-अंकिता आनंद

यू आई डी ? नो, नोट माय आई डी !

कभी कोई मेरा भी नंबर माँगे, कुछ ऐसे थे अरमान,
पर जो इस ख्वाहिश के साथ आया, था मुल्क़ का हुक्मरान।

“जाने कितनों से तुमने ये पूछा होगा,
अब मुझसे भी करना चाहते तुम वही धोखा?”

मेरा दो टूक जवाब सुनकर लगा वो चला जाएगा,
मुद्दतों तक मुझे वो अपना मुँह न दिखाएगा।

पर वो था कि अपनी ज़िद पर अड़ा ही रहा,
दिल पर पत्थर रख मुझ मजबूर ने हाँ कहा।

जिसे हाथ थामना था, ले गया उँगलियों के निशान,
मेरी आँखों में न देख, करवाई पुतलियों की पहचान।

दिल को बहलाया कि वो रखेगा मुझको सलामत,
वक्त-बेवक्त यही सब तो बनेंगे मेरी ज़मानत।

पर कल टूट गया मेरा ये आख़िरी वहम,
अपने यकीन पर हो आई मुझे ख़ुद ही शरम।

जब भरे बाज़ार में लगते देखी मैंने अपनी बोली,
एक-एक नंबर बेच कोई भर रहा था अपनी झोली।

जिस पर भरोसा बना था उसे चुनने का आधार,
उसने बनाया अपनी जनता को अपना ही शिकार।

उसके वादों को सुनते रहे, ख़ूब बदले कैलेंडर,
वो सब ले चलता बना, हम रह गए बस एक नंबर।