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बालीवुड के राष्ट्रवादी सिनेमाई चरित्र को ललकारता है हैदर

आपने कश्मीर को सनी देओल की फिल्मों में देखा है तो इस बार इरफ़ान,तब्बू,शाहिद,श्रद्धा और के के मेनन की फिल्म ‘हैदर’ में देख आना बहुत ज़रूरी हो जाता है. कश्मीर और कश्मीरियत अपने वजूद के वक्त से लगातार जिन संघर्षों के दौर से गुजर कर, टूट कर, लड़खड़ा कर फिर से उठ खड़ी, चल पड़ी होती है उस तरह का उदाहरण इतिहास में कहीं और नहीं मिलता.

मैंने पचास की उम्र पार किए लोगों की पीठ पर ‘गो इंडिया गो बैक’ के नारे लगाने की एवज में डंडो और तारों के ऐसे निशान देखें हैं जिसे दिखाने की एक ईमानदार कोशिश विशाल भारद्वाज ने फिल्म में की है. आज़ादी की अपनी तरह की यह लड़ाई कब हिंसक रूप अख्तियार कर बैठी इसका पता तब चला जब घाटी की बहुत सी औरतें आधी विधवा कहलाई जाने लगी. सरहद के उस पार से बरगलाने और इस ओर से तड़पाने का जो सिलसिला अस्सी और नब्बे के मध्य से शुरू हुआ वह ख़त्म होते होते ऐसे दर्द छोड़ गया जिससे उभरने में हजारों लाखों कश्मीरी तबाह हो गए.

हैदर, भारतीय सिनेमा के वर्तमान और इतिहास के अद्भुत राजनीतिक सच्चाई के बतौर दर्ज़ किया जाएगा.

मैं हूं की मैं नहीं हूं. जैसा चुभता सवाल दोनों ओर उछाला जाता है.इस तरह के सवाल से न तो दिल्ली सहज हो पाती है और न ही इस्लामाबाद. लेकिन यह सवाल तो वहां का अंतिम सच है जिसे हम किसी राष्ट्रवाद की केतली में चाय के तौर पर उड़ेल, चुस्की के बतौर नहीं ले सकते और न तो जेहाद के नाम पर इसकी चुभन को कम कर सकते हैं. स्वाद तो इसका कहवा जैसा ही रहेगा. तासीर भी झनझनाहट और झकझोरने जैसी होगी.

हैदर की कहानी भ्रम, भरोसा से आगे निकलते हुए इंतक़ाम के उन अनछुए पहलुओं से रूबरू करवाती है जिसमे एक अलीगड़ियन कश्मीरी अपने अब्बू, मोजी, चचा, महबूबा, मुजाहिदीन और फौज के बीच के फर्क को खोजते हुए खो जाता है. सब कुछ में इतना मेल नज़र आता है की वह हैरानी के चरम पर पहुँच कर जो हो रहा है उसमे बहता चला जाता है. लकड़ी के बने घरों पर ग्रेनेड दाग कर जो दाग हुकूमतों ने कश्मीरियों को लगाएं उसका साफ़ असर आज़ादी की उस मांग के कमज़ोर हो जाने में दिखाई देने लगी है जिसमे खुर्रम नज़र आता है.

रिश्तों को सहेजने और उसे बचाने के लिए निकले हैदर ने आखिर वक्त आते आते उन सभी रिश्तों को खुद से इतनी दूर चले जाने दिया जहां से दुबारा लौट आने की उम्मीद न के बराबर होती है. कश्मीर का नौजवान फिलहाल तो उस दौर से निकल आने की बात करता है लेकिन इंतक़ाम की टीस उनके भीतर कहीं न कहीं होती ही है. फिलहाल कश्मीर मिलिटेंसी के भयानक समय से निकल आया है लेकिन आफस्पा की शक्ल में चूतस्पा आज भी कश्मीरियों को अपने घरों से बाहर निकलने पर कश्मीरी होने की बर्बर सज़ा दे रहा है. विशाल ने ‘हैदर’ बनाई है वह भले ही प्रासंगिक और सामयिक न हो पर इतिहास की सच्ची अदायगी ज़रुर कही जा सकती है और बहुत हद तक उसने ‘कश्मीर का क्या होगा’ जैसे सवाल ज़िंदा कर दिए हैं हम सबके सामने.

भारत माता की जय, कश्मीर में कैसे उगलवाया जाता है, उससे आप यह अनुमान लगा सकते हैं की कश्मीरी अपनी पहचान के लिए कितने गंभीर हैं. उनकी लड़ाई उनका अपना राष्ट्रवाद है.

हैदर मीर और अर्शिया लोन , साभार -गूगल इमेज
शाहिद कपूर और तब्बू – गूगल इमेज

बशारत पीर ने जो लिखा है वह मिटाया नहीं जा सकता पर सेंसर बोर्ड ने काफी कुछ मिटाते हुए फिल्म को इजाज़त दे ही दी. फैज़ और गुलज़ार की रूहानी अलफ़ाज़ अदायगी ऐसा लगता है की फज़िर की नमाज़ के बाद आर्मी कैम्प में कैद किए गए कश्मीरी और डल लेक के ऊपर से बह कर आती हवाओं के बीच एक दूसरी के गम को बांट लेने और दर्द को सुन लेने की होड़ सी मची हो. पूरी फिल्म ही दर्द की ऐसी बारिश नज़र आती है जिससे बचने की कोशिश हम भले ही कितनी कर लें लेकिन बहे बिना नहीं रह सकते.

नरेंद्र झा अगर डॉ हिलाल मीर न बने होते तो वो गुम भी न होते और न रूहदार(इरफ़ान खान) से आर्मी कैम्प में उनकी मुलाक़ात होती. रूहदार ने इंतक़ाम का जो पैगाम अर्शिया(श्रद्धा कपूर) के हाथों हैदर(शाहिद कपूर) तक भिजवाया था उस पैगाम ने फिल्म की सारी कहानी का रुख तय कर दिया. गज़ाला मीर( तब्बू) पर इल्ज़ाम लगाया भी जाए तो आखिर कैसे और किन वजहों से. उस रात खुर्रम (के.के. मेनन) को फोन करके डॉ साहब और मिलिटेंट वाली बात बताने के लिए. पर गज़ाला को तो यह पहले ही नापसंद था, की कोई सब कुछ को दांव पर लगा कर, कैसी आज़ादी पाना चाहता है. गज़ाला उस किरदार की पूरी अदायगी है जहां बिस्तर, बाकी हर चीज़ से पहले की बात होती है. खुर्रम से गज़ाला इश्क़ करती थी या नहीं, यह तो नहीं मालूम पर इतना तो कहा जा सकता है कि इश्क़ के कई तेवर होते हैं, उसका रंग बिल्कुल वैसा नहीं होता जैसा हम देख रहे होते हैं. कुछ सेक्स भी होता है जहां इश्क़ होता है. कुछ लोग उसे देखते हैं लेकिन उस पर ज्यादा गौर ओ फ़िक्र नहीं करते. हैदर में बिल्कुल वही है. बहुत कुछ देख कर भी आप बहुत कुछ नहीं देख पाएंगे. दिखाई दे जाए वह इश्क़ कहां रह गया फिर. माँ के तौर पर गज़ाला जहां पूरी तरह डूबी वहीँ आखिर आते आते माशूका और बीवी के लिहाफ को उतार फेका.

खुर्रम ने डॉ साहब को फौज के हवाले करवा कर गज़ाला की उन मुश्किलों को ज़रूर आसान बनाया था जिससे वह नतीज़े के बारे में सोचे बिना फैसले ले सके. हैदर अपने अब्बू की कब्र तक तो पहुँच चुका था पर उसने अपनी माँ खो दी थी. एक मुर्दा के लिए हैदर का जुनून और जद्दोजहद कमाल का है, क्योंकि उसमे जिंदा लोगों से इंतकाम छुपा है. अर्शिया अपने बाप के क़ातिल से भला कैसे मोहब्बत करती जिस बाप ने उसे जल्लाद भाई की पाबंदियों से आज़ाद रहने की छूट दी थी उसका कत्ल हो चूका था,अंजाने में ही सही हैदर से यह जुर्म हो चूका था.

हाथ से बुना मफ़लर कंधों और ज़मीन से होता हुआ अर्शिया के बदन पर खुला पड़ा था और एक राजनीतिक कहानी का अंत मोहब्बत और रिश्तों की उन अबूझ पहेलियों में समा जाता है जहां खुर्रम की कटी टांगों, गज़ाला के उधड़े जिस्म, डॉ साहब की तस्वीर और अर्शिया की कफ़न में लिपटी लाश पड़ी होती है. हैदर कहीं खो जाता है.

 

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