
… हम सुनते हैं कि धरती से ग़ुलामी का निज़ाम ख़त्म हो गया है लेकिन क्या हमारी ग़ुलामी ख़त्म हो गई है? नहीं न. तो हम दासी क्यों हैं?
… हम समाज का आधा हिस्सा हैं, हमारे गिरे-पड़े रहने से समाज तरक़्क़ी कैसे करेगा?
… हमारी अवनति के लिए कौन दोषी है?
ये सवाल आज की कोई स्त्री नहीं पूछ रही है. ये तो लगभग 115 साल पहले एक स्त्री द्वारा पूछे गए सवाल हैं. हालांकि, अगर 21वीं सदी में यह सवाल मौज़ूँ लग रहे हैं तो इसका मतलब है कि 20वीं सदी के मुक़ाबले स्त्री की हालत में बड़ा इंक़लाबी बदलाव नहीं आया है.

ख़ास तौर पर सामाजिक और घर के घेरे में उनकी हैसियत, एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाई है. उस स्त्री ने उस वक्त पूछा था, ‘बीसवीं शताब्दी के, इस तहज़ीबयाफ्ता समाज में हमारी हैसियत, क्या है’. यह सवाल तो आज की लड़की भी बड़ी आसानी से पूछ सकती है. है न!
हम सब की पुरखिन
हम जिस स्त्री की बात यहां कर रहे हैं, उनका नाम रुक़ैया है. वैसे, क्या हम उनके बारे में जानते हैं? जानते हैं, तो क्या? हिन्दी पट्टी में तो नहीं, लेकिन इस पार और उस पार के बंगाल में रुक़ैया एक मक़बूल नाम हैं.

बेहतरीन इंसान, लड़कियों/स्त्रियों की प्रेरणा, अदब की दुनिया में अलग पहचान बनाने वाली, स्त्री के हक़ में आवाज़ उठाने वाली, मुसलमान लड़कियों की तालीम के लिए अपना तन-मन-धन लगा देने वाली, महिलाओं को एकजुट कर संगठन बनाने वाली, समाज सुधार के लिए जि़ंदगी देने वाली … रुक़ैया की पहचान इन सब शक्लों में है.
रुक़ैया की पैदाइश सन 1880 में उत्तरी बंगाल में रंगपुर ज़िला के पैराबंद इलाके में हुई थी. उनके पिता ज़हीरुद्दीन मोहम्मद अबू अली होसेन साबेर इलाके के जमींदार थे. उनकी मां का नाम राहेतुन्निसा साबेरा चौधरानी था. यह इलाका भले ही अब बांग्लादेश में चला गया हो लेकिन रुक़ैया तो हम सब की पुरखिन हैं.
भाई ने बहन को छिप-छिप कर पढ़ाया
रुक़ैया जब पैदा हुईं तो बंगाल के मुसलमान मर्दों के बीच स्कूली पढ़ाई शुरू हो गई थी. मगर तालीम की रोशनी घर के घेरे में बंद स्त्रियों तक नहीं पहुंची थी. बंगाल के अमीर मुसलमान घरों में स्त्रियों को सिर्फ़ मज़हबी तालीम दी जाती थी.
इस तालीम का दायरा भी क़ुरान तक सिमटा था. बहुत हुआ, तो कुछ घरों में उर्दू पढ़ना सिखा दिया जाता था. लिखना नहीं. बांग्ला या अंग्रेजी की पढ़ाई का तो सवाल ही नहीं था.

रुक़ैया के दो भाई कोलकाता में पढ़ाई कर रहे थे. बड़ी बहन को भी पढ़ने का शौक़ था. बड़े भाई ने रुक़ैया को घर के बड़ों से छिप-छिप कर अंग्रेजी, बांग्ला और उर्दू पढ़ाई.
रुक़ैया लिखती हैं, ‘बालिका विद्यालय या स्कूल-कॉलेज के अंदर मैंने कभी प्रवेश नहीं किया. केवल बड़े भाई के ज़बरदस्त प्यार और मेहरबानी की वजह से मैं लिखना पढ़ना सीख पाई.’
पढ़ाई की वजह से इनका काफ़ी मज़ाक उड़ाया गया. ताने दिए गए. मगर न तो वे और न ही उनके भाई पीछे हटे. इसलिए रुक़ैया अपने इल्मी और दिमाग़ी वजूद के लिए बार-बार बड़े भाई को याद करती हैं.
सख़ावत हुसैन का साथ
रुक़ैया का मिज़ाज और उसका रुझान बड़े भाई समझ रहे थे. उन्हें उसके लिए ऐसे साथी की तलाश थी, जो रुक़ैया को घेरे में क़ैद करके न रख दे. उसकी सोच पर पर्दा न डाले.

उन्हें अंग्रेज़ सरकार में अफ़सर सख़ावत हुसैन मिले. वे रुक़ैया से उम्र में काफी बड़े थे. लेकिन भाई को लगा कि रुक़ैया के लिए यह इंसान बेहतर साथी साबित होगा. सख़ावत हुसैन, बिहार के भागलपुर के रहने वाले थे. वे पढ़े-लिखे, ज़हीन और तरक़्क़ीपसंद इंसान थे.
सन 1898 में रुक़ैया और सखावत हुसैन की शादी हो गई. दोनों का साथ लगभग 14 साल का है. सखावत हुसैन की मौत 1909 में होती है. उनकी मौत तक रुक़ैया का ज्यादातर वक़्त भागलपुर में ही गुज़रा. यही वह दौर है, जब रुक़ैया लिखना शुरू करती हैं और ख़ूब लिखती हैं.
मर्दाना निज़ाम पर सवाल
जब स्त्रियां पढ़ती हैं, सोचती हैं और लिखने लगती हैं तो वे उन बातों पर भी सवाल उठाने से क़तई गुरेज़ नहीं करतीं, जिनकी बुनियाद पर गैरबराबरियों से भरा मर्दाना निज़ाम टिका है.
रुक़ैया भी 22-23 साल की होते-होते अपने लिखे से समाज से सवाल-जवाब करने लगी. उनके लिखे पर लोगों की नज़र ठहरने लगी … और देखते-देखते बांग्ला अदब की दुनिया में जाना-माना नाम हो गईं.
वे अब रुक़ैया सख़ावत हुसैन या आरएस होसैन थीं. उनकी एकदम शुरुआत की एक मशहूर रचना है- ‘स्त्रीजातिर अबोनीति’ यानी स्त्री जाति की अवनति.
ऊपर के सवाल इसी रचना से हैं. इस रचना के ज़रिए वे अपनी जाति यानी स्त्रियों से मुख़ातिब हैं. वे स्त्रियों की ख़राब और गिरी हुई सामाजिक हालत की वजह तलाशने की कोशिश करती हैं. उन्हें अपनी हालत पर सोचने के लिए उकसाती हैं.
स्त्री क्यों गुलाम हुई

वह लिखती हैं, ‘सुविधा-सहूलियत, न मिलने की वजह से, स्त्री जाति दुनिया में सभी तरह के काम से दूर होने लगीं. और इन लोगों को, इस तरह ना़क़ाबिल और बेकार देखकर, पुरुष जाति ने धीरे-धीरे, इनकी मदद करनी शुरू कर दी.
‘जैसे-जैसे, मर्दों की तऱफ से, जितनी ज़्यादा मदद मिलने लगी, वैसे-वैसे, स्त्री जाति, ज़्यादातर बेकार होने लगी. हमारी ख़ुद्दारी भी ख़त्म हो गई. हमें भी दान ग्रहण करने में किसी तरह की लाज-शर्म का अहसास नहीं होता. इस तरह हम अपने आलसीपन के ग़ुलाम हो गए. ‘
‘मगर असलियत में हम मर्दों के ग़ुलाम हो गए. और हम ज़माने से मर्दों की ग़ुलामी और फरमाबरदारी करते-करते अब ग़ुलामी के आदी हो चुके हैं…’ रुक़ैया स्त्रियों की गिरी हुई हालत और उनकी ग़ुलाम स्थिति की वजह तलाशती हैं.’

आज भले ही यह सब हमें नया न लगता हो पर सौ साल पहले ऐसा सोचना वाकई अनूठी चीज़ थी. ध्यान रहे, गैरबराबरी बताने के लिए उस वक्त जेण्डर जैसा लफ़्ज़ या विचार वजूद में नहीं आया था.
जहाँ पुरुष, मर्दाना के अंदर पर्दे में
रुक़ैया की एक मशहूर कहानी है- सुलतानाज़ ड्रीम यानी सुलताना का ख़्वाब. यह अंग्रेज़ी में लिखी गई थी. इसलिए बांग्ला पट्टी से बाहर, रु़क़ैया इसी रचना की वजह से जानी गईं. रुक़ैया ने बाद में ख़ुद ही इसका बांग्ला में थोड़े-बहुत संशोधन के साथ तर्जुमा किया.
यह एक ऐसे लोक की कथा कहती है, जो हमारे जैसा नहीं है. यहां ज़नाना नहीं, बल्कि मर्दाना है. यानी मर्द घर के घेरे में पर्दे के अंदर रहते हैं. इस देश की कमान स्त्री के हाथ में है. यहां लड़कियों की अलग यूनिवर्सिटी हैं. स्त्रियों ने सूरज की ता़कत का इस्तेमाल करना सीख लिया है.

वे बादलों से अपने हिसाब से पानी लेती हैं. वे हथियार जमा नहीं करती हैं. पर्यावरण का ख़्याल रखती हैं. आने जाने के लिए हवाई साधन का इस्तेमाल करती हैं. और तो और यहां मौत की सज़ा भी नहीं दी जाती है.
यह कहानी कई चीजों का अद्भुत संगम है. यह विज्ञान कथा है. स्त्री विमर्श की दस्तावेज़ है. नारीवादी कल्पनालोक की कथा है. सबसे बढ़कर यह एक अहिंसक, क़ुदरत से जीवंत रिश्ता बनाकर रखने वाले समाज का अक्स है.
ध्यान रहे, यह कहानी 1905 में मद्रास (चेन्नई) से निकलने वाली इंडियन लेडीज़ मैग्जि़न में छपी थी. हालांकि यह कथा, महिलाओं की जि़ंदगी की जिस ह़की़कत से निकली है, वह अब भी बदस्तूर दिखती है.
रुक़ैया ने एक उपन्यास भी लिखा था-पद्मराग. इसमें अलग-अलग मज़हब और इलाके की समाज और परिवार से परेशानहाल बेसहारा महिलाएं, एक साथ, एक नई दुनिया बसाने की कोशिश करती हैं. वे अपने पांव पर खड़ी हैं. ख्याल से भी आजाद हैं. एक कल्पनालोक से अपने लोक में ही हक़ीक़त में स्त्रियों के नजरिए से यह एक दुनिया बसाने की कोशिश है.
लड़कियों की तालीम के वास्ते जिंदगी होम कर दी
लेकिन रुक़ैया की जिंदगी का बड़ा हिस्सा मुसलमान लड़कियों के वास्ते स्कूल कायम करने में गुज़रा. सन 1909 में सखावत हुसैन की मौत के बाद उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक रुक़ैया ने सबसे पहले भागलपुर में लड़कियों के एक स्कूल की नींव डाली. वहां उन्हें काफी परेशानी का सामना करना पड़ा. वे एक साल बाद कलकत्ता आ गईं.
कलकत्ता (अब कोलकाता) में 1911 में फिर से स्कूल शुरू किया. सख़ावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल, सौ साल बाद आज भी कोलकाता में चलता है. वहां रुक़ैया से जुड़ी कोई भी चीज़ नहीं बची है. हालांकि स्कूल के शताब्दी साल के बहाने लोगों को रुक़ैया की याद आई और उनकी चर्चा भी शुरू हुई.

इस स्कूल को क़ायम करने और चलाने में रुक़ैया का लिखना लगभग बंद हो गया. समाज ने भी उनको कम परेशानी नहीं दी. लड़कियों को पढ़ने भेजने के लिए मुसलमानों को तैयार करने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी. मगर उनकी मेहनत रंग लाई और देखते ही देखते मुसलमानों में पढ़ी-लिखी लड़कियों की कतार बन गई.
हालांकि, अपने काम और जद्दोजेहद के बारे में रुक़ैया लिखती हैं, ‘मैं जब कर्शियांग और मधुपुर घूमने गई तो वहाँ से ख़ूबसूरत पत्थर जमा कर लाई, जब उड़ीसा और मद्रास के सागर तट पर घूमने गई तो अलग-अलग रंग और आकार के शंख-सीप जमा कर ले आई. अब जि़ंदगी के 25 साल समाजी ख़िदमत में लगाते हुए कठमुल्लाओं की गालियाँ और लानत-मलामत इकट्ठा (जमा) कर रही हूँ. ”
हज़रत राबिया बसरी ने कहा है, ‘या अल्लाह! अगर मैं दोज़ख़ के डर से इबादत करती हूँ तो मुझे दोज़ख़ में ही डाल देना. और अगर बहिश्त यानी जन्नत की उम्मीद में इबादत करूँ तो मेरे लिए बहिश्त हराम हो.’
रुक़ैया ने इसी का हवाला देते हुए कहा कि अल्लाह के फ़ज़ल से अपनी समाजी ख़िदमत के बारे में मैं भी यहाँ यही बात कहने की हिम्मत कर रही हूँ.

मुसलमान के बीच न कोई राम मोहन राय था, न ईश्वरचंद विद्यासागर. उस समाज में रुक़ैया एक मशाल की तरह जलीं. इसीलिए बंगाल के इलाके की मुसलमान स्त्रियों के लिए वे राममोहन राय और विद्यासागर से कम नहीं हैं.
स्त्री विरासत भी
52 साल की उम्र में 9 दिसम्बर 1932 के दिन रुक़ैया का इंतक़ाल हो गया. मगर आखिरी सांस तक उनकी जिंदगी स्त्रियों को ही समर्पित रही. बांग्लादेश ने रुक़ैया को काफी इज्जत बख्शी है. 9 दिसम्बर का दिन रुकैया दिवस के रूप में मनाया जाता है.

इस पार भी कोशिश शुरू हुई है. मगर रुक़ैया को जो जगह बांग्ला और बंगाल से बाहर मिलनी चाहिए थी, वह अब तक नहीं मिली है. इसकी दो अहम वजह हो सकती हैं. एक रुक़ैया की ज़बान. आम तौर पर हम बांग्ला या उर्दू या किसी दूसरी भारतीय ज़बान में लिखनेवाली लेखिकाओं को नहीं जानते या उनकी क़ाबिलियत को वैसे रेखांकित नहीं करते हैं, जैसा किसी अंग्रेजी में लिखने वाली को.
हम मुसलमान स्त्री आवाज़ को भी कम पहचानते हैं. दूसरा, अब भी हम स्त्री विरासत, को दिमाग़ी विरासत कम ही मानते हैं. यही नहीं, स्त्री विरासत के बारे में बताया भी कम ही जाता है. लेकिन रुक़ैया हम सबकी पुरखिन हैं.
यह बात आज बहुत मज़बूती से कहने की और उनके लफ़्ज़ बार-बार दोहराने की ज़रूरत है-
‘पुरुषों के बराबर आने के लिए हमें जो करना होगा, वह सभी काम करेंगे. अगर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए, आज़ाद होने के लिए हमें अलग से जीविका अर्जन करना पड़े, तो यह भी करेंगे. अगर ज़रूरी हुआ तो हम लेडी किरानी से लेकर लेडी मजिस्ट्रेट, लेडी बैरिस्टर, लेडी जज- सब बनेंगे.
हम अपनी ज़िंदगी बसर करने के लिए काम क्यों न करें?

क्या हमारे पास हाथ नहीं है, पाँव नहीं है, बुद्धि नहीं है? हममें किस चीज़ की कमी है?
एक बात तो तय है कि हमारी सृष्टि बेकार पड़ी गुडि़या की तरह जीने के लिए नहीं हुई है.’
http://www.bbc.com/hindi/india-39830651?ocid=wshindi.chat-apps.in-app-msg.whatsapp.trial.link1_.auin
July 10, 2017 at 9:42 pm
The courage of the woman in starting school for the girls is great and should be appreciated very much