आदाब ख़तरे में है, अब ख़ुदा हाफ़िज़ का अल्लाह हाफ़िज़ !!!
हर युग में पैसेवाले लोग अपने विचार समाज पर थोपते आये हैं. जिनके बाप दादा मांसाहारी थे वे अचानक शाकाहारी हो गए हैं, क्योंकि टीवी के माध्यम से बाबाजी आपके घर में घुस गए हैं और अपना खान पान, अपनी विचारधारा समाज पर थोपने में लगे हैं. वैसे भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के पास या तो स्वयं पढ़ने का समय ही नहीं है, या शिक्षा ही नहीं पहुंची के पढ़ लिख सकें. ऐसे में धर्म की बागडोर केवल टीवी वाले धर्मगुरुओं के हाथ में चली गई है. कोई न कोई पूंजीपति, कोई न कोई रूढ़िवादी संस्था या राजनैतिक दल, ऐसे कठमुल्लों को तोते की तरह पाल लिया करता है. ऐसे कठमुल्ले एक से बढ़कर एक चरमपंथी रूढ़िवादी लोगों की भीड़ जुटाने में लगे हुए हैं. करोड़ों रूपये देश विदेश से खर्च किये जा रहे हैं, ताकि लोगों को बहकाया जा सके.
आज भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति और धरोहर को ख़तरा है, यहाँ की एकता में अनेकता वाली सुन्दरता पर आक्रमण किया जा रहा है. पिछले दो या तीन दशकों में जो बदलाव उर्दू भाषी समाज में आये हैं, उसके कुछ वर्णन कर रहा हूँ: उर्दू किसी धर्म विशेष की भाषा नहीं है, इसमें फारसी, हिन्दवी, संस्कृत, तुर्की, अरबी इत्यादि शब्दों का मिश्रण है. जितने उच्चारण और स्वर उर्दू में हैं उतने अरबी भाषा नहीं हैं, जैसे अरबी में “प” अक्षर ही नहीं होता. इसलिए अरबी भाषी अक्सर पेन को बेन, पाकिस्तान को बकिस्तान इत्यादि कहते हैं. उर्दू में कई भाषाओँ का मिश्रण होने के कारण हिंदी, अरबी, फ़ारसी इत्यादि के सारे उच्चारण किये जा सकते हैं. जब अरब से इस्लाम भी भारत आया तो मध्य एशिया से सैर करता हुआ आया, इस्लाम के तथ्य और मूल्यों से बिना किसी छेड़ छाड़ के, मुसलमानों ने इस नए धर्म को अपनी संस्कृति और अपनी भाषा में ढालते हुए अपना लिया.
सूफियों को अल्लाह और खुदा में कोई अंतर नहीं दिखा, इसलिए कभी रब कहा, कभी भगवान् को संबोधित करने वाला पहले से प्रचलित शब्द “ख़ुदा” कहा. अजेय भगवान के आगे नमन करने वाली इबादत जिसे कुरान में “सलाह” कहा गया है, उसे फ़ारसी में “नमाज़” (नमः + अज = झुकना + अजय के आगे) कहा गया. अरबी में “रमादान” कहे जाने वाले पवित्र महीने को “रमज़ान” कहा गया. उपवास को अरबी में “सौम” कहा जाता है परन्तु भारत में इसे “रोज़ा” कहा गया. अवध की गंगा जमुनी तहज़ीब ने “नमश्कार” और “सलाम-अलैकुम” से अलग एक नए शब्द “आदाब” को अभिनन्दन के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया. इसमें संस्कृति और “अदब” को महत्त्व दिया गया जिसने समाज को जोड़ने का काम किया. “ख़ुदा-हाफ़िज़” भी पूर्णतः भारतीय शुभकामना का अंग बन गया. भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़ कर रखने में इस प्रकार के सांस्कृतिक सम्बोधन और सुन्दर भाषा का बहुत बड़ा योगदान है. अब टीवी चैनलों पर और गली गली में घूम घूम कर, अरबी राजाओं द्वारा सिखाये पढ़ाए कठमुल्ले, सांस्कृतिक शुद्धिकरण में लगे हुए हैं. लोगों को रूढ़िवादी होने पर ज़ोर दिया जा रहा है. खुदा हाफ़िज़ को अल्लाह हाफ़िज़, नमाज़ को सलाह, रोज़े को सौम, आदाब को पूरी तरह से नकार कर “अस सलाम अलैकुम” बना दिया गया है. इसका सीधा सीधा असर उस समाज पर पड़ा है जहाँ “आदाब” और “ख़ुदा हाफ़िज़” हर धर्म के लोग इस्तेमाल करते थे.
एक बार लोग ये मान लें कि इश्वर को केवल अरबी भाषा में ही संबोधित किया जा सकता है तो वैसे लोगों को रूढ़ीवाद के दूसरे स्तर पर ले जाना आसान हो जाता है. ये अरबी भाषा का प्रभाव नहीं है, असल में ये सऊदी अरबिया के कट्टरपंथी विचारधारा का दुष्प्रभाव है. वे आज दुनिया में सबसे पैसेवाले शासक हैं, इसलिए अपनी संकीर्ण विचारधारा को विश्व के कोने कोने में फैलाने के लिए उन्होंने कई कार्यक्रम और बजेट बना कर लोगों में धर्म के नाम पर घृणा फैलाने का काम शुरू कर दिया है. विषैली बातें चिकनी चुपड़ी मीठी चीज़ों में लपेट कर खिलाई जातीं हैं. वे कहते हैं कि ये इस्लाम का तुष्टिकरण हैं, और सऊदी अरबिया वाले इस्लाम के सबसे पहले मूल्यों और उसूलों को प्रचलित करना चाहते हैं.
दूसरी जगह अन्य धर्मों के प्रभाव से इस्लाम में विकार आ गए हैं. सुनने में ये काफ़ी सही लगता है, परन्तु वे भूल जाते हैं कि इस्लाम का मूल तो हर जगह एक ही है. पहनावे, खान पान, शादी ब्याह, त्यौहार इत्यादि धर्म का नहीं बल्कि समाज का हिस्सा हैं, और उनमे कट्टरपन लाने से समाज टूट जायेगा. किसी के दिवाली, होली, क्रिसमस, न्यू इयर, ईद ए मिलाद, मुहर्रम मना लेने से धर्म या ईमान में क्या परिवर्तन आ जायेगा? मेरे दिए जला लेने से मेरा ईमान कमज़ोर हो जायेगा? क्या कोई ग़ैर मुस्लिम, ईद मिलने के लिए आ जाये तो उसका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा? कठमुल्लों में ये धर्म भ्रष्ट होने वाली बात “शिर्क” कहलाती है “शिर्क” यानी “अल्लाह के साथ किसी और शक्ति को शरीक करना”
किसी मज़ार पर दिया जलाने, या चादर चढ़ाने को भी वे इसी दृष्टि से देखते हैं, उनके विचार से इंसान केवल अल्लाह के आगे झुक सकता है, उन्हें “इबादत” और “ताज़ीम/आदर/सम्मान/श्रद्धांजलि” में अंतर समझ नहीं आता, ये लोग संतान द्वारा माँ-बाप के पाँव छूने को भी शिर्क कहते हैं. ये सब उनकी संकीर्ण विचारधारा का दोष है. तर्क के लिए, यदि सही मानो में तकनीकी रूप से देखा जाए तो वे भी शिर्क कर रहे हैं, वे कहते हैं “अल्लाह एक है” अरबी में एक “वाहिद” को कहा जाता है, परन्तु क़ुरान में अल्लाह के लिए “अहद” शब्द प्रयोग किया गया है.
अहद एक नहीं हो सकता अहद का अर्थ है वो इकाई जो न जोड़ी जा सके, न उसका विभाजन किया जा सके. एक का तो आधा आधा शून्य दशमलव पांच भी हो सकता है. अर्थात, अल्लाह को एक कहना भी शिर्क हो गया !!! इस्लाम केवल नीयत पर आधारित है, आपकी नीयत/अभिप्राय/मंशा/इरादा क्या है, नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, फ़ित्रह, शादी इत्यादि केवल आपकी नीयत पर आधारित है. चाहे आप जितना भी पूजा पाठ ध्यान रोज़ा नमाज़ पढ़ लें, यदि नीयत में खोट है तो सब बेकार है. आदाब या ख़ुदा हाफ़िज़ कहने से ईमान में कोई अंतर नहीं आता, बल्कि इस से समाज को जोड़ने वाली नीयत जुड़ी हुई है, इसलिए खुदा हाफ़िज़, कहना अल्लाह हाफ़िज़ कहने से अधिक पवित्र है. क्योंकि आप ज़बरदस्ती अल्लाह कह रहे हैं, (जबकि हाफ़िज़ शब्द भी अरबी का नहीं है, इसे हाफ़िद होना चाहिए) आपकी संकीर्ण मानसिकता में केवल अरबी भाषा वाला ही ईश्वर हो सकता है.
भारतीय उपमहाद्वीप के समाज को आज ऐसे कठमुल्लों से ख़तरा है, वे समाज को तोड़ना चाहते हैं, वे सऊदी अरब की संकीर्ण मानसिकता दूसरों पर थोपना चाहते हैं. आदाब ख़तरे में है, अब ख़ुदा हाफ़िज़ का अल्लाह हाफ़िज़ !!!
By- Anonymous
January 5, 2014 at 7:55 pm
Islam and culture of India both are different. Indian cultural sister-brotherhood is itself different with Islam. So there is no space to see both by your eyes which you explained. there are too variations in the thinking of human beings to see and define any issue. Mullah’s or atheists never think in same manner regarding religion or non-religion so i think your fictional story based on bias and cultural extremism. Hmmmm if you have least intelligence than should think who are you?
January 6, 2014 at 4:28 pm
this article says it all: “एक बार लोग ये मान लें कि इश्वर को केवल अरबी भाषा में ही संबोधित किया जा सकता है तो वैसे लोगों को रूढ़ीवाद के दूसरे स्तर पर ले जाना आसान हो जाता है.”