Arun Kumar Tripathi –

जनसत्ता 7 अप्रैल, 2014 :
यह आम चुनाव पार्टियों और व्यक्तियों की हार-जीत के अलावा जिस चीज के लिए जाना जाएगा वह है सावरकर और गोलवलकर बनाम फुले और आंबेडकर। यह द्वंद्व ऊपरी तौर पर भले न दिखाई दे, लेकिन दहाड़ने और हुंकार भरने वाली रैलियों, टीवी चैनलों की चिल्ला-चिल्ली वाली बहसों और अखबारों में चल रहे लोकतंत्र के नृत्य और जनादेश की दस्तकों के बीच बेहद खामोशी के साथ यह सैद्धांतिक बेचैनी दिखाई पड़ रही है। यह बेचैनी कहीं-कहीं प्रकट भी हो रही है, लेकिन मुख्यधारा की चर्चा और विमर्श में यह लगभग नदारद है। हालांकि यह बात अगर सबसे ज्यादा किसी की रणनीति में है तो वह भाजपा की और अगर इससे सबसे ज्यादा कोई बेचैन है तो पिछड़ा और दलित राजनीति पर खड़ी हुई पार्टियां, जिनका अस्तित्व खतरे में है।

इस अंतर्विरोध को संभालने की बेचैनी भाजपा में भी है। एक तरफ भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पिछड़ों और दलितों को अपने साथ जोड़ते हुए यह साबित करने में लगे हुए हैं कि संघ परिवार न सिर्फ उनके जैसे घाची जाति की पिछड़ी सामाजिक श्रेणी के व्यक्ति और चाय बेचने वाले जैसे विपन्न आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने को तैयार है, बल्कि वे यह भी जता रहे हैं कि पिछड़ों और दलितों की तरफ से केंद्रीय सत्ता की तरफ बढ़ता हुआ यह अब तक का सबसे बड़ा अभियान है। मोदी का यह अभियान चाहे सवर्णों को नाराज करने वाली मुजफ्फरपुर की रैली में दिखा हो या सासाराम में जगजीवन राम के कांग्रेस-त्याग के कारणों के घाव कुरेदने और उनकी बेटी मीरा कुमार के कांग्रेस से चिपके रहने पर कसे गए तंज के बहाने हो, वह यह साबित करने के लिए चल रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ही ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है, जो पिछड़ों और दलितों के सबलीकरण और उन्हें सत्ता में पहुंचाने के लिए सबसे ज्यादा कटिबद्ध है।

यह बात वे पिछड़े और दलित नेता तो बढ़-चढ़ कर कह रहे हैं, जो हर हर मोदी कहते हुए या तो भाजपा में शामिल हो गए हैं या जिनके दलों ने भाजपा से चुनावी तालमेल कर लिया है। दूसरी तरफ इस बात को लेकर वे पार्टियां भ्रमित हैं, जो भाजपा से प्रेम और नफरत के रिश्ते बनाते हुए भी अपनी दलित और पिछड़ा राजनीति के लिए बनी जगह को सिमटती हुई देख रही हैं। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का विमर्श एक सहारा है, लेकिन उसके लगातार कमजोर होते जाने के कारण उनके मतदाता, कार्यकर्ता और पार्टी का भ्रम इतना बढ़ रहा है कि चुनाव बाद वे किससे गठजोड़ करेंगी, कहा नहीं जा सकता।

रामविलास पासवान ने अपनी लोक जनशक्ति पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन करते हुए कहा, ‘नरेंद्र मोदी जैसे पिछड़ी जाति के नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर भाजपा ने जता दिया है कि उसके वैचारिक फलक में बहुसंख्यक उपेक्षितों और वंचितों के लिए काफी जगह है। आज कांग्रेस-मुक्त भारत की जरूरत है। दलित अधिकारों की रक्षा करने वाले बड़ी संख्या में भाजपा में शामिल हो रहे हैं।’ जबकि भाजपा में अपनी इंडियन जस्टिस पार्टी को विलीन करने वाले उदित राज इस बात को अलग ढंग से कहते हैं, ‘मैं भाजपा में दलित बहुजन की भागीदारी, खुशहाली और शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण हेतु शामिल हुआ हूं। पिछले छियासठ सालों में दलित बहुजन की स्थिति में खास परिवर्तन नहीं हुआ। अगर सरकारी या संसदीय संस्थाओं में आरक्षण नहीं होता, तो हम आज भी वहीं खड़े होते। यूपीए ने दस साल के शासन में दलित बहुजन की गिरती हालत के लिए कुछ नहीं किया। हमें बसपा के उदय का भी कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि इस दौरान उदारीकरण आ गया। सरकारी नौकरियों के साथ बहुजन समाज के लिए जो तमाम कल्याण कार्यक्रम चल सकते थे उनमें कटौती हो गई। हमें यह भी मानना चाहिए कि भाजपा दलित बहुजन विरोधी नहीं है।’

इसी तरह की बातें राजद से भाजपा में जाते हुए रामकृपाल यादव ने भी कहीं और अपना दल का भाजपा से तालमेल करने वाली अनुप्रिया पटेल भी ऐसे ही तर्कों के सहारे भाजपा से जुड़ी हैं। ध्यान देने की बात है कि अनुप्रिया पटेल बहुजन समाज पार्टी के संस्थापकों में से एक, सोनेलाल पटेल की बेटी हैं और अपने विमर्श में राममनोहर लोहिया और भीमराव आंबेडकर का बार-बार उल्लेख करती हैं, यह भी कहती हैं कि सरदार वल्लभभाई पटेल का सांप्रदायीकरण न किया जाए।

कभी कांग्रेस-राकांपा गठबंधन का हिस्सा रहे आरपीआइ नेता रामदास आठवले भाजपा से अपने रिश्तों के बारे में कहते हैं, ‘विचारधारा जरूरी है, पर अपने देश में विचारधारा आधारित राजनीति धोखा खाती है, हमने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर व्यावहारिक कदम उठाया है।… हम तो सेक्युलर हैं ही, कल भी थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे।’

यहां यह गौरतलब है कि अपने सीमित जनाधार वाले इन दलित-पिछड़े नेताओं का एक हिस्सा उसी तरह कभी न कभी कांग्रेस के गठबंधन में शामिल रहा है, जिस तरह आज वह भाजपा वाले गठबंधन में भागीदार है। उनकी दिक्कतें या तो सम्मान की रही हैं या सीटों की संख्या की।

लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस में एक शासक दल या वर्ग का भाव हमेशा रहा है। इसे मीडिया भी उस समय व्यक्त करता रहा है जब गैर-कांग्रेसी दलों के सत्ता में होने पर वह कभी-कभार यह कहता दिख जाता है कि आजकल विपक्षी दल सत्ता में हैं। यानी जैसे गैर-कांग्रेसी दल स्वाभाविक रूप से विपक्षी दल हैं और कांग्रेस स्वाभाविक रूप से शासक दल। लेकिन राज्यों में यह तस्वीर बदलने के साथ ही कांग्रेस ने भी गठबंधन करना सीखा और केंद्र में दो कार्यकाल गठबंधन की सरकार चलाई भी।

यह व्यावहारिक स्थिति है और यहीं पर सिद्धांत टूटते भी हैं। आठवले के शब्दों में, व्यवहार के सामने विचारधारा की राजनीतिधोखा खाती है। लेकिन इसी के साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी व्यवहार की राजनीति से सिद्धांत की राजनीति के अर्थ भी निकाले जाते हैं। तमाम दलित-पिछड़े नेताओं को जोड़ कर और पिछड़ी जाति के नेता मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना कर भाजपा एक तरफ बहुजन समाज की व्यापक हितैषी पार्टी के रूप में अपने को प्रस्तुत कर रही है, और दूसरी तरफ, इन नेताओं से अपनी धर्मनिरपेक्षता का ‘प्रोविजनल सर्टिफिकेट’ भी ले रही है।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के विखंडन और साम्यवादी और समाजवादी दलों के सिमटते जाने के बाद अब धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र राष्ट्रीय स्तर पर नहीं, क्षेत्रीय स्तर पर मिलता है। जाहिर है, प्रमाणपत्र वही देता है जिसके पास कोई अधिकार हो। भाजपा के पास अपनी धर्मनिरपेक्षता की डिग्री भले न हो और सेक्युलरिज्म पर वह कितना भी कठोर हमला करती हो, लेकिन वह अपने सहयोगी दलों की डिग्रियों के सहारे अपना धर्मनिरपेक्ष रूप प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही है।

तमाम सिद्धांतकार भाजपा की निंदा उसके ब्राह्मणवादी वर्चस्व और वैचारिकी के कारण करते थे और यह बात बार-बार कही जाती थी कि उसके शीर्ष या शक्तिशाली पदों पर सवर्ण ही रहेंगे, इसलिए भाजपा कभी सभी हिंदुओं की और पूरे देश की पार्टी नहीं बन सकती। उनकी इस चुनौती को आज भाजपा ने अपनी व्यावहारिक रणनीति से पलट दिया है। इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा और संघ परिवार अपने हृदय में बहुजनवादी हो गए हैं। पर यह भी सच है कि उन्होंने अपने ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की आत्मा पर बहुजनवाद का चोला धारण कर लिया है। अपनी स्थापना के साथ गांधीवादी समाजवाद से वैचारिक यात्रा शुरू करने वाली भाजपा ने आज बहुजनवादी हिंदुत्व का सिद्धांत अपना लिया है।

भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी की वैचारिक स्थिति न तो समतावादी है न ही हिंदू धर्म के असमान ढांचे के विरुद्ध विद्रोह करने वाली। इसके बावजूद पार्टी सत्ता की आकांक्षा में एक वैचारिक यात्रा भी कर रही है; जहां वह धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध कट््टरता दिखा रही है वहीं सामाजिक न्याय के लिए उदारता। यही वजह है कि जिस हिंदुत्व के रथ को कभी सामाजिक न्याय की ताकतों ने रोक कर जेल में डाल दिया था, आज उन्हीं ताकतों ने धर्मनिरपेक्षता को सड़क से नीचे गिराने का इंतजाम कर दिया है। देखना है कि सामाजिक संरचना के इस पिरामिड को पलटने के प्रयास में भाजपा और संघ परिवार कितना साथ चल पाते हैं।

पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण तो पुरानी प्रक्रिया है और तमाम हिंदीभाषी राज्यों में उससे गुजर कर भाजपा ने यह ताकत हासिल की है। लेकिन भाजपा के बहुजनवादी हिंदुत्व का असर यह हुआ है कि पिछले साल हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में आदिवासियों ने ही नहीं, अनुसूचित जातियों ने भी उसे अच्छी तादाद में वोट दिया। 2009 के चुनावों में बसपा और कांग्रेस को वोट देने वाले दलित समुदायों की कई जातियां अब भाजपा की तरफ खिसक रही हैं इसके संकेत मिले हैं। इसी प्रकार आदिवासियों की कुछ प्रमुख जातियों में भाजपा की ओर रुझान होने के सर्वेक्षण आ रहे हैं।

भाजपा और उसके नेता मोदी के बहुजनवाद ने बसपा को इतना परेशान कर दिया है कि वह मोदी का नाम लेकर विरोध किए बिना किसी तरह से अपना आधार बचाने में लगी है। हालांकि उससे उम्मीद जताते हुए बरेली के धर्मगुरु तौकीर रजा ने आम आदमी पार्टी के बजाय मायावती को समर्थन देने का वादा किया है।

इन स्थितियों में बहुजन मतदाता बेहद भ्रमित है और वह समझ नहीं पा रहा है कि गोलवलकर और सावरकर की विचारधारा के अभियान में फुले और आंबेडकर के विचारों को कैसे बचाएं। आज बहुजनवाद उसी तरह से हिंदुत्व की विचारधारा का हिस्सा बनता जा रहा है जिस तरह कभी गांधी और नेहरू के विचारों का हिस्सा बन गया था। आंबेडकर की वैचारिकी ने नेहरू और गांधी के नजरिए को अस्सी के दशक में ध्वस्त कर दिया और उसका लाभ उठा कर गोलवलकर और सावरकर का हिंदुत्व राजनीतिक रूप से हावी हुआ।

आज आंबेडकरवाद का संघर्ष गोलवलकर के हिंदुत्ववाद से है। यह संघर्ष भाजपा के भीतर भी है और बाहर भी। भाजपा पर नागपुर के सवर्ण हिंदुत्ववाद के हावी होने के बावजूद पार्टी में सवर्ण और अवर्ण नेताओं में घमासान इसका प्रमाण है। आडवाणी, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र, लालजी टंडन और लालमुनि चौबे को अपमानित और दरकिनार किया जाना इसी खींचतान के नतीजे हैं। उधर सपा, जनता दल (एकी), बसपा और अन्य क्षेत्रीय दलों के दलित और पिछड़े मतदाताओं में मोदी को लेकर पैदा हुई दुविधा इसका दूसरा पहलू है।

बहुजन बुद्धिजीवी कहते हैं कि उन्हें सेक्युलरिज्म के ब्राह्मणवादी और कुलीन पाठ के मुकाबले एक बहुजन पाठ विकसित करने की जरूरत है। दलित विचारक गेल आम्वेट कहती हैं कि गांधी का रामराज्य और गोलवलकर का हिंदू राष्ट्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनका विकल्प है फुले के बलीराज में, रविदास के बेगमपुरा में, पेरियार के द्रविड़िस्तान में, शाक्य बौद्धों के बुद्धिस्ट कामनवेल्थ में और आंबेडकर के प्रबुद्ध भारत में। पर यहां यही सवाल अहम है कि क्या बहुजन सेक्युलरवाद का यह रास्ता बहुजनवादी हिंदुत्व से होकर गुजरता है?