “भारत एक कृषिप्रधान देश है.” की इबारत गहरे अक्षरों में दर्ज की जाने लगी.

पंजाब भारत के 10.2 फीसदी कपास , 19.5 फीसदी गेंहू और 11 फीसदी चावल का उत्पादन करता है. इस उत्पादन तक पहुंचने के लिए जम कर रासायनिक खाद का इस्तेमाल हुआ. जहां रासायनिक खाद के इस्तेमाल का राष्ट्रीय औसत 90 किग्रा. प्रति हैक्टेयर है, पंजाब में यह आंकड़ा फिलहाल 223 किग्रा पर पहुंच चुका है. . खाद के बेतरतीब इस्तेमाल ना सिर्फ जमीन की उर्वरकता को घटाया है बल्कि फसल की लागत में जबरदस्त ईजाफा कर दिया है. एक दशक की सफलता और खुशहाली के बाद हरित क्रांति का दूसरा चेहरा हमारे सामने आने लगा.

रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल और बेतरतीब मशीनिकरण का नतीजा यह हुआ कि सबसे ज्यादा गेंहू उपजाने वाले खेत सबसे अधिक कर्ज में चले गए. सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के प्रोफ़ेसर सतीश वर्मा के अध्यन में सामने आया है कि पिछले एक दशक में किसानों पर कर्ज में 22 गुना की बढ़ोत्तरी हुई है. एक दशक पहले औसत कर्ज का आंकड़ा 25 हजार पर था वो बढ़ कर 5.26 लाख पर पहुंच गया है. एक तरीके से देखा जाए तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कर्ज पर आधारित हो चुकी है. अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी मूडीज के अनुसार पिछले वित्तीय वर्ष में भारत के कृषि क्षेत्र का विस्तार महज दशमलव दो फ़ीसदी रहा है.

आर्थिक रूप से समृद्ध कहे जाने वाले पंजाब का एक सच यह भी है कि यहां बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या कर रहे हैं. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के सर्वे की माने तो 2001 से 2011 के बीच पंजाब में 6,926 किसानों ने आत्महत्या की है.यह आंकड़ा महज छह जिलों के सर्वे पर आधारित है. इसमें से 3954 किसान और 2972 खेत मजदूर हैं.

दक्षिण पंजाब यानी मालवा क्षेत्र के तीन जिलों मानसा, बठिंडा और संगरूर में सर्वाधिक आत्महत्या के प्रकरण सामने आए हैं. मानसा में 1013, बठिंडा में 827 और संगरूर में 1132 किसान एक दशक में ख़ुदकुशी कर चुके हैं. संगरूर के मूनक सबडिविजन का गांव बलारां 1998 से अब तक 93 किसानों की आत्महत्या का गवाह रहा है. मूवमेंट अगेंस्ट स्टेट रिप्रेशन के इंदरजीत सिंह जैजी ने अपनी किताब “डेब्ट एंड डेथ इन रूरल इंडिया” में दावा करते हैं कि मानसा और संगरूर जिले में 1998 से 2008 तक 17 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं.

कितना बुरा होता है परदेश में किसी अपने के ना होने की खबर सुनना….

1 जुलाई की रात मैं संगरूर के लिए रवाना हुआ. पंजाब मेल के रद्द होने के कारण जबलपुर जम्मूतवी में भयानक भीड़ थी. चार सामान्य डब्बों के हालात असामन्य बने हुए थे. पैर रखने की जगह नहीं. सामान्य डब्बों का अपना समाजशास्त्र है. हमेशा ये डब्बे रेल के दोनों सिरों पर ही लगाए जाते हैं. एक दोस्त ने मुझे समझाते हुए कहा था, “देखों रेल पटरी से उतरे या फिर कोई और दुर्घटना हो, सबसे ज्यादा चपेट में किनारे के डब्बे आएंगे. अगर ऐसा नहीं है तो एसी के डब्बे सिरे पर क्यों नहीं लगाए जाते? दरअसल जनरल में सफ़र करने वाले लोग देश की सबसे गरीबी जनसंख्या है. इसलिए उनकी मौत से किसी को फर्क नहीं पड़ता.?”

सुबह चार बजे जाखल जंक्शन पहुंचा. यहां से सुबह पांच बजे में पेशेंजर गाड़ी खुलती है जो संगरूर और दूसरे जिलों के छोटे स्टेशन जाती है. मुझे इसी पेसेंजर से लहरागागा जाना था. एक घंटे का अंतराल होने की वजह से मैं स्टेशन के बाहर चाय पीने चला गया. बाहर के तरफ लगभग सौ से अधिक लोग सोये हुए थे.

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ये सब प्रवासी मजदूर थे. गेंहूं की कटाई से धान की रुपाई तक बिहार और पूर्वांचल से आए मजदूर यहां रुकते हैं. ये लोग गिरोह में काम करते हैं. यह प्रति एकड़ गेंहू की कटाई और धान की रोपाई के हिसाब से ठेके लेते हैं. हर सीजन में ये लोग बीस से पच्चीस हजार रूपए और बुक्की(अफीम की डंठल का बुरादा) की लत ले कर घर लौट जाते हैं.

मैंने चाय पी ही रहा था कि मैंने पास के पेड़ पर बने गट्टे पर बैठा 25 साल का नौजवान कलेजा फाड़ कर रोने लगा. कटिहार के बरसोई का रहने वाला सोनू यहां कुछ पैसा कमाने आया हुआ है. उसका ठेकेदार पड़ोस के गांव का है. ये कुल पंद्रह लोग हैं जो यहां एक साथ कम करते हैं. सोनू को रात 1 बजे खबर मिली कि उनकी मां का देहांत हो गया. उसे यहां से अपने गांव पहुंचने में 24 घंटे से ज्यादा का समय लग जाएगा. शायद वो आखिरी बार अपनी मां का मुंह भी ना देख पाए. परदेश में बैठ कर किसी के मरने की खबर सुनना दुःख को दोगुना कर देती है. यहां कोई अपना नहीं है जिसे आप अपना दुःख बयान कर सकें. सोनू मुझसे रोते हुए कहने लगा, “जानते हैं माई को टीबी था. कह रही थी कि बेटा मत जा. पर हम नहीं रुके. रुक कर करते भी क्या? यहां ना आते तो साल भर खाते क्या?”

आदमी मर जाता है, और पीछे रह जाती हैं औरते……

तहसील लहरागागा का गांव गुरए खुर्द. 2008 से अब तक यहां 25 आत्महत्या हो चुकी हैं. सबसे ज्यादा 13 आत्महत्याएं 2013 में हुई थीं जब रबी की फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई. मैं गुरजीत सिंह के घर पर था. यहां मेरी मुलाकात उनकी माँ शांति कौर से हुई. गुरजीत ने 9 मार्च को जहर खा कर ख़ुदकुशी कर ली थी. शांति कौर इस पूरे घटानक्रम को इस तरह से पेश करती हैं.

” सुबह चार बजे की बात रही होगी. गुरूद्वारे में पाठी बोलने लग गया था. मेरी नींद खुली तो देखा कि गुरजीत घर के दरवाजे से बाहर जाने को हो रहा है. मैंने आवाज दी तो बिना मुड़े यह कहता हुआ निकल गया कि बस दस मिनट में आ रहा है. सर्दियों का समय था. अँधेरा काफी रहता है सुबह के वक़्त. 

पांच बजे के लगभग दूध बेचने वाला मक्खन बदहवाश सा घर आया. उसने कहा कि गुरजीत भाई सड़क के पास वाली गली में पड़ा हुआ है. मैं उस समय चाय बनाने की तैयारी कर रही थी. दूध चूल्हे पर छोड़ कर गली की तरफ भागी. वहां जा कर देखा तो गुरजीत पेट पर हाथ रख पर अधलेटा पड़ा हुआ था. पास ही की गई उल्टी से तेज बदबू उठ रही थी. मुंह से झाग निकल रहा था. 

मैंने पड़ोसी को बुला कर गुरजीत को गाड़ी में डाल कर लहरा के हॉस्पिटल ले जाने लगी. रास्ते में उसका शारीर ठंडा पड़ने लगा. हम लहरा पहुंचते इससे पहले उसकी मौत हो गई.”

मैंने शांति कौर से सवाल किया कि उनके लड़के ने ऐसा कदम क्यों उठाया? उनका जवाब था

” हमारे पर दस लाख का कर्जा है जी. चार-चार लाख रूपए बैंक से लिए हुए हैं. डेढ़ लाख रूपए आड़तिए के पड़े हुए हैं. पचास हजार रूपए पड़ोसी से कर्ज ले रखा है. हमारे पास छह किले (एकड़) जमीन हैं. कभी 12 किले हुआ करती थी. आधी जमीन बिक गई पर कर्जा वही का वही है.”

हर साल हमें जो किसान आत्महत्या पर जो आंकडे मिलते हैं वो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में दर्ज होते हैं. गुरजीत का मामला इस साल के आंकड़ों में दर्ज नहीं हो पाएगा. मैंने शांति जी से पुलिस शिकायत के बाबत पूछा तो उनका जवाब था
” हमकों गांव के लोगों ने कहा कि जो हो गया सो हो गया. अब पुलिस में शिकायत करने का कोई फायदा नहीं. वो लोग तुम्हे बेवजह परेशान करेंगे. मैं जनानी जात पुलिस थानों के चक्कर कब तक काटती?’ IMG_3169

शांति जी बात को मेरे स्थानीय गाइड गुरमेल सिंह पूरा करते हैं. उन्होंने मुझे बताया कि पंजाब पुलिस का रवैय्या आम लोगों के प्रति अच्छा नहीं है. अब इस घटना के बाद ये लोग इन से हजार तरह के सवाल करते. एफआईआर में मृतक के परिजनों के नाम डाल देते. फिर आप घुमते रहिए थाने और विधायक के बंगले पर. पैसे दे कर छूटने के अलावा कोई चारा नहीं हैं. इस लिए ख़ुदकुशी के मामले में अक्सर आदमी थाने जाने से बचता है.

शांति कौर के परिवार में हरित क्रांति के बाद तीसरी मौत है. उनके शौहर दरबारासिंह कोई 30 साल पहले कर्ज से आजीज आ कर अपने ही खेत में फांसी लगा कर मर गए थे. उस समय शांति कौर की उम्र 30 साल थी. दो लड़के और एक लड़की मां शांति ने हिम्मत नहीं हारी. अपने खेत ठेके पर दे कर खुद दिहाड़ी मजदूरी करने लगीं. जैसे-तैसे तीनों बच्चों को बड़ा किया और शादी की. शांति कौर अब बेफिक्र हो चुकी थीं आखिर उनके दो बेटे जवान और काम करने लायक हो गए थे.

शांति कौर के बड़े लड़के बूंटा सिंह ने घर की माली हालत सुधारने के लिए ठेके पर खेती करना शुरू किया. शादी हुए तीन साल हो गए थे. दो साल का लड़का सिकंदर कुछ ही साल में स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाएगा. खेती डूबती गई और कर्ज चढ़ता गया. 2003 के मार्च की ग्याहरवीं तारीख को बूंटा सिंह ने पिता की तरह ही फांसी लगा कर जान दे दी. बूंटा सिंह की मौत के बाद सरकार ने सहकारी बैंक का दो लाख का कर्ज माफ़ कर दिया. लेकिन कर्ज को फिर से जानलेवा हद पर पहुंचने में महज एक दशक का समय लगा.

गुरजीत की बीवी इस घर की तीसरी बेवा हैं. उनकी दो लड़कियों अर्शदीप कौर(14), मंजीत कौर (16) को समय से पहले सायानी हो जाना होगा. शांति कौर की हिम्मत अब जवाब दे चुकी है. वो जिंदा रहने के लिए फिर से उसी तकनीक को अपनाएंगी जो उन्होंने तीस साल पहले अपने पति के इंतकाल के बाद अपनाई थी. शांति कौर कहती हैं ,”आदमी तो मर जाता है सारी आफत हमारे सर छोड़ कर. बच्चों को छोड़ कर हम मर भी नहीं सकती. मैंने दूसरों के खेत में मजूरी करके अपने बच्चे पाले पर कभी कर्ज नहीं लिया.”

1990-91 से 2010-2011 तक भारत में छोटे और सीमान्त किसानों की संख्या 8 करोड़ 35 लाख से बढ़ कर 11 करोड़ 76 लाख पहुंच गई. वहीँ पंजाब में यह आंकड़ा पांच लाख से घट कर 3 लाख 60 हजार पर पहुंच गया. वहीँ बड़े किसानों की संख्या में पांच लाख का ईजाफा देखा गया. अकादमिक विद्वान् इसे ‘रिवर्स पैटर्न’ का नाम देते हैं. इस रिवर्स पैटर्न के कारणों को सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के प्रोफ़ेसर एस.एस. गिल कुछ इस तरह समझाते हैं.
” यह बाजार द्वारा गरीबों पर थोपी गई जिंदा रहने की रणनीति है. 2000 तक छोटे और सीमान्त किसान कुछ ना कुछ मुनाफा कमा लेते थे. अब अपनी जमीनों को किराये पर देना ज्यादा अक्लमंदी का काम साबित हो रहा है.”

….तीन बेवाओं और तीन नाबालिगों वाले इस परिवार की जमीनें फिर से कोई और जोतेगा और घर की महिलाऐं खेत मजदूर बन जाएंगी.

खेती करने वाला कोई भी इंसान ऐसा नहीं है जो कर्जे से दबा ना हो….

संगरूर जिले की सुनाम तहसील का गांव छाजली. यहां हरविंदर दास नाम के 34 वर्षीय किसान के आत्महत्या की थी. मैं गांव की मोड़ पर जब पता पूछने के लिए रुका. यहां गांव के कुछ बुजुर्ग बैठ कर ताश खेल रहे थे. बातचीत के दौरान पता चला कि 1500 घरों वाले इस गांव में इस साल रबी की फसल खराब होने के बाद 9 किसान और खेत मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं.पिछले साल खरीफ की फसल के दौरान यह आंकड़ा 12 था. मैं हरविंदर दास के घर पर था. मुझे देख कर हरविंदर की बीवी सुखजिंदर कौर रोने लग गईं. उनकी आंख के आंसू सूख चुके थे और पलकें बुरी तरह से सूजी हुई थी. इसी 12 जून को हरविंदर ने फांसी लगा कर जान दे दी.

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मैं हरविंदर के परिवार से बात करने के लिए बैठा हुआ था. हरविंदर के पिता हरबंश दास को दिल्ली से किसी के आने की सूचना मिली. वो अपने घर पर आए. थोड़ी देर मेरे सामने की ख़त पर बैठे रहे. फिर एकाएक उठ कर चल दिए. मुझे याद नहीं पड़ता कि पांच मिनट की हमारी इस मुलाकात में उन्होंने किसी शब्द को बरता हो.

मेरे सवाल ‘क्या हुआ था’ का जवाब मंजीत कौर ने कुछ इस तरह से दिया,

“मैं रात को 12 बजे तक हरविंदर का इन्तेजार करती रही. वो पिछले दो महीने से देर रात आता था. मैं उसे खाना खिलाने के बाद सोती थी. उस दिन घर पर मैं और मेरी बेटी थे. वो छुट्टियों में घर आई हुई थी. “

मंजीत बता ही रही होती हैं कि हरविंदर की बीवी बयान के इस सिरे को पकड़ कर अपने हिस्से की कहानी बयान करना शुरू कर देती हैं.

“मुझे उन्होंने दो दिन पहले ही कहा कि छुट्टियाँ हो गई हैं घर चली जाओ. मैंने कहा कि दो-चार दिन में चली जाउंगी. लेकिन वो नहीं माने. सुबह जिद्द करके मुझे मेरे पीहर छोड़ कर आ गए. मुझे अगर पता होता मैं क्यों जाती?”

इसके बाद मंजीत कौर का बयान फिर शुरू हुआ

“जब वो आया तो कहने लगा कि खाना अंदर ही रख दो मैं कमरें में खा लूँगा. मैंने उसकी थाली ढक कर अंदर रख दी. सुबह पाठी की आवाज सुन कर जागी. फ्रिज अंदर के कमरे में पड़ा हुआ था. मुझे चाय के लिए दूध लेना था. मैंने दरवाजा बजाया पर उसने खोला नहीं. मैंने सोचा कि देर रात सोया है उसको ना जगाया जाए. मैंने ताजा दूध से चाय बनाई. इस बीच मैंने अपनी बेटी को कूलर में पानी भरने के लिए कहा. रात भर में पानी खत्म हो जाता है. वो सुबह देर तक सोता था तो मैं सुबह कूलर में पानी भर दिया करती थी. 

बेटी ने जब कूलर में पानी भरने के लिए जाली हटाई तो देखा हरविंदर बिस्तर पर नहीं था. उसने दो-तीन बार आवाज भी लगे पर किसी ने जवाब नहीं दिया. जब उसने अंदर झांक कर देखा तो मेरा बेटा पंखे पर लटका हुआ था.”

इतना कह कर वो रोने लगीं. उनके साथ सुखजिंदर भी रोने लगी. रोते-रोते सुखजिंदर ने बताया कि उनके पति अक्सर उनसे कहा करते कि वो फांसी लगा कर मर जाएंगे. इस बीच हरविंदर के 22 साल के भाई हरजीत दास मुझे आगे की कहानी बयान करने लगे.

“हम लोगों ने दरवाजा तोड़ने की कोशिश की पर वो टूटा नहीं. फिर हम कूलर को हटा कर खिड़की के रास्ते अंदर दाखिल हुए. तब जा कर भाई की लाश उतारी जा सकी.”

आखिर हरविंदर को अपनी जान क्यों लेनी पड़ी. इस सवाल के जवाब में हरजीत मुझसे कहते हैं-

“हमारे पास डेढ़ एकड़ जमीन है. पांच साल पहले भाई सुनाम रोड पर वनस्पति तेल बनाने की फैक्ट्री में काम करते थे. तब तक सब ठीक था. फिर अचानक फैक्ट्री बंद हो गई. उस समय भी कई लोगों ने ख़ुदकुशी कर ली थी. मेरे भाई ने फैक्ट्री बंद होने के बाद ढाई लाख का कर्ज लिया. इससे उसने तूड़ा(चारा) निकालने की मशीन ली. इसमें उसको हर साल घाटा पड़ने लगा. काम होता नहीं था तो रखरखाव के पैसे भी घर से लगने लग गए. सोसाइटी से 70 हजार का कर्ज ले कर हमने पिछले कर्जे का ब्याज भरा था. 

फैक्ट्री मालिक ने फैक्ट्री में प्लाट काट कर बेचने शुरू कर दिए. भाई ने चार हजार में गार्ड की नौकरी करनी शुरू की थी दो महीने पहले ही. चार हजार की आमदनी में घर का खर्ज भी नहीं चलता तो कर्ज कैसे उतरता. लोग रोज-ब-रोज घर आने लगे. कर्ज उतारने के लिए पैसे नहीं थे. रही-सही कसर बारिश ने पूरी कर दी. जो थोड़ी बहुत उम्मीद थी वो भी टूट गई. जब लोगों की फसल ही बर्बाद हो गई तो तूड़ा मशीन में भी घटा लग गया. कर्ज उतरने की जगह बढ़ता ही जा रहा था. इसी सब से तंग आ कर मेरे भाई ने जान दे दी.”  

इतना कहने के साथ ही हरजीत ने मेरे ऊपर चलते पंखे की तरफ इशारा करते हुए इशारा करते हुए कहा, ‘यही वो पंखा जिस पर भाई लटक गया.’ मैं सोचने लगा कि हर रात अपनी दो बेटियों के साथ लेटी हुई सुखजिंदर जब इस पंखे को अपने सिर पर चलते देखती होंगी तो यह कितना मनहूस अनुभव रहता होगा.

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अभी मैं इसी सोच में था कि हरजीत की आवाज आने लग जाती है, “खेती कर रहा कोई भी आदमी जो सिर्फ खेती पर निर्भर है उसके ऊपर कर्जा जरुर है. अब अगर आप पेन बनाते हैं तो उसका दाम भी आप ही तय करेंगे. पर किसान ऐसा आदमी है जो अपनि फसल का दाम तय नहीं कर सकता. हमें आडतिया जितने दाम देगा हमें लेना पड़ेगा. ”

मैं हरविंदर के घर से चलने को हुआ तो उनकी बेवा सुखजिंदर फिर से रोना शुरू कर चुकी थीं. इस बार वो कह रहीं थीं, “मेरा और दो बेटियों का ख़याल नहीं किया तो कोई बात नहीं पर इसने तेरा क्या बिगाड़ा था.” उनका इशारा पेट में पल रहे आठ महीने बच्चे की तरफ था. मैं नहीं जनता कि 10 साल की आँचल, 8 साल की परनीत और इस अजन्मे बच्चे के भविष्य का क्या होगा. क्योंकि अगर मुआवजा अगर मिला भी तो वो पिछली देनदारियों के लिए भी पूरा नहीं पड़ने वाला…..

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