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                                                                                                                                                रमा कान्त राय’

आज कल देश में हर तरफ अगर किसी चीज की सबसे गर्म चर्चा है तो वह है, भारतीय सैनिकों द्वारा सीमा पर किया गया सर्जिकल स्ट्राइक जिसे मौजूदा सरकार अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि बताकर 56 से 60 इंच सीना दिखाने की बात भी कर रही है। यह एक ऐसा नशा देश भर में फैला है कि प्रिंट मीडिया, इलेकट्रानिक मीडिया व सोशल मीडिया से लेकर खेत-खलिहान, स्कूल, कालेज और ट्रेन बस सब जगह युवा पीढ़ी से लेकर बुजुर्गों में इस बात पर तीखी बहस हो रही है और इसे सरकार की एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। इसके विपरीत बोलने वाले देशद्रोही, कायर, दोगले, चूड़ी पहनने वाले और न जाने किन-किन विशेषणों से अलंकृत किया जा रहा है।

और मुझे अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना याद आ रही है। मेरा एक सहपाठी जो बहुत सीधा, शालीन और सौम्य स्वभाव का था, किसी लड़ाई-झगड़े में भाग नहीं लेता था। उसके इस स्वभाव को लेकर उसके मां-बाप, गांव, सहपाठी और यहां तक कि तथाकथित बहादुर शिक्षक भी चिंतित थे और उसकी मर्दानगी को लकर मजाक उड़ाते थे। गलती से पहली बार उसने एक बच्चे को अनजाने में मार दिया तो मां-बाप और गांव के सारे के सारे लोग इस बात से खुश हुए कि अब यह 24 कैरेट का मर्द है और इसकी मर्दानगी पर कोई शक नहीं। मैं बार-बार यहीं सोचता हूं कि क्या यही माहौल आज पूरे भारत में भी है या नहीं। किसी भी फिल्म, एकांकी सीरियल में जब तक लड़का अपनी प्रेमिका के लिए किसी दूसरे लड़के पर वार न करे, अपनी प्रेमिका को बचाने के लिए हिंसा न करे और अंततोगत्वा उस लड़की को हासिल करने के लिए, यानि विवाह करने के लिए हिंसात्मक तरीके से विरोधियों का जब तक खून-खराबा करे तब तक हमारे सिनेमा जगत में हीरो की मर्दानगी स्थापित नहीं होती और एक बार यह मर्दानगी अगर स्थापित हो जाय तो फिल्म में हीरो, समाज में युवक, घर में पति और देश में हमारे नीति-नियन्ता अपनी मर्दानगी का सिक्का स्थापित कर लेते हैं। इस स्थापित सरकारी मर्दानगी का मतलब यह है कि अब और दूसरे सवाल, दूसरे मुद्दे व चिंताएं कम से कम अगले चुनाव आने तक ठंडे बस्ते में चली गईं। अब भारत में कुपोषण, अशिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार, काले धन व कारपेारेट जगत द्वारा सामाजिक क्षेत्र का निजीकरण आदि के सारे गुस्से ठंडे पड़ गए हैं।

पूरे देश में जो युद्वोन्माद छाया हुआ है उससे यह लगता है कि अगले चुनाव आने तक यह मुद्दा हर हालत में जीवित रहेगा और इसके खिलाफ बोलने वाले व्यक्ति देशद्रोही होंगे, संगठन ब्लैक लिस्टेड होंगे और कुछ चाटुकार किस्म की मीडिया मालामाल होंगे और यह भी संभव है कि जन दबाव की परिणति हमारे पड़ोसी से युद्व में बदल जाए।

बचपन से अब तक हम सबने जितने खेल-खेले या सीखे उनमें से अधिकांष में सफलता तभी मानी जाती थी जब हम किसी के उपर जीत हासिल करें और प्रतिद्वंदी को हरा दें। हारने में कोई आनंद नहीं है, सिर्फ प्रतिद्वंदी को धूल चटाने में ही बहादुरी है। और इस मिथ्या संकल्पना को हम जीवन भर पालते पहते हैं। संभवतया हममे से बहुत सारे बुद्विजीवी और पढ़े-लिखे नवयुवक और नवयुवती इतिहास में जाना पसंद नहीं करते हैं। मैं उन पर दोष नहीं मढ़ रहा हूं, बल्कि यह मान रहा हूं कि हम सब लोगों ने अपनी अगली पीढ़ी को ऐसा ही पाठ पढ़ाया है और यह सब सिर्फ भारत ही नहीं वरन पूरी दुनिया में हुआ है।

इसी संदर्भ में यदि हम अपने चारों तरफ होने वाले बच्चों के वीडियो गेम्स, सांड़ से लड़ाई और कई वन्य जीवों को उकसाकर मार डालने जैसे खेलों को देखें तो इस निष्कर्ष पर पहुचेंगे कि हमारे चारों तरफ हो रहे युद्व उन्माद से पल-पल प्रभावित होते हैं और ऐसा करने और कराने में अपनी मर्दानगी स्थापित करते हैं। ऐसा लगता है कि हम दुनिया के इतिहास से कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। युद्व ने कभी किसी समस्या का अस्थायी हल भले ही किया है, स्थायी समस्या जैसे गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और विकास में रोड़ा जरूर पैदा करते हैं जो अगली पीढि़यों को भुगतना पड़ता है।

यदि हम दुनिया के युद्व के इतिहास पर एक नजर डालें तो पंडित श्रीकृष्ण तिवारी की दो लाइनें काफी समीचीन लगती हैं यथा;

‘‘यातना मेरे लिए अब एक घर सी है,

जिंदगी ज्यों युद्व में उजड़े शहर सी है‘‘

 

संभवतया हममें से बहुतों ने युद्व में उजड़ा हुआ शहर या गांव या युद्व में जले हुए खेत-खलिहान सिर्फ सिनेमा में देखा होगा। मेरा एक दुःखद संयोग है कि मुझे कई युद्वों के बाद जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया तथा पाकिस्तान बार्डर और बाँगलादेश के उजड़े हुए गांव व शहर देखने का मौका मिला। और यह सिर्फ छोटे युद्वों की मिसाल है, चलिए एक नजर हम प्रथम विश्वयुद्व (1914 से 1918) पर नजर डालें जिसमें विष्व की कई महाशक्तियां आपस में भिड़ी थीं, और इसमें लगभग 3 करोड़ 50 लाख लोग मारे गए थे, जिसमें सैनिक और नागर समाज के लोग भी शामिल हैं। इसके अलावा लगभग 2 करोड़ 10 लाख लोग बुरी तरीके से घायल हुए थे, 1 करोड़ 70 लाख लोग युद्व बन्दी बनाए गए थे या गायब हो गए थे। कुल मिलाकर 3 करोड़ 70 लाख लोग प्रथम विश्वयुद्व के परिणामस्वरूप मारे गए थे। जो युद्व में लगी सेना के लगभग 57 प्रतिशत थे। यानि प्रथम विश्वयुद्व में शामिल देशों की सेनाओं के आधे से ज्यादा लोग मारे गए थे।

यहीं हाल द्वितीय विश्वयुद्व (1939-1945) का था, जिसमें 2 करोड़ 55 लाख सैनिक मारे गए, और 3 करोड़ 5 लाख नागरिक मारे गए तथा 2 करोड़ 80 लाख नागरिक युद्व की बीमारियों से मरे। कुल 8 करोड़ 50 लाख लोग एक मोटे अनुमान के अनुसार मारे गए। जो वर्ष 1939 में विष्व की जनसंख्या का 3.7 प्रतिशत थे। हाल में वियतनाम के युद्व जो वर्ष 1975 में समाप्त हुआ में लगभग 39 लाख लोग मारे गए। अमेरिका द्वारा आतंकवाद के खिलाफ चलाए गए अभियान में लगभग 80 हजार पाकिस्तानी मारे गए। इसी प्रकार एक बहुत लम्बी लिस्ट है और यह युद्व कहने सुनने में जितना आसान दिखता है वास्तव में उतना ही घिनौना महंगा, तथा साधारण आम जन के मुंह का निवाला छीनने वाला है। यह एक बहुत महंगा और विकास पर दुष्प्रभाव डालने वाला ऐसा उन्माद है, जिसमें गरीब मुल्कों के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के बजट में कटौती करके खरीदे गए हथियारों, मिसाइल, जहाज, बम के प्रयोग द्वारा हम अपने प्रतिद्वंदी पर प्रहार करते हें और इस महंगे सौदे को अपनी बहादुरी मानते हैं। पता नहीं ये बहादुरी हमें कहां ले जाएगी।

मुझे याद है एक बार एक महिला कलाकार ने मुझसे एक सवाल पूछा था कि ‘‘बहादुरी‘‘ किसे कहते हैं, जरा मुझे समझाइए? मित्रों मुझे उस महिला के सवाल का जवाब नहीं सूझ रहा था और मैं बगलें झांक रहा था। काफी देर चुप रहने के बाद उस महिला ने कहा कि अभी तक दुनिया में जितने युद्व हुए हैं उसमें ज्यादातर इतिहास में जो उल्लेख है, उसमें पुरूषों की बहादुरी और मर्दानगी का उल्लेख है, और पुरूषों की यह बहादुरी अस्त्र-शस्त्र, हाथी घोड़े और जनता के खून-पसीने से बनी तोप-तलवारों आदि पर खर्च हुए पैसे के बल पर रही है, दुनिया में ज्यादातर युद्व दो साल से छः साल तक चले हैं और इन सारे युद्वों में बिना अस्त्र-शस्त्र के बहुत कम लोगों ने अपनी बहादुरी दिखाई है। मैने उनसे सवाल पूछा फिर आखिर ‘बहादुरी‘ क्या है ? उस महिला का जवाब था ‘‘विषम परिस्थितियों में लम्बे समय तक बिना धैर्य खोए और बिना बाहरी संषाधनों के जो मैदान में डटा रहे वही बहादुर है‘‘

उस महिला ने आगे कहा कि वह बहादुर पुरूष चाहे हिन्दुस्तान को हो चाहे पाकिस्तान को हो उसके मरने के बाद उसकी बेवा अपने परिवार, समाज व्यवस्था और सरकार से अपने अस्तित्व के लिए पूरी जिंदगी अन्दर और बाहर से बिना संषाधनों के, बिना धैर्य गंवाए जंग लड़ती है।

आधी रात को यदि बच्चे ने बिस्तर गीला कर दिया और नींद में खलल पड़ी तो बहादुर पुरूष की बहादुरी दो मिनट में छूमंतर हो जाती है। सारी रात गीले बिस्तर में बच्चे को सीने से चिपकाए हुए सालों-साल बिना हिम्मत हारे अगर कोई बहादुरी करता है तो वह महिला है। ये महिला अपना पूरा जीवन अपने पेट में चल रहे बच्चे या पैदा हुए बच्चे या जवान होते बच्चे के लिए त्याग और बलिदान करते हुए संघर्ष करती है। और इस संघर्ष में वह मैदान छोड़कर कभी हटती नहीं है। गरीबी, बीमारी, सामाजिक विषमता आदि के दंश को वह हर पल झेलकर घर, परिवार, समाज व देश के लिए बहादुरी से बहादुरों को तैयार करती है, लेकिन हम उसे बहादुर मानने का श्रेय देने के लिए तैयार नहीं है। न सिर्फ भारत में वरन् पूरी दुनिया में लगभग-लगभग यही कहानी है।

मैं समझ सकता हूं कि क्या सचमुच हमें अपने पड़ोसी से एक और बहादुरी वाले युद्व की आवश्यकता है? क्या सचमुच करोड़ों षिक्षा से वंचित बच्चों के शिक्षण के सवाल को दरकिनार करने की जरूरत है? क्या कुपोषित बच्चे,? गर्भवती महिलाओं की मौतें, विकलांग बच्चों के सवाल, आत्महत्या करते किसानों, के सवाल आदि-आदि मुद्दों को छोड़कर युद्व में कूद पड़ना चाहिए या इन मुद्दों पर लम्बा संघर्ष करके एक स्थायी समरसता का हल निकालते हुए स्वस्थ वैष्विक नागरिक बनाने की परंम्परा अपनानी चाहिए।

मुझे संशय है कि कई मित्रों को मेरी शायद बात पसंद नहीं आएगी फिर भी एक खुली बहस के लिए उपरोक्त प्रश्न आपके चिंतन के लिए छोड़ रहा हूं।

 


*लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं। इससे किसी संगठन या अन्य संस्थागत सरोकारों से संबंध नहीं है।