अपने पैरों से तेजी से फिसलती जमीन को देखते हुए दमनात्मक कदमों पर आमादा भाजपा
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और जानेमाने बुद्धिजीवियों की गिरफतारी पर ‘न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव’  का वक्तव्य
1.
न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, पुणे पुलिस द्वारा अपने केसरिया आंकाओं के निर्देशों पर मनमाने तरीके से और दुर्भावना के साथ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, प्रोफेसरों और कवियों के घरों पर एक साथ डाले गए छापे और उनमें से पांच को – सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, अरूण परेरा, वेरनॉन गोन्साल्वेस और वरवरा राव – मनगढंत आरोपों के तहत गिरफतार किए जाने की कड़े शब्दों में भर्त्सना करता है।
इन सभी व्यक्तियों की बिना शर्त तत्काल रिहाई तथा उनके खिलाफ बेहद दमनकारी गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम/Unlawful Activities Prevention Act/ के तहत लगाए गए फर्जी आरोपो ंको वापस लेने की मांग करते हुए, उसकी तरफ से यह भी कहा गया है कि उन दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ भी कार्रवाई की जाए जिन्होंने इस कार्रवाई को अंजाम दिया है।
2.
इन छापों को लेकर प्रकाशित रिपोर्टें बताती हैं कि इन सभी व्यक्तियों के साथ – जो काफी पढ़े लिखे हैं और जिन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा संविधान के दायरे में रहते हुए हाशिये पर पड़े हुए लोगों और शोषितों-वंचितों के लिए लिए लड़ने में बीताया है – खतरनाक आतंकवादी की तरह व्यवहार करने में तथा इनके आत्मीय जनों को अपमानित करने में पुलिस को कोई गुरेज नहीं था।
इस सम्बन्ध में प्रोफेसर सत्यनारायण, जो इंग्लिश एण्ड फॉरेन लैंग्वेजेस युनिवर्सिटी /EFLU/ में डिपार्टमेण्ट आफ कल्चरल स्टडीज के प्रमुख हैं और इंटर-डिसिप्लिनरी स्टडीज के डीन हैं तथा बहुत सम्मानित अकादमिक, अपने क्षेत्रा के विद्वान तथा कई किताबों के लेखक हैं, की आपबीती उजागर करती है कि किस तरह उनके घर पर महज इसलिए छापा मारा गया क्योंकि वह चर्चित तेलुगु कवि एवं एक्टिविस्ट वरवरा राव के दामाद हैं। पुलिस को उनकी पत्नी में यह पूछने में भी संकोच नहीं हुआ कि /ब्राहमण होने के बावजूद/ उन्होंने अंतरजातीय विवाह / एक दलित के साथ / क्यों किया और वह अपने माथे पर सिन्दूर क्यों नहीं लगाती हैं।
3.
तेजी से बदलता घटनाक्रम बताता है कि पुणे पुलिस के इस अविचारी कदम की उलट प्रतिक्रिया हुई है और इसने समूचे मुल्क में जबरदस्त आक्रोश और गुस्से को जन्म दिया है, देश के तमाम शहरों एवं नगरों में इसके खिलाफ जुलूस निकले हैं और रैलियों का आयोजन हुआ है, जिसमें सैंकड़ों की तादाद में लोग शामिल हुए हैं। यह ऐलान करते हुए कि देश का यह ताज़ा घटनाक्रम आपातकाल से भी खराब है, जहां ‘उम्मीदों का गणतंत्र’ ‘डर के गणतंत्र’ में तब्दील होता दिख रहा है, लोगों ने इस बात को रेखांकित किया है कि मौजूदा हुकूमत ने इस कदम को इसलिए उठाया है क्योंकि वह बुनियादी तौर पर अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में उसे मिली प्रचंड नाकामी या सामाजिक तानेबाने की बढ़ती दरारों को सम्बोधित करने में उसकी भारी असफलता तथा कानून के राज को ठेंगा दिखाते भीडतंत्रा पर नकेल डालने में उसकी लाचारी को लेकर उठते जनता के व्यापक गुस्से से ध्यान हटाना चाहती है।
इस बात को भी नोट किया जाना चाहिए कि मुख्यधारा के प्रिन्ट मीडिया ने भी इस अविचारी कदम पर प्रश्न उठाया है और कहा है कि यह भाजपा का मैकार्थी मुक़ाम है, वही दौर जब चालीस के दशक के उत्तरार्द्ध और पचास के दशक की शुरूआत में अमेरिकी सरकार ने वामपंथी रूझानों का आरोप लगाते हुए तमाम लेखकों, विद्वानों और कार्यकर्ताओं को प्रताडित किया था।
4.
देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले में किए गए अभूतपूर्व हस्तक्षेप ने सरकार को ही बचावात्मक पैंतरा अपनाने के लिए मजबूर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से इस मामले में इतिहास रचा जब उसने इस मामले में तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप को मंजूरी दी जब उसने  इस सन्दर्भ में अग्रणी बुद्धिजीवियों द्वारा पेश याचिका को स्वीकारते हुए तीन सदस्यीय पीठ का गठन किया तथा महाराष्ट सरकार को नोटिस जारी किया। ‘असहमति को जनतंत्र का सेफटी वॉल्व’ घोषित करते हुए उसने सरकार को याद दिलाया कि अगर सरकार असहमति का दमन करती है तो जनतंत्रा सुरक्षित नहीं रहेगा। फिलवक्त़ यह केस अब सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, जिस पर वह अगले सप्ताह सुनवाई करेगी।
5.
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि पुणे पुलिस द्वारा की गयी इस कार्रवाई का फौरी कारण खुद महाराष्ट्र  एटीएस द्वारा कथित तौर पर सनातन संस्था और आनुषंगिक हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुुड़े कार्यकर्ताओं के घरों से बरामद हथियारों का जखीरा, विस्फोटक और डिटोनेटर्स और उनमें से पांच कार्यकर्ताओं की गिरफतारी और एक ऐसी साजिश का खुलासा था जिसके तहत भीड़ भरे स्थानों और उत्सवों की जगहों पर बम रख कर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने की योजना थी।
दरअसल, इन खुलासों ने राज्य स्तर पर तथा केन्द्र स्तर पर भी अत्यधिक दबाव बनाया था कि वह सनातन संस्था और उसके आनुषंगिक संगठनों हिन्दु जन जागृति समिति पर पाबन्दी लगा दे, जो खुल्लमखुल्ला ‘शैतानी ताकतों के विध्वंस को आध्यात्मिक कार्य’ घोषित करते आए हैं। यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि यह संगठन विगत एक दशक से अधिक समय से, हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने और यहां तक कि आतंकी गतिविधियों में अपने कार्यकर्ताओं की संलिप्तता के चलते – जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं और राज्य में सत्तासीन पूर्ववर्ती सरकारों ने भी इन संगठनों पर पाबन्दी के लिए केन्द्र सरकार के पास अपनी सिफारिशें भेजी थीं।
यहां इस बात पर जोर देना महत्वपूर्ण है कि यह खुलासा कर्नाटक पुलिस द्वारा गौरी लंकेश के हत्या की गयी जांच से ही संभव हो सका जिसने इस बात को उजागर किया कि किस तरह कथित तौर पर इन संगठनों से जुड़े लोग न केवल इस विशिष्ट हत्या के लिए जिम्मेदार थे बल्कि इसके पहले हुई तर्कशीलों, विद्वानों और वाम कार्यकर्ताओं की – डा नरेन्द्र दाभोलकर, कामरेड गोविन्द पानसरे और प्रोफेसर कलबुर्गी – हत्या के लिए भी जिम्मेदार थे, जिसे लेकर समूचे मुल्क में हंगामा मचा था। सूचनाओं के मुताबिक महाराष्ट एटीएस के पास इन आतंकवादियों द्वारा तैयार वह हिट लिस्ट भी है जिसमें तमाम विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम है जो हमेशा ही हिन्दुत्व के विचारों के आलोचक रहे हैं और उन्होंने उसके हिमायतियों का लगातार विरोध किया है।
6.
हुक्मरानों का अनुमान था कि देश के पैमाने पर की गयी इन गिरफतारियों को अंजाम देने के बाद – निष्ठावान मीडिया के सहयोग से – उन्हें आर्थिक मोर्चे पर अपनी प्रचंड नाकामियों पर परदा डालने का अवसर मिलेगा। दरअसल यह सबके सामने है कि किस तरह मोदी की अगुआईवाली भाजपा सरकार ने अर्थव्यवस्था को चौपट किया है।
राफेल डील को लेकर उठे विवाद के तत्काल बाद – जिसे ‘‘अब तक के सबसे बड़े रक्षा घोटाले के तौर पर’’ सम्बोधित किया जा रहा है, जहां ‘‘ अपने पद का घोर दुरूपयोग और आपराधिक दुराचरण’’ (https://www.newsclick.in/rafale-defence-scandal-larger-any-thus-far ) दिखता है – रिजर्व बैंक आफ इंडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट सामने आयी है जो उजागर करती है कि नोटबन्दी से बाहर की गयी 99.3 फीसदी मुद्रा बैंकों में लौट आयी है जो एक तरह से पूर्वप्रधानमंत्राी मनमोहन सिंह द्वारा सदन के पटल पर नोटबन्दी को लेकर किए विश्लेषण को – कि वह ‘‘संगठित लूट और वैध डाका’’ थी – सही साबित करती है।
मौजूदा हुकूमत के चन्द चीयरलीडर्स को छोड़ दे तो इस बात पर आम सहमति है कि एक साल के अन्दर मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था को ‘‘दोहरे झटके’’ दिए, पहले नोटबन्दी के जरिए और दूसरे आपाधापी में शुरू किए गए जीएसटी /गुडस एण्ड सर्विसेस टैक्स/ के जरिए, जो हमारी अर्थव्यवस्था के लिए पूरी तबाही साबित हुए हैं और जिन्होंने छोटे उद्योगों की कमर तोड़ दी है।
सत्ता में आने के पहले मौजूदा हुक्मरानों के जो भी दावे रहे हों, वह रोजगार के मोर्चे पर भी बुरी तरह असफल दिखे हैं। कहां युवकों के लिए 2 करोड़ रोजगार निर्माण की बात की गयी थी, वहीं यह देखने में आ रहा है कि दो लाख नए रोजगार तक नहीं निर्मित हुए हैं।
7.
जैसे कि घटनाक्रम बताता है कि इस मामले में सरकार के सभी आकलन बिल्कुल गड़बड़ा गए हैं। उसका अनुमान था कि इन अग्रणी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और प्रख्यात बुद्धिजीवियों की गिरफतारियों के बाद उसके लिए यह सम्भव होगा कि हिन्दुत्व आतंकवादियों और उनके खतरनाक मंसूबों को लेकर उसके ढीले ढाले रवैये को लेकर परदा डालना उसके लिए संभव होगा। और जैसे कि चर्चा की जा रही है, सरकार अपने कदम पीछे खींचने पड़ रहे हैं।
सरकार के लिए उतनी ही परेशानी पैदा करनेवाली बात है कि हथियारों की बरामदगी के मामले में शिव प्रतिष्ठान, जिसका गठन संभाजी भिडे नामक कटटर हिन्दुत्ववादी नेता ने किया है, उससे जुड़ा एक कार्यकर्ता भी गिरफतार हुआ है। यह वही संगठन है जिस पर यह आरोप है कि वह भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के मामले में शामिल रहा है, जब दो सौ साल पहले पेशवाओं की हुई हार और ‘‘दलितों की जीत’’ को मनाने के लिए लाखों दलितों ने पुणे के पास स्थित कोरेगांव में बने विजय स्तंभ की ओर जुलूस निकाला था।
इस घटना के तत्काल बाद दायर प्रथम सूचना रिपोर्ट में संभाजी भिडे और दूसरे हिन्दुत्ववादी नेता मिलिन्द एकबोटे को सीधे जिम्मेदार ठहराया गया था। प्रकाश अम्बेडकर जो डा अम्बेडकर के पोते हैं, तथा जो ‘‘एल्गार परिषद’’ वक्ताओं में से एक थे, जिसका आयोजन ‘‘दलित जीत के स्मरणोत्सव’’ के पहले दिन हुआ था, उन्होंने भी इन कटटरपंथियों के खिलाफ इसी किस्म की शिकायत दर्ज की थी और पुलिस को कहा था कि वह इस मामले को अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम /1989/ के तहत दर्ज कर दे। जबकि महाराष्ट पुलिस ने संभाजी भिडे से पूछताछ करना भी मुनासिब नहीं समझा है – तथा महाराष्ट के मुख्यमंत्राी देवेन्द्र फडणवीस सदन के पटल पर भिडे को क्लीन चिट दे चुके हैं – इसके बरअक्स वह किसी हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ता द्वारा इन वामपंथी रूझानों वाले विद्वानों, कार्यकर्ताओं के खिलाफ दायर मनगढंत केस को लेकर अत्यधिक सक्रिय दिखती है।
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हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह छापे और गिरफतारियां दरअसल जून माह में ‘भीमा कोरेगांव हिंसा को भड़काने का आरोप लगाते हुए की गयी सुधीर ढवले, शोमा सेन, एडवोकेट सुरेन्द्र गडलिंग, महेश राउत और रोना विल्सन की गिरफतारियों की निरन्तरता में देखी जानी चाहिए, जिन पर यह भी आरोप लगा था कि वह प्रधानमंत्राी मोदी को निशाने पर रखते हुए उनकी ‘राजीव गांधी की हत्या नुमा’’ किसी साजिश का हिस्सा थे। सुप्रीम कोर्ट के दो रिटायर्ड न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति पी बी सावंत और न्यायमूर्ति कोलसे पाटील द्वारा बार बार इस बात को रेखांकित किया गया है कि वही एल्गार परिषद के आयोजक थे और जिन व्यक्तियों को पहले गिरफतार किया गया था और जिन्हें अब गिरफतार किया गया है, उनकी इसमें कोई भूमिका नहीं थी, जबकि सरकार यह ‘‘प्रमाणित’’ करने पर आमादा है कि वही लोग उसमें शामिल थे।
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जिस ढीले ढाले तरीके से सरकार इस कथित हत्या की साजिश की जांच कर रही है वह न केवल इस बात में उजागर हुआ है जब गौतम नवलखा के सन्दर्भ में चीफ जुडिशियल मैजिस्टेट साकेत कोर्ट द्वारा दी गयी ट्रांजिट रिमांड के खिलाफ दायर हेबियस कार्पस याचिका को लेकर दिल्ली की उच्च अदालत ने महाराष्ट पुलिस द्वारा बरती गयी अनियमितताओं और भूलों को लेकर सवाल उठाए थे तथा जिस तरह गिरफतारियों के दो दौर में तीन माह का अन्तर दिखता है।
इस साजिश की कहानी – जिसमें कथित तौर पर प्रधानमंत्राी मोदी को निशाने पर रखा गया है – हमें 21 वीं सदी के पहली दहाई के गुजरात की याद दिलाती है, जब ऐसी ही साजिशों के खुलासे हो रहे थे, जब जनाब मोदी राज्य के मुख्यमं़त्राी थे। इस दौरान राज्य में कई फर्जी मुठभेड़ो में कई निरपराध मारे गए थे, इस दिखावटी दावे के साथ वह विशिष्ट ‘‘जिहादी’’ जनाब मोदी की हत्या के लिए आया था। यह बात भी इतिहास हो चुकी है कि किस तरह कई पुलिस अधिकारियों ने इन फर्जी मुठभेड़ों में संलिप्तता के नाम पर कई साल जेल में बीताए थे। आज ‘‘जिहादी’’ शब्द को ‘‘अर्बन नक्सल’’ नाम से प्रतिस्थापित किया गया है – यह एक नया आख्यान है जो मौजूदा सरकार अपने आलोचकांे और असहमति रखनेवालों के खिलाफ खड़ा करना चाहती है।
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न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव का मानना है कि गैरकानूनी गतिविधयां निवारण अधिनियम /Unlawful Activities Prevention Act /  जैसे खतरनाक कानून – जिनका इस्तेमाल इन कार्यकर्ताओं की गिरफतारी के लिए किया गया है और जिन्हें इसके पहले हजारों कार्यकर्ताओं और निरपराध लोगो ंके खिलाफ इस्तेमाल किया गया है – उसके लिए जनतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
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न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव ने आम लोगों से – नागरिकों, इस देश के निवासियों – अपील की है, जो अभी भी जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और बहुलतावाद में यकीन रखते हैं कि वह हुक्मरानों की चालों के प्रति सावधान रहें, क्योंकि एक के बाद एक आ रहे सर्वेक्षण बताते मोदी की अगुआई में संचालित भाजपा तेजी से अपना जनाधार खो रही है। और यह मुमकिन है कि अगले साल के चुनावों में वापसी के लिए वह लोगों का ध्रुवीकरण करने के लिए विभाजक एजेण्डे को आगे बढ़ा सकती है।