खाओ-खाओ, उनकी खाओ, उनकी गाओ, हमको बांटो।
इंसानों का साथ छोड़कर धनवानों के पत्तल चाटो।
अव्वल-अव्वल जो दिखते हैं
ठग है, सब-के-सब बिकते हैं
झूठे, कातिल और लुटेरे
चोर, चार सौ बीस, संपेरे
राजनीति की चादर ओढ़े
लोकतंत्र के फुंसी-फोड़े
जाओ तुम भी गाल बजाओ
हुक्का-पानी करो, कराओ
घड़ियालों के आंसू पोछो, आदमखोरी में दिन काटो।
इंसानों का साथ छोड़कर धनवानों के पत्तल चाटो….
हम हैं अपने मित्र-गांव के
वे मतलब के और दांव के
हम सब हैं जन-मन के प्यारे
वे सब खड़े बजार-बजारे
हमको भगत-सुभाष चाहिए
उन्हें देश का नाश चाहिए
जाओ तुम गलबंहिया डालो
आस्तीन में अजगर पालो
बस्ती-बस्ती मानवता की कब्र खोदकर मिट्टी पाटो।
इंसानों का साथ छोड़कर धनवानों के पत्तल चाटो….
सिसक रहे खेतिहर-मजूरे
तुम सर्कस में बने जमूरे
आधी आबादी पर आफत
तुम उनके संग करो सराफत
कोठी बेचो, कोठे बेचो
घर-घर खूब मुखौटे बेचो
जात-पांत के पंगे बेचो
नफरत बेचो, दंगे बेचो
आंख-आंख में धूल झोक कर बचा-खुचा उजियारा छांटो।
इंसानों का साथ छोड़कर धनवानों के पत्तल चाटो….
– जयप्रकाश त्रिपाठी
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