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(Photo Courtesy : indianculturalforum.in, Radhika Vemula addresses Dalit Mahasammelan in Una)
जब मैं पैदा हुआ तब मैं बच्चा नहीं था
मैं एक स्वप्न था, एक विद्रोह का स्वप्न
जिसे मेरी मां, जो हजारों सालों से उत्पीड़ित थी
उसने संजोया था
अब अभी भी मेरी आंखों में अछूता पड़ा है
हजारों सालों की झुर्रियों से ढंका उसका चेहरा
उसकी आंखें, आंसूओं से भरे दो तालाबों ने
मेरे शरीर को नहलाया है ….
– साहिल परमार
/गुजराती के जानेमाने कवि साहिल परमार की  कविता ‘जब मैं पैदा हुआ’ के एक हिस्से का मूल गुजराती से अनुवाद, जीे के वनकर द्वारा,http://roundtableindia.co.in/lit-blogs/?tag=sahil-parmar/
1
गाय से प्रेम, मनुष्य से नफरत ?
 
हर अधिनायकवादी परियोजना की विकासयात्रा में ऐसे मुक़ाम अचानक आ जाते हैं कि उसके द्वारा छिपायी गयी तमाम गोपनीय बातें अचानक जनता के सामने बेपर्द हो जाती हैं और बिगड़ते हालात को संभालना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। हिन्दुत्व की ताकतें फिलवक्त़ अपने आप को इसी स्थिति में पा रही हैं। गुजरात में उदघाटित होते दलित विद्रोह ने उसके लिए बेहद असहज स्थिति पैदा कर दी है, जो आज भी विकसित होता दिख रहा है।
सौराष्ट्र  के उना में 15 अगस्त को ‘उना अत्याचार लडत समिति; की अगुआई में पहुंची दलित अस्मिता यात्रा अब समाप्त हो गयी हो; उसमें शामिल हजारों दलित, जो राज्य के अलग अलग हिस्सों से वहां पहुंचे थे, अब भले घरों की लौट गए हों, मगर उनका यह संकल्प कि हाथ से मल उठाने, सीवर में उतर कर उसकी सफाई करने या मरे हुए पशुओं की खाल उतारने के काम को अब नहीं करेंगे, आज भी हवा में गूंज रहा है और राज्य सरकार से उनकी यह मांग, कि वह पुनर्वास के लिए प्रति परिवार 5 एकड़ जमीन वितरण का काम शुरू करे वरना 15 सितम्बर से वह रेल रोको आन्दोलन का आगाज़ करेंगे, के समर्थन में नयी नयी आवाज़ें जुड़ रही हैं।
निश्चित ही हिन्दुत्व बिरादरी के किसी भी कारिन्दे ने या उसके अलमबरदारों ने इस बात की कल्पना तक नहीं की होगी कि उनके ‘मॉडल राज्य’ /जहां ‘आप हिन्दु राष्ट में प्रवेश कर रहे हैं, ऐसे बोर्ड गांवों-कस्बों में लगने का सिलसिला 90 के दशक के अन्त में ही उरूज पर पहुंचा था/ में ही उन्हें ऐसी चुनौती का सामना करना पड़ेगा और जिससे उन्होंने बहुत मेहनत से बनाए सकल हिन्दू गठजोड़ की  चूलें हिलने लगेंगी। यह उनके आकलन से परे था कि दलित – जो वर्णव्यवस्था में सबसे नीचली कतारों में शुमार किए जाते हैं – जिन्हें हिन्दुत्व की परियोजना में धीरे धीरे जोड़ा गया था, यहां तक कि उनका एक तबका 2002 के गुजरात दंगों की अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा में भी शामिल था, वह अलसुबह बग़ावत में उठ खड़े होंगे और गरिमामय जीवन की मांग करते हुए उन्हें चैलेंज देंगे। इतनाही नहीं वह अल्पसंख्यकों को भी अपने साथ जोड़ेंगे और इस तरह हिन्दुत्व की परियोजना की जड़ पर ही चोट पहुंचाएंगे।
जैसा कि इस स्थिति में उम्मीद की जाती है, जब दलितों का यह अप्रत्याशित उभार सामने आया तो उसकी क्या प्रतिक्रिया दी जाए, इसे लेकर वह बाकायदा बदहवासी तथा दिग्भ्रम का शिकार हुए। संघ परिवार के विभिन्न आनुषंगिक संगठनों या चेहरों से जितनी विभिन्न किस्म की आवाज़ें सुनाई दी, वह इसी का प्रतिबिम्बन था। इसमें कोई दोराय नहीं कि एक साथ कई आवाज़ों में बोलना हिन्दुत्व  ब्रिगेड की आम रणनीति का हिस्सा रहा है, मगर इस बार मामला वहीं तक सीमित नहीं था। सबसे बड़ा सवाल उनके सामने यही उपस्थित था कि गाय की रक्षा के नाम पर जो ‘परिवार’ के एजेण्डे को आगे बढ़ा रहे थे, ऐसे हमलावरों की हिफाजत करें, और इस तरह पीड़ितों से अपनी दूरी कबूल करे या दूसरी तरफ पीड़ितों की हिमायत करे, हमलावरों की भर्त्सना करें तथा उन पर सख्त कार्रवाई की मांग करें तथा दलितों को अखिल हिन्दु एकता सूत्र में बनाए रखने की कवायद में जुटे रहें। इस विभ्रम का असर उनके द्वारा जारी वक्तव्यों में भी दिखाई दिया जो इस अवसर पर दिए गए। एक तरफ प्रधानमंत्राी थे जिन्होंने इस घटना के लम्बे समय बाद अपनी चुप्पी तोड़ी और यहां तक कहा कि गोरक्षा के नाम पर अधिकतर असामाजिक तत्व सक्रिय हैं और बताया कि वह गृह मंत्रालय को सूचित करनेवाले हैं कि वह ऐसे तत्वों के बारे में दस्तावेज तैयार करें। प्रधानमंत्राी मोदी के बरअक्स उनके पूर्वसहयोगी विश्व हिन्दू परिषद के लीडर भाई तोगडिया का रूख था, जिन्होंने गोरक्षकों पर लांछन लगाने की निन्दा की और ऐसी कार्रवाई को  ‘हिन्दू विरोधी’ कहा। यह दिग्भ्रम समझ में आने लायक था।
दरअसल, ऊना की घटना के बहाने हाल के समयों में यह पहली बार देखने में आ रहा था कि हिन्दुत्व ब्रिगेड अगर अपने एक अहम एजेण्डा – जो गाय के इर्दगिर्द सिमटा है और जिसने उसे राजनीतिक विस्तार में काफी मदद पहुंचायी है – को आगे बढ़ाने की कोशिश करती है तो एक संभावना यह बनती है कि हिन्दु एकता कायम करने के उसके इरादों में दरारें आती हैं। /सुश्री विद्या सुब्रम्हण्यम अपने उत्तर प्रदेश की राजनीति पर केन्द्रित अपने एक आलेख में इस स्थिति को ‘ए रिवर्स राम मंदिर मोमेन्ट’ कहती हैं – देखें: ीhttp://www.thehindu.com/opinion/lead/its-mayawati-versus-modi-in-up/article9022511.ece? ref=topnavwidget&utm_source=topnavdd&utm_medium=topnavdropdownwidget&utm_campaign=topnavdropdown / उन्मादी ‘गोरक्षकों’ के हमलों का शिकार दलितों के अलावा – जो ‘परिवार’ की राजनीति से ही तौबा कर रहे हैं – किसान आबादी का बड़ा हिस्सा भी गाय के इर्दगिर्द हो रही हिन्दुत्व की राजनीति से परेशान है क्योंकि वह अपने उन पशुओं को बेच पाने में असमर्थ है या उसे उन्हें बहुत कम कीमत पर बेचना पड़ रहा है – जो बूढ़े हो चुके हैं या जिन्होंने दूध देना बन्द कर दिया है। इतनाही नहीं मीट के व्यापार में लगे पंजाब के व्यापारियों ने पिछले दिनों प्रेस कान्फेरेन्स कर इन स्वयंभू गोरक्षकों की हिंसक कार्रवाइयों से अपने व्यवसाय में उन्हें उठाने पड़ रहे नुकसान को रेखांकित करते हुए प्रेस सम्मेलन किया। कहां धार्मिक हिन्दू गाय की पूछ के सहारो वैतरणी पार करने की बात करता है और अब यह आलम था कि हिन्दू धर्म एवं राजनीति के संमिश्रण के सहारे लोकतंत्र में अपनी जड़ ज़माने वाले लोगों के लिए गाय की वही पूछ उनके गले का फंदा बनती दिख रही है। हिन्दुत्व की मौजूदा स्थिति को सन्त तुलसीदास की चौपाई बखूबी बयां करती है ‘भयल गति सांप छछुंदर जैसी ..’
2.
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(Photo Courtesy : Newsclick.in)
 
‘‘राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछडे़ को साथ लाना है’’
हर कोई जानता है कि गोरक्षा के नाम पर हिन्दुत्व के अतिवादियों द्वारा जो कार्रवाईयां होती रही हैं, जिसमें कुछ भी ‘अटपटा’ नहीं था, यहां तक कि मरी हुई गाय की खाल उतार रहे मोटा समधियाला गांव के दलितों को जिस तरह सरेआम पीटा गया और उसका विडिओ बना कर सोशल मीडिया पर शेअर किया गया, वह भी पहली बार नहीं हो रहा था।
हम याद कर सकते हैं ऐसे हमलों को जब भाजपा खुद केन्द्र में अपने बलबूते सत्ता में नहीं थी, उसे सहयोगी दलों के सहारे सरकार चलानी पड़ रही थी। इस मामले में क्लासिक उदाहरण दुलीना/झज्जर/ का है – जो जगह राष्ट्रीय राजधानी से बमुश्किल पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित है – जहां इसी तरह मरी हुई गाय की खाल निकाल रहे पांच दलितों को गोरक्षा के नाम पर जुटी उन्मादी भीड़ ने दुलीना पुलिस स्टेशन के सामने पीट पीट कर मार डाला था, जब इलाके के अग्रणी पुलिस एवं प्रशासकीय अफसर वहां मूकदर्शक बने थे।/2003/ इस बर्बर घटना को लेकर एक अग्रणी हिन्दुत्ववादी नेता ने / जिनका कुछ समय पहले इन्तका़ल हुआ/ एक विवादास्पद बयान देते हुए इसे औचित्य प्रदान किया था, उन्होंने कहा था कि ‘पुराणों में इन्सान से ज्ंयादा गाय को मूल्यवान समझा जाता रहा है।’ इन हत्याओं से आक्रोश अवश्य पैदा हुआ था, कुछ हमलावरों की गिरफताारियां भी हुई थीं, मगर जल्द ही वह मामला भुला दिया गया था। हमलावरों को जब जमानत मिली थी तब ‘गोरक्षा के महान काम’ के लिए उनका जबरदस्त स्वागत हुआ था।
दरअसल, हाल के वक्त़ में हुए ऐसे तमाम हमले अधिक बर्बर रहे हैं , फिर वह चाहे लातेहार, झारखण्ड के पास दो मुस्लिम युवा व्यापारियों की गोरक्षक समूह द्वारा पीट पीट कर की गयी हत्या हो ; या उधमपुर के पास टक में सो रहे एक युवा को ऐसे ही अतिवादी समूहों द्वारा पेटोल बम डाल कर जला डालने का मामला हो ; या पलवल, हरियाणा में मीट ले जा रहे टक पर गोरक्षक समूहों द्वारा किया गया हमला हो तथा साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति का निर्माण हो या गुड़गांव के पास दो टान्स्पपोर्टर्स को गोमूत्र मिला कर गोबर खिलाने का मामला हो क्योंकि वह मवेशियों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जा रहे थे, इन हमलावरों का हौसला इस कदर बढ़ गया है कि वह न केवल हथियारों से लैस अपनी तस्वीरों को बाकायदा सोशल मीडिया पर प्रदर्शित करते हैं, यहां तक कि निरपराध लोगों पर किए जा रहे इन हमलों के भी विडिओ बना कर इंटरनेट पर डाल देते हैं और जहां तक कानून एवं व्यवस्था के रखवालों का सवाल है तो वह मूकदर्शक बने रहते हैं और कभी कभी पीड़ितों को ही ‘गोरक्षा’ के नाम पर बने कानूनों के प्रावधानों के तहत जेल भेज देते हैं।
यह अलग बात है कि मोटा समधियाला गांव में स्वयंभू गोरक्षकों द्वारा जिस हमले को अंजाम दिया गया और अपनी ‘बहादुरी’ को जो विडिओ सोशल मीडिया पर शेअर किया गया, वह एक टर्निंग पाइंट साबित हुआ है।
उना के बहाने उठे दलित विद्रोह ने दरअसल नफरत एवं असमावेश पर टिकी हिन्दुत्व की राजनीति का एक ऐसा रहस्य उजागर हुआ है, जिसे उसने बहुत मेहनत से ‘छिपा कर’ रखा था। मालूम हो कि अब एक साधारण व्यक्ति के लिए भी यह स्पष्ट हो चला है कि हिन्दुत्व – अपनी समरसता की जितनी भी बात करे – उसके लिए, दलित और अन्य हाशियाकृत तबके मनुष्य से कम दर्जा पर स्थित है ; जो एक तरह से उसके मनुवादी चिन्तन का ही विस्तार है। / एक क्षेपक के तौर पर यहां बताना समीचीन होगा कि आज़ादी के बाद जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया चली थी तब उन दिनों न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बल्कि हिन्दुत्व की राजनीति के पायोनियर कहे जानेवाले सावरकर ने उसका विरोध किया था और तर्क यह दिया था कि नए संविधान की जरूरत क्या है – हमारे पास मनुस्म्रति है ना !/ यहां एक और बात रेखांकित करना ज़रूरी है कि हिंदुत्व एवम हिंदूइस्म अर्थात हिन्दू धर्म में फर्क है, बकौल सावरकर हिंदुत्व राजनीतिक प्रोग्राम है तो हिंदूइस्म आस्था का मामला। इस पर विस्तार से चर्चा के लिए देखें उनकी रचना ‘हिंदुत्व’.
अब यह एहसास गहरा रहा है कि हिन्दुत्व राजनीति की औपचारिक भंगिमाएं जो भी हों, जहां उसे धार्मिक कल्पितों/religious imaginaries / के विमर्श में प्रस्तुत किया जाता है – जहां अल्पसंख्यक, फिर भले वह मुसलमान हों या ईसाई हों – उन्हें ‘अन्य’ के तौर पर पेश किया जाता है, मगर सारत‘ हिन्दु राष्ट्र  का विचार वर्चस्व एवं समरूपीकरण की ब्राहमणवादी परियोजना को ही वैधता प्रदान करता है। और ऐसे प्रोजेक्ट में दलितों के दोयम दर्जे पर तो धार्मिक मुहर भी लगी होती है।  समरसता का गुणगान करनेवाले हिन्दुत्व के कर्णधारों की निगाह में दलितों एवं पिछड़ों की वास्तविक स्थिति क्या है इसे समझना हो तो हम जनाब मोदी की अपने पार्टी के चार सौ अग्रणी नेताओं के साथ चली बातचीत पर निगाह डाल सकते हैं। अख़बारी रिपोर्टों में कहा गया कि उन्होंने यह कहा कि पार्टी को राष्ट्रवाद की बात करनी चाहिए जो ‘भाजपा की विचारधारा के केन्द्र में है’, मगर उनकी सबसे रेखांकित करनेवाली बात थी ‘राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलितों और पिछड़े को साथ लाना है।’ (http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/nationalists-are-with-us-lets-reach-out-to-dalits-backwards-pm-modi-to-party-2993281/)
क्या इसे महज जुबान फिसलना कहा जा सकता है या इस सच्चाई को अनजाने मे कबूल करना कि हिन्दुत्व की निगाह में राष्ट्र पर महज उंची जातियों का दावा बनता है और दलितों तथा पिछड़ों को – जो उसके दायरे के बाहर हैं – उन्हें इसमें शामिल करना पड़ता है। http://scroll.in/article/814769/the-daily-fix-what-did-modi-mean-when-he-said-there-is-a-chasm-between-dalits-and-nationalists)
दलितों के महज वोटों की चिन्ता, मगर उनके वास्तविक दुख दर्दों से, परेशानी से बेरूखी और उन पर हो रहे अत्याचारों के प्रति तिरस्कार की भावना / फिलवक्त हम उन बॉलीवुडमार्का डायलॉग्ज की बात न करें तो अच्छा ‘तुम मुझे गोली मार दो, मगर मेरे दलित भाईयों को छोड़ दो’/ इस बात में भी प्रगट होती है कि जब दलित विद्रोह अपने चरम पर था, तब तेलंगाणा राज्य के भाजपा विधायक द्वारा दलितों को पीटे जाने की घटना को ‘उचित’ ठहरानेवाले बयान पर कार्रवाई करने की भी जरूरत भाजपा नेतृत्व ने महसूस नहीं की। उपरोक्त विधायक ने इस सम्बन्ध में एक विडियो बना कर अपने फेसबुक पर शेअर किया था, उसके शब्द थे ‘ जो दलित गाय को मास को ले जा रहा था, जो उसकी पिटाई हुई है, वह बहुत अच्छी हुई है।’ (http://scroll.in/latest/812903/anyone-who-kills-cows-deserves-to-be-beaten-says-bjp-mla-raja-singh).
 
3.
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(Photo courtesy : http://www.newsclick.in)
 
गुजरात मॉडल की बेपर्द होती असलियत
 
पिछले दिनों जिग्नेश मेवानी, जो ‘उना दलित अत्याचार लड़त समिति’ के कन्वेनर है, जो दलितों के इस ऐतिहासिक उभार की अगुआई कर रहा है, वह राष्टीय राजधानी दिल्ली में थे ताकि व्यापक लोगों के सामने आन्दोलन के सन्देश को सांझा किया जा सके और ‘लड़त समिति’ द्वारा 15 सितम्बर से दिए गए रेल रोको कार्यक्रम के प्रति लोगों का समर्थन जुटाया जा सके। अपने व्याख्यान में उन्होंने दलितों के इस संकल्प को रेखांकित किया कि अब वह दूसरों की गन्दगी, मल नहीं उठाएंगे और न ही मरे हुए पशुओं को उठाएंगे। उन्होंने बताया कि किस तरह अहमदाबाद की 31 जुलाई की रैली में बीस हजार से अधिक दलित जुटे थे और उन्होंने अब यह शपथ ली है कि आइन्दा वह उन कामों को नहीं करेंगे जो वर्णव्यवस्था ने उन्हें सौंपे हैं और जिसकी वजह से उन्हें लांछन झेलना पड़ता है। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा
‘हम दलित अब दूसरों की गंदगी साफ नहीं करनेवाले हैं। मोदीजी, अब आप का स्वागत है मल उठाने में आध्यात्मिकता का अनुभव करने के लिए।
एक्टिविस्ट और वकील जिग्नेश अपनी इस बात के जरिए ‘कर्मयोग’ नाम से संकलित मोदी के भाषणों के संकलन का उल्लेख कर रहे थे, जो भाषण उन्होंने प्रशिक्षु आईएएस अधिकारियों के सामने दिए थे तथा जिन्हें गुजरात की एक सार्वजनिक उद्यम ने छापा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि सफाई अर्थात मल उठाने का काम वाल्मिकियों के लिए ‘आध्यात्मिकता का अनुभव’ प्रदान करता है।(See : https://kafila.org/2014/02/12/modi-and-the-art-of-disappearing-of-untouchability/)
आन्दोलन की विकासयात्रा की चर्चा करते हुए तथा इस बात का विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कि आखिर गाय के नाम पर आतंक मचानेवाले हिन्दुत्ववादी संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा दलितों को पीटे जाने की घटना ने आखिर विद्रोह का रूप कैसे धारण किया, उन्होंने गुजरात मॉडल के तहत दलितों को झेलने पड़ रहे वंचना और भेदभाव से जुड़ी तमाम बातें रखीं। उनके मुताबिक
– गुजरात में दलितों पर अत्याचार की हजारों घटनाएं हर साल होती हैं
– जनाब मोदी के मुख्यमंत्राीपद के दिनों में /2001 से 2014/ अत्याचारों की घटनाओं में बढ़ोत्तरी जारी रही
– गुजरात में 55,000 से अधिक दलित हैं जो आज भी मल उठाने के काम में लगे हैं
– एक लाख से अधिक सैनिटेशन/सफाई कर्मचारी हैं जिन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती
– 119 गांव के दलितों को दबंग जातियों के अत्याचारों से बचने के लिए पुलिस सुरक्षा में रहना पड़ता है
– दलितों पर अत्याचार में दोषसिद्धी की दर महज तीन फीसदी है
उनके मुताबिक दलितों पर होने वाले अत्याचारों के मामलों में न्याय से इन्कार का हाल का उदाहरण है थानगढ़ में तीन दलितों का हत्याकाण्ड, जब दलितों को ‘एके 47 राइफलों से भुन दिया गया था’ जिन दिनों मुख्यमंत्राी पद खुद मोदी संभाले हुए थे। गौरतलब था कि इस हत्याकाण्ड में न्याय दिलाने को लेकर एक लाख से अधिक दलितों तथा अन्य मित्रा शक्तियों ने प्रदर्शन किया, मगर सरकार की तरफ से अभियुक्त पुलिस कर्मी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। /अब जब गुजरात के दलित विद्रोह के रास्ते पर हैं तो सुनने में आया है कि इन हत्याओं की जांच के लिए गुजरात सरकार ने स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम के गठन का निर्णय लिया है और उसने पीड़ित परिवारों के लिए मुआवजे की राशि भी बढ़ा दी है।/
जब श्रोतासमूह में से किसी ने यह सवाल उठाया कि अगर आप दलितों के लिए जमीन की मांग कर रहे हैं तो क्या राज्य में इतनी जमीन उपलब्ध है तब जिग्नेश ने विभिन्न योजनाओं के तहत वंचित तबकों के लिए उपलब्ध जमीन का विवरण पेश किया और बताया कि किस तरह वर्चस्वशाली जातियां जगह जगह अनुसूचित तबकों के लिए लक्षित जमीनों पर कब्जा किए हुए हैं। जिग्नेश के मुताबिक भूदान आन्दोलन के दौरान सरकार को जो हजारों एकड़ जमीन मिली थी वह भी अभी तक वितरित नहीं की गयी है। उन्होंने एससी-एसटी सबप्लान के तहत पहले से मौजूद उस प्रावधान की भी चर्चा की कि ‘अगर जमीन उपलब्ध न हो तो जमीन खरीद कर भी उन्हें दी जा सकती है।’ उनका आसान सवाल था, जो समूचे श्रोतासमूह को सोचने के लिए मजबूर किया कि ‘आखिर विकास के नाम पर अगर हजारों एकड़ जमीन अंबानियों, अडानियों और टाटा को वितरित की जा सकती है तो फिर दलितों को उनके न्यायपूर्ण अधिकार से किस तरह वंचित किया जा सकता है।’ जिग्नेश ने भूमि अधिग्रहण कानून के सन्दर्भ में राज्य सरकार द्वारा अंजाम दिए गए उन ‘दमनकारी’ तथा ‘गैरलोकतांत्रिक’ प्रावधानों की भी चर्चा की जिसके अन्तर्गत ‘सहमति’ के प्रावधान को हटा दिया गया है – जिसका मतलब यही होगा कि अगर सरकार ‘विकास’ के नाम पर कॉर्पोरेट समूहों को जमीन देना चाहें तो वह किसानों की जमीन ‘पब्लिक गुडस’ अर्थात जनकल्याण के लिए हस्तगत कर सकती है और कुछ प्रतीकात्मक मुआवजा देकर मामले को समाप्त मान सकती है।
अन्य सवाल यह उठा कि दलित अगर अपने ‘पारम्पारिक पेशों’ को छोड़ देंगे जो उन्हें ‘आर्थिक सुरक्षा’ प्रदान कर सकता है, तब जिग्नेश ने डा अंबेडकर को उदध्रत किया जिन्होंने ऐतिहासिक महाड सत्याग्रह के दिनों में /1927/ दलितों का आवाहन किया था कि वह ‘लांछन लगे इन पेशों को छोड़ दें मगर गरिमामय जीवन हासिल करने से समझौता न करें, भले ही इसके लिए उन्हें ‘भूख से मरने’ के लिए तैयार रहना पड़े।
गुजरात माडल:दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग के भूमिहीनों को अतिरिक्त जमीन से इन्कार, पटेलों को ‘‘मिली’’ 12 लाख एकड़ जमीन
… गुजरात में भूमिहीनों को अतिरिक्त जमीन बांटने के मामले में – जिसे 1960 के गुजरात एग्रिकल्चरल लेण्ड सीलिंग एक्ट के तहत जमींदारों से हासिल किया गया था – बहुत नाममात्र की प्रगति हुई है, इसके बारे में नए तथ्य सामने आए हैं। सूचना अधिकार कानून के तहत डाले गए आवेदनों के आधार पर, जुनागढ़ के भूमि रेकार्ड जिला रजिस्टार ने इस बात को स्वीकारा है कि 16 में से 11 गांवों को लेकर, जिनके बारे में सूचनाएं मांगी गयी थीं, ‘वहां अतिरिक्त जमीन को लेकर विगत 24 सालों में कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया’, इसलिए वहां कोई जमीन आवंटित नहीं की गयी।
एक अन्य मामले में, नवसारी जिले में, गुजरात सरकार ने 2006 और 2008 के दरमियान, जबकि मोदी राज्य के मुख्यमंत्राी थे, उसने 7,542 भूमिहीनों को जमीन ‘आवंटित’ की, मगर एक साल बाद उसने खुद स्वीकारा कि इनमें से 3,616 लोगों को अभी भूमि सम्बन्धी कागजात दिए जाने हैं। ‘‘हालांकि, अब सूचना अधिकार के तहत डाली गयी याचिका के आधार पर, हम जानते हैं कि 2015 में भी चीजें बदली नहीं थीं।
‘दलित अधिकार’ नामक गुजराती पत्रिका में लिखे एक आलेख में जिग्नेश मेवानी कहते हैं कि ‘‘हमारे पास प्राप्त सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि गुजरात सरकार ने गुजरात एग्रिकल्चरल लेण्ड सीलिंग एक्ट, 1960 के अन्तर्गत 1,63, 808 एकड जमीन हासिल की और हमारा यह मानना है कि उनमें से अधिकतर महज कागज़ पर ही भूमिहीनों को बांटी गयी। भूमिहीन, मुख्यतः दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग से जुड़े लोगों को अभी भी जमीन पर वास्तविक हक नहीं मिल सका है।’’
मेवानी लिखते हैं, ‘‘जमीन जोतनेवाले की हो इस कानून का सबसे अधिक फायदा उंची जाति के पटेलों को हुआ है। लगभग 55 हजार पटेलों को 12 लाख जमीन बांटी गयी, जो गुजरात के सौराष्ट और कछ इलाकों में अतिरिक्त घोषित की गयी थी। लेकिन जहां तक दलित भूमिहीन क्रषकों का ताल्लुक है, उन्हें 12 इंच तक जमीन नहीं मिली। एक बेहद छोटा तबका, जो सत्ताधारी तबकों के करीब है, उसे ही लाभ हुआ है।’’
मेवानी के मुताबिक ‘‘आइए गुजरात सरकार के गुड गवर्नंस का एक नमूना देखते हैं। हम लोगों ने अलग अलग गांवों में आवंटित 6,500 एकड जमीन के बारे में तथ्य जानने के लिए 2011 से 2015 के दरमियान सूचना अधिकार कानून के तहत 65 आवेदन डाल। इसके बावजूद अधिकारी इस भूमिसंबंधी कागज़ातों की कापी देने से इन्कार कर रहे हैं जो दिखा सकें कि जमीन वास्तविक तौर पर भूमिहीनों को मिली।’’
गुजरात स्थित मानवाधिकार संगठन ‘जनसंघर्ष मंच’ से सम्बद्ध मेवाणी कहते हैं ‘‘कुल 1,63,808 एकड अतिरिक्त जमीन में से, लगभग 70 हजार एकड जमीन रेवेन्यू टिब्युनल, गुजरात उच्च अदालत और सर्वोच्च न्यायालय के साथ विवादों में अटकी है। अब इस जमीन का आवंटन नहीं किया जा सकता, मगर इस बात का जवाब तो ढंूढना ही पड़ेगा कि आखिर बाकी जमीन का आवंटन क्यों नहीं हुआ।’’
दरअसल मेवाणी यह कहते हैं कि अतिरिक्त जमीन में से 15,519 एकड़ जमीन ऐसी है जिस पर कोई विवाद नहीं है’ इसके बावजूद गुजरात सरकार ‘इस पर कार्रवाई करने से इन्कार कर रही है।’’….
दलितों के साथ न्याय से लगातार इन्कार और सरकारी दावों और जमीनी स्तर की हकीकत के अंतराल की बातें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पहले की रिपोर्टों में भी पुष्ट होती हैं। अगर हम वर्ष 2009 की रिपोर्ट पर सरसरी निगाह डालें तो पता चलता है कि देश में मानवाधिकार उल्लंघन  के सामने आए 94,559 मामलों में से 3,813 मामले गुजरात से थे और इस तरह मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में गुजरात उत्तर प्रदेश और दिल्ली के बाद पूरे देश में तीसरे नम्बर पर था।  (Indian Express, 20 th March 2009).
अगर हम राज्य के सामाजिक न्याय विभाग द्वारा राज्य के मुख्य सचिव और कानूनी महकमे को सौंपी गयी 23 पेजी गोपनीय रिपोर्ट को देखें तो वह ‘प्रीवेन्शन आफ एटरासिटीज एक्ट अगेन्स्ट एससी/एसटी के मातहत दर्ज मामलों को लेकर गडबडझाले की ओर इशारा करती है। /एक्स्प्रेस, 15 सितम्बर 2006/ प्रीवेन्शन आफ एटरासिटीज एक्ट के तहत दोषसिद्धी की दर महज 2.5 फीसदी है जबकि बेगुनाह साबित होने का प्रतिशत 97.5 फीसदी है।
इस रिपोर्ट में इस बात का विवरण पेश किया गया है कि किस तरह इस अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की जांच पुलिस ठीक से नहीं करती और मुकदमे की कार्रवाई के दौरान पब्लिक प्रासिक्युटर प्रतिकूल/दलितविरोधी रूख अख्तियार करते हैं।
अधिनियम स्पष्ट करता है कि इसके तहत दर्ज मुकदमों को डीवायएसपी की नीचली रैंक के अफसर द्वारा जांच नहीं किया जा सकता, लेकिन ऐसे 4,000 से अधिक मामले पुलिस इन्स्पेक्टर या पुलिस सबइन्स्पेक्टर की तरफ से जांच किए गए।
कई मामलों में उत्पीड़क की बेदाग रिहाई क्योंकि पीड़ित की अनुसूचित जाति/जनजाति की पहचान का प्रमाणपत्रा नहीं जोड़ा गया। वजह, केस पेपर्स के साथ पीड़ित का जाति प्रमाणपत्रा नत्थी नहीं किया गया।
पब्लिक प्रॉसिक्यूटर द्वारा अदालत के सामने यह झूठा दावा कि इस अधिनियम को राज्य सरकार ने संशोधित किया है जबकि यह कानून केन्द्र सरकार ने बनाया है।
कई मामलों में अदालत द्वारा अभियुक्त को अग्रिम जमानत जबकि अधिनियम में इसका कोई प्रावधान नहीं है। गौरतलब है कि अनुसूचित जाति और जनजाति मामलों की संसदीय समिति ने सूबा गुजरात में अत्याचार के मामलों में अग्रिम जमानत देने के बारे में चिन्ता प्रगट की थी।
रेखांकित करनेवाली बात है कि कौन्सिल फार सोशल जस्टिस के सेक्रेटरी वालजीभाई पटेल द्वारा इस अधिनियम के तहत दिए गए 400 से अधिक फैसलों का विस्तृत और विधिवत अध्ययन /मार्च 2005, वर्ष 11, नंबर 106,http://www.sabrang.com / ने सरकार को उपरोल्लेखित 23 पेजी रिपोर्ट पर काम करने के लिए मजबूर किया था। यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह उच्च स्तर एवं निम्न स्तर की पुलिस तथा पब्लिक प्रासिक्युटर्स द्वारा अपनाया गया प्रतिकूल रूख इस अधिनियम के तहत दर्ज मामलों के बिखर जाने का प्रमुख कारण है। इस बात को नोट किया जाना चाहिए कि उन्होंने 1 अप्रैल 1995 के बाद राज्य के 16 विभिन्न जिलों में स्पेशल एटरासिटी कोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों का विधिवत दस्तावेजीकरण किया था। यह अध्ययन इस दावे को भी बेपर्द करता है कि इस कानून की अक्षमता इसके तहत दर्ज फर्जी शिकायतों के चलते है, उल्टे यह कड़वी सच्चाई सामने लाता है कि राज्य की सहभागिता ने ही इस महत्वपूर्ण अधिनियम को प्रभावहीन बनाया है।
4.
 
महाड से उना
 
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( courtesy : wikipedia.org, Bronze sculpture depicting Mahad Satyagrah)
 
… 20 मार्च 1927 को डा बाबासाहब अंबेडकर ने महाड के सार्वजनिक चवदार तालाब से पीने का पानी पीने के लिए चले सत्याग्रह की अगुआई की, यह एक तरह से दलित आंदोलन का ‘बुनियादी किस्म का संघर्ष था जब पानी के लिए और जातिउन्मूलन के लिए लड़ाई छेड़ी गयी।
उस वक्त आन्दोलन के बारे में बोलते हुए डा अंबेडकर ने आंदोलन के उददेश्यों को अधिकतम व्यापक सन्दर्भों में रखा। उन्होंने पूछा कि हम क्यों लड़ रहे हैं, आखिर पीने का पानी हमें अधिक कुछ नहीं देगा। उनके मुताबिक यह कोई हमारे मानवाधिकार का भी मसला नहीं था, भले ही हम पीने के पानी के अधिकार को स्थापित करने के लिए यहां एकत्रित हुए हैं। हमारा लक्ष्य फ्रेंच इन्कलाब से कम नहीं है।..
और इस तरह दलित पीने के पानी के लिए महाड पहुंचे। वहां उंची जातियों के हिंदुओं ने उन पर जबरदस्त दमन किया। दलितों को पीछे हटना पड़ा, वह कुछ महिनों बाद दिसंबर 25 को फिर लौटे और चूंकि कलेक्टर ने उनके हाथों में वहां पहंुचने से रोकने का आदेश दिया था, तब डा अंबेडकर ने उनके आदेश का उल्लंघन न करने का निर्णय लिया और इसके बजाय मनुस्म्रति जला दी।  यह एक तरह से दलित मुक्ति के पहले संग्राम की उचित परिणति थी।  
गुजरात में दलित विद्रोह और जिस तरीके से उसने राज्य सरकार को हिला दिया है और देश भर में दलितों के बीच अपने आधार को विस्तारित करने की भाजपा की सुचिंतित योजनाओं को फौरी तौर पर पलीता लगा दिया है, उसने एशिया के इस हिस्से के हर अमन एवं इन्साफपसंद व्यक्ति को उल्लसित कर दिया है।
जिस चीज़ ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है, वह है आन्दोलन का प्रमुख नारा जो कहता है कि ‘गाय की दूम अपने पास रखो और हमें अपनी जमीन दो।’ वह एक ऐसा नारा है जो जातिगत भेदभाव, साम्प्रदायिकता के सवाल को समाहित करता है, एक चतुष्पाद/जानवर के नाम पर लोगों के बीच ध्रुवीकरण तेज करने के उनके इरादों को चुनौती देता है और भौतिक वंचना – जो जाति के सोपानक्रम का अविभाज्य हिस्सा है – उसे लेकर सकारात्मक मांग पेश करता है। आन्दोलन का यह जोर कि दलित अपने ‘लांछन लगे पेशों’ को छोड़ दें – जिन्होंने उन्हें वर्ण/जाति के सोपानक्रम में सबसे नीचले पायदान पर रखा है – और हजारों हजार दलितों की उसमें सहभागिता, आन्दोलन का जुझारू तेवर आदि सभी ने दलित आन्दोलन में एक नयी जमीन तोड़ी है।
निःस्सन्देह आन्दोलन में बहुत कुछ स्वतःस्फूर्त रहा है, मगर जिस तरह आन्दोलन आगे बढ़ा है और जिस तरह उसने दलित दावेदारी को न केवल नयी धार प्रदान की है बल्कि हिन्दुराष्ट्र  की अपनी प्रयोगशाला में उसके लिए चुनौती पेश की है, उसकी कल्पना आन्दोलन के युवा नेतृत्व के बिना नहीं की जा सकती। उनके समावेशी एप्रोच ने भी अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं को आन्दोलन के साथ जोड़ने में या ऐसे तमाम लोगों को साथ लाने में जो हिन्दुत्व की राजनीति से असहमत हैं, सहूलियत प्रदान की है। आन्दोलन का समावेशीपन इस बात में भी स्पष्ट था कि मुसलमान समुदाय – जो 2002 के दंगों के बाद सूबा गुजरात में न्याय से लगातार इन्कार के चलते तथा राज्य में बहुसंख्यकवाद के बढ़ते सामान्यीकरण के चलते  एक तरह से दुर्दशा में तथा दोयम दर्जे की स्थिति में जी रहा है – वह भी उना की ओर निकली आज़ादी कूच में शामिल हुआ। न केवल सैकड़ों मुस्लिम उना में आयोजित रैली में पहुंचे बल्कि मुसलमान समुदाय ने रास्ते में जगह जगह रैली का स्वागत भी किया।
इस विद्रोह का कम चर्चित पहलू रहा है कि राज्य की आबादी में महज सात फीसदी होने के बावजूद – तथा विभिन्न जातियों में बंटे होने के बावजूद – तथा लड़ाकू आन्दोलन के इतिहास के अभाव के बावजूद, आन्दोलन ने जिन तारों को छेड़ा है, जिन मांगों को उठाया है, उसकी अनुगूंज दूर तक सुनायी दे रही है और सरकार के लिए आन्दोलन का दमन करना मुमकिन नहीं हो रहा है। यह आन्दोलन के जबरदस्त प्रभाव का ही परिणाम था कि भाजपा को अपने मुख्यमंत्राी को बदलना पड़ा बल्कि दलितों तक पहुंचने के निर्धारित कार्यक्रम पर नए सिरेसे सोचना पड़ा। दबंग जातियों के जरिए जगह जगह दलितों पर हो रहे हमलों को लेकर अपनी सक्रियता न दिखा कर उसकी कोशिश यही है कि दलितों का मनोबल टूटे, इतनाही नहीं अपुष्ट समाचारों के अनुसार आन्दोलन के दौरान हुई हिंसा को लेकर वह तमाम दलितों पर मुकदमे कायम करने की तैयारी में है ताकि वह जनान्दोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने के बजाय कोर्ट-कचहरी के ही चक्कर लगाते रहें।
अगर हम पचास के दशक में डा अंबेडकर के अभिन्न सहयोगी दादासाहब गायकवाड द्वारा जमीन के सवाल पर छेड़े गए ऐतिहासिक सत्याग्रह को छोड़ दें तो आजादी के बाद के दिनों में ऐसे अवसर बेहद कम आए है कि दलितों की भौतिक वंचना के सवाल को सामाजिक-सांस्क्रतिक भेदभाव  एवं राजनीतिक हाशियाकरण के साथ जोड़ा जा सका है। उना ने इस परिद्रश्य को हमेशा के लिए बदला है। उसने कई ऐसे नारों को भी उछाला है, जो दलित आन्दोलन में लगाए नहीं जाते थे। उदाहरण के तौर पर ‘दुनिया के दलित एक हों,’ ‘दुनिया के मजदूर एक हों’, लाल सलाम और जय सावित्राीबाई। (https://www.youtube.com/watch?v=9jqgA75o5PE)
विश्लेषकों ने इस बात को सही समझा है कि हाल के समयों में दलित आन्दोलन ‘अस्मिता’ के मुददे तक ही सीमित रहा है? मगर उना ने इस मामले में एक नयी जमीन तोड़ी है जहां अब अस्तित्व का सवाल भी साथ जुड़ा है। जैसा कि इन्कलाबी आन्दोलन के एक कार्यकर्ता ने अपने ईमेल में लिखा ‘उना संघर्ष के बारे में नोट करनेलायक बात यह है कि उसे हम एक ऐसे नैरन्तर्य (continuum ) के तौर पर देख सकते हैं जो सामाजिक आन्दोलनों के सवाल को व्यवस्थाविरोधी संघर्ष के साथ जोड़ता है।’
निश्चित ही उना के आन्दोलन को – जिसने हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों को काफी बेचैन कर दिया है – उसे  देश में दलित उभार में आई तेजी का की अन्य घटनाओं, मुहिमों, आन्दोलनों की निरन्तरता में ही देखना होगा। यह साफ दिख रहा है कि वर्ष 2014 में जब से मोदी की अगुआई में सरकार बनी है तबसे दलितों के उभार की कई घटनाएं सामने आयी हैं और दिलचस्प यह है कि हर आनेवाली घटना अधिक जनसमर्थन जुटा सकी है। दरअसल यह एहसास धीरे धीरे गहरा गया है कि मौजूदा हुकूमत न केवल सकारात्मक कार्रवाई वाले कार्यक्रमों /आरक्षण तथा अन्य तरीकों से उत्पीड़ितों को विशेष अवसर प्रदान करना/ पर आघात करना चाहती है बल्कि उसकी आर्थिक नीतियांें – तथा उसके सामाजिक आर्थिक एजेण्डा के खतरनाक संश्रय ने दलितों एवं अन्य हाशियाक्रत समूहों/तबकों की विशाल आबादी पर कहर बरपा किया है। यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि हुकूमत में बैठे लोगों के लिए एक ऐसी दलित सियासत की दरकार है, जो उनके इशारों पर चले। वह भले ही अपने आप को डा अंबेडकर का सच्चा वारिस साबित करने की कवायद करते फिरें, लेकिन सच्चाई यही है कि उन्हें असली अंबेडकर नहीं बल्कि उनके साफसुथराकृत संस्करण की आवश्यकता है। वह वास्तविक अंबेडकर से तथा उनके रैडिकल विचारों से किस कदर डरते हैं यह गुजरात की पूर्वमुख्यमंत्राी आनंदीबेन पटेल के दिनों के एक निर्णय से समझा जा सकता है जिसने किसी विद्वान से सम्पर्क करके लिखवाये अंबेडकर चरित्रा की चार लाख प्रतियां कबाड़ में डाल दीं, वजह थी कि उस विद्वान ने किताब के अन्त में उन 22 प्रतिज्ञाओं को भी शामिल किया जो डा अंबेडकर ने 1956 में धर्मांतरण के वक्त़ अपने अनुयायियों के साथ ली थीं।
और शायद इसी एहसास ने जबरदस्त प्रतिक्रिया को जन्म दिया है। और अब यही संकेत मिल रहे हैं कि यह कारवां रूकनेवाला नहीं है।
चाहे चेन्नई आई आई टी में अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल पर पाबंदी के खिलाफ चली कामयाब मुहिम हो (https://kafila.org/2015/06/05/no-to-ambedkar-periyar-in-modern-day-agraharam/) हैद्राबाद सेन्टल युनिवर्सिटी के मेधावी छात्रा एवं अंबेडकर स्टुडेंट एसोसिएशन के कार्यकर्ता रोहिथ वेमुल्ला की ‘सांस्थानिक हत्या’ के खिलाफ देश भर में उठा छात्रा युवा आन्दोलन हो (https://kafila.org/2016/01/22/long-live-the-legacy-of-comrade-vemula-rohith-chakravarthy-statement-by-new-socialist-initiative-nsi/) या महाराष्ट्र में  सत्तासीन भाजपा सरकार द्वारा अंबेडकर भवन को गिराये जाने के खिलाफ हुए जबरदस्त प्रदर्शन हों या इन्कलाबी वाम के संगठनों की पहल पर पंजाब में दलितों द्वारा हाथ में ली गयी ‘जमीन प्राप्ति आन्दोलन’ हो – जहां जगह जगह दलित अपने जमीन के छोटे छोटे टुकड़ों को लेकर सामूहिक खेती के प्रयोग भी करते दिखे हैं, यही बात समझ में आती है कि दलित दावेदारी की तीव्रता बढ़ रही है और उसका लड़ाकूपन तथा व्यापकता में नयी तेजी आयी है।
..पंजाब में पंचायत की 1,58,000 एकड पंचायत जमीन में से दलितों का हिस्सा महज 52,667 एकड़ का है। नजूल जमीनों के तहत भी उन्हें कानूनी हक मिला है, मगर इन तमाम जमीनों पर वास्तविक कब्जा भूस्वामियों और धनी किसानों का है। 2010-11 के क्रषि जनगणना को देखें तो पंजाब में अनुसूचित जाति के लोग, जो आबादी का तीसरा हिस्सा हैं, उनके पास भूमि का महज 6.02 फीसदी हिस्सा था और राज्य की भूमिक्षेत्रा का महज 3.2 फीसदी था। …
वर्ष 2014 के बाद से दलित किसान जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के बैनर तले संगठित हुए हैं और उन्होंने लाल झंडा लेकर जो उनकी अपनी जमीन है, उस पर हक जताना शुरू किया है। इन जमीनों को भूस्वामियों के पिटठु उम्मीदवारों का नीलाम किया जाता था ; उदाहरण के लिए संगरूर जिले में एक गोशाला को तीस साल तक के लिए सात हजार रूपया प्रति एकड़ के हिसाब से तीस साल के लिए अकाली दल-भाजपा सरकार द्वारा जमीन आवंटित की गयी है जबकि दलितों के लिए यही कीमत 20,000 रूपए से अधिक बतायी जाती है। दक्षिण पंजाब के जिलों में फैलते इस संघर्ष को पुलिस एवं भूस्वामियों के दमन का सामना करना पड़ा है, उनके खिलाफ फर्जी एफआईआर दर्ज हुई हैं, मगर संघर्ष तेजी से फैल रहा है।
अगर दलित अवाम के अच्छे खासे हिस्से का भाजपा की तरफ – विभिन्न कारणों से – अनपेक्षित झुकाव एक तरह से 2014 में उनकी चुनावी जीत में एक महत्वपूर्ण कारक था, अब दलितों की बढ़ती दावेदारी इसी बात का प्रमाण है कि अब उन्हें और बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों के वास्तविक एजेण्डा की परतें खुलते जाने से – जो न केवल इस बात में प्रगट हो रहा है कि शोषितों एवं हाशिये में पड़े समुदायों के जीवन एवं जीवनयापन के अधिकारों पर संगठित हमला हो रहा है बल्कि उनकी इस बौखलाहट में भी सामने आ रहा है कि वह डा अंबेडकर को अपने असमावेशी एजेण्डा के ‘प्रातःस्मरणीयों’ में शामिल करना चाहते हैं मगर दलित दावेदारी के हर तत्व को कुचल देना चाहते हैं – दोनों ओर सीमारेखाएं खींच गयी हैं।
उना के बहाने सामने आए दलित विद्रोह ने इस संघर्ष की रौनक और बढ़ा दी है।