नासिरूद्दीन
हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा,
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी न्यारा।
ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा
इनकी रूहानियत से रोशन है जग सारा।
कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से प्यारा,
करती है जरखेज जिसे गंगो-जमुन की धारा।
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा।
इसकी खानें उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा,
इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा।
….
हिन्दू-मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्यारा
यह गीत ‘राष्ट्रवाद’ के इस तूफानी दौर की रचना नहीं है. न ही किसी ने इसे खुद को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए लिखा है. वैसे, कुछ अंदाजा लगाया जाए कि आखिर यह कब लिखा गया है? जब यह लिखा गया होगा तो राष्ट्रवाद का कौन सा ख्याल हवा में कौंध रहा होगा?
जनाब, बात पुरानी है. हालांकि इतनी भी पुरानी नहीं कि याद न रखी जाए. बात 1857 यानी आजादी की पहली लड़ाई की है. इतिहासकारों का एक बड़ा धड़ा मानता है कि तब तक अंग्रेज यह समझा पाने में कामयाब नहीं हो पाए थे कि हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं. इसलिए दोनों एक-दूसरे के मुकाबले में ही खड़े रहेंगे. इसलिए इस गीत से राष्ट्र की उस ख्याल की बू नहीं आती है, जिसकी गमक हमारे दिमाग में बसाने की कोशिश हुई/होती है. इस गीत को 1857 की आजादी का तराना कहा गया.
इसे अजीमुल्ला खां ने लिखा था. आज जब सारे विचार, राय और बड़े से बड़ा काम सब कुछ नाम में ही समेटने की मुहिम चल रही हो तो अजीमुल्ला खां का नाम भी कुछ तो बता रहा होगा! ठीक समझ रहे हैं. वे वही हैं और वे पेशवा नाना साहेब के खासमखास थे. कानपुर में जब अंग्रेजों से जंग हुई तो अजीमुल्ला खां ने काफी अहम भूमिका अदा की थी.
आज जब देशभक्ति का पैमाना चंद खास नारे हो रहे हैं, वैसे में ऐसे नारों को याद करना निहायत जरूरी हो गया है. क्यों चंद खास नारे के साथ ही यह कहा जाता है कि ‘… भारत में रहना है तो …. कहना होगा’. क्यों यह सवाल सिमट कर किसी खास मजहबी पहचान वाले तक सिमटा दी जाती है. सवाल यह नहीं है कि ये चंद नारे बोलने में परेशानी ही क्या है? या क्यों नहीं बोले जाने चाहिए? सवाल है, ये चंद नारे ही पैमाना क्यों बनेंगे या बनने चाहिए …और चंद लोगों के लिए ही देशभक्ति का पैमाना क्यों होगा? पैमाना तय करने का हक, किसे, किसने दे दिया है?
यह तो तय है कि अजीमुल्ला खां को ‘हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा…’ कहने के लिए न तो नाना साहेब ने कहा होगा और न ही किसी ने उन्हें धमकाया होगा. देशभक्ति उनके यकीन का हिस्सा थी और इसके दायरे में मुल्क में रहने वाले जीते-जागते लोग थे. इसीलिए यह लाइन निकली, ‘हिन्दू-मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्यारा’.
आजादी के दौर के कुछ और नारों पर ग़ौर करें तो जिन पहचानों को आज बार-बार कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है, शायद उनके बारे में थोड़ा और सच पता चले. ‘हमारा नारा, मुकम्मल आजादी’ यानी पूर्ण स्वराज का नारा सबसे पहले मौलाना हसरत मोहानी ने दिया था. इन्हीं मौलाना हसरत मोहानी ने ‘नारे तकबीर, अल्लाह हो अकबर’ या ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ की जगह, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा भी दिया. यह नारा हमारी आजादी के क्रांतिकारी आंदोलन का सबसे दिलकश नारा साबित हुआ.
भगत सिंह और उनके दोस्तों को देखें और उनके नारों पर ग़ौर करें. इन्होंने जो कुछ नारे सबसे जोरदार तरीके से उठाए इनमें थे… ‘इंकलाब जिंदाबाद!’ ‘हिन्दुस्तान जिंदाबाद!’
इक़बाल के तराना ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा…’ से हम सब वाकिफ हैं. इसे गाने से किसी को एतराज हुआ हो, अभी तक सुना नहीं है. पर इस वक्त दकन यानी तेलंगाना की आजादी के सिपाही मख्दूम मोहिउद्दीन को याद करना जरूरी है. उन्होंने नारा दिया, ‘कहो, हिन्दोस्तां की जय, कहो, हिन्दोस्तां की जय’. वे हिन्दोस्तां की जय करते हैं और किसानों, मजदूरों, नौजवानों, शहीदों, जिंदगियों की जय की बात करते हैं.
सुभाषचंद्र बोस को गरम दलीय नेता माना जाता है. क्या हमने कभी गौर किया कि उनका नारा ‘जय हिन्द’ क्यों था? उनके देशप्रेम को उसी स्केल पर क्यों न नापा जाए, जिस स्केल पर आज बहुतों को नापा जा रहा है. क्या हम यह आज तय करेंगे- आजाद हिन्द फौज ने फलां नारा नहीं लगाया था, इसलिए वे, वे नहीं हैं. लाल किले से हमारे प्रधानमंत्रियों ने सबसे ज्यादा ‘जय हिन्द’ के ही नारे लगाए हैं. क्या ये लोग कम देशभक्त थे?
नारे तो ढेर सारे होंगे और थे लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि आजादी की लड़ाई की सबसे मजबूत धारा ऐसे नारों पर अपनी जान लगा रही थी, जिनमें किसी मजहबी पहचान की झलक नहीं थी. उसके संकेत भी नहीं थे. वे किसी ऐसे नारे से अपने को जोड़ने को तैयार नहीं थे, जिससे हिन्द का रहने वाला छोटे से छोटा तबके के जुड़ने से बचने का डर हो. नारे उनके लिए हिन्द के वासियों को जोड़ने का जरिया थे.
अचानक पिछले दो दशकों में एक नारा और मशहूर हुआ है, ‘जय भीम’. इस नारे को लगाने वाले को क्या कहा जाएगा? जो ये नारा लगा रहे हैं, वे इन दो शब्दों से अपनी नई पहचान गढ़ रहे हैं. नए विचार को अपना रहे हैं. उनके लिए इस नारे में बहुजन के हिन्दोस्तां की जय है.
नारों का विचार से ताल्लुक है. नारों का मौजूदा हालत के साथ-साथ भविष्य से भी ताल्लुक है. इसलिए भारत की जय कैसे होगी, यह हिन्द के किसान, मजदूर, नौजवान, दलित, आदिवासी, स्त्रियां तय करेंगी. इनकी जय सतरंगी होगी तो जाहिर है, इनके भारत की जय के नारे भी सतरंगे होंगे. वैसे, ये भी तो कह सकते हैं, जिसने हमारा फलां नारा नहीं लगाया … वे राष्ट्रद्रोही हैं। हम ध्यान रखें, इनके पास नारों की लम्बी लिस्ट है. वे सब नारों में भारत के लोगों की ही जय की बात करते हैं.
प्रभात खबर, 26 मार्च 2016
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