गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर में हुआ था

आधुनिक हिंदी में गहन वैचारिक रचनाओं के लिए विख्यात मुक्तिबोध आम जीवन में एक बहुत ही सरल व्यक्ति और ‘स्नेहिल पिता’ थे और ऐसे प्रतिबद्ध अध्यापक थे जो कक्षा खत्म होने की घंटी बजने के बावजूद बच्चों को पढ़ाते रहते थे.
मुक्तिबोध के जन्म शताब्दी वर्ष की समाप्ति पर उनके पुत्र रमेश मुक्तिबोध ने ‘भाषा’ के साथ स्मृतियों को साझा करते हुए बताया, ‘पिता के रूप में उन्होंने मुक्तिबोध को सदैव एक निर्मल स्वभाव वाले व्यक्ति के रूप में पाया. अपने को उन्होंने कभी सर्वेसर्वा या ऐसा नहीं माना कि वह ही सभी कुछ जानते हैं. कविता में वह कहते हैं, ‘मैं ब्रह्मराक्षस सृजन सेतु बनना चाहता हूं.’ वह जिंदगी भर सीखना और पढ़ना चाहते थे. संक्षेप में वह एक स्नेहिल पिता थे.
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर में हुआ था. मुक्तिबोध के रचनाकर्म में चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी :एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र (आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएं और एक साहित्यिक की डायरी (आलोचनात्मक कृतियां) शामिल है.
कभी कोई क्लास नहीं छोड़ी
रमेश ने बताया कि 1958 में राजनांदगांव आने के बाद मुक्तिबोध दिग्विजय महाविद्यालय में साहित्य पढ़ाते थे, वहीं वह विज्ञान के छात्र थे. उनके बारे में बताया जाता है कि मुक्तिबोध ने कभी अपनी कोई क्लास नहीं छोड़ी. पढ़ाते समय उन्हें किसी प्रकार का विघ्न बर्दाश्त नहीं था.
उन्होंने ने बताया, ‘वह पढ़ाते-पढ़ाते इतने तल्लीन हो जाते कि कक्षा खत्म होने की घंटी कब बजी उनको यह भी नहीं पता चल पता था. दूसरी कक्षा लेने के लिए जब अन्य अध्यापक आता तो वह पढ़ाना बंद करते. उस जमाने में भी दो कक्षाओं के बीच पांच मिनट का अंतराल होता था और वह उस दौरान भी पढ़ाते रहते थे.’
पिता के संघर्षपूर्ण जीवन पर रमेश ने बताया, ‘उन्होंने जो रास्ता चुना था, वह खुद ही चुना था. उनके साहित्य और उनकी बातों से यही पता चलता है. भारतीय मध्यवर्ग की जो स्थिति बनती है, वह आई और उन्होंने इससे जमकर संघर्ष किया. कभी समझौता नहीं किया.’
अब आठ खंडों में आएगी मुक्तिबोध की रचनावली
मुक्तिबोध की अप्रकाशित या अधूरी रचनाओं के बारे में रमेश ने बताया, ‘मैंने उनकी रचनाओं के पुलिंदे से ऐसी सभी रचनाओं को निकाला. उन सभी रचनाओं को संकलित कर उनकी समग्र रचनावली में डाला गया है. अभी तक मुक्तिबोध की समग्र रचनावली छह खंडों में आई थी. किंतु इन अप्रकाशित रचनाओं को सम्मिलित कर उनकी समग्र रचनावली अब आठ खंडों में आने वाली है.’
11 सितंबर 1964 को मुक्तिबोध के निधन के वक्त 23 बरस के रहे रमेश ने बताया कि 1960 में मुक्तिबोध से ‘भारतीय इतिहास और संस्कृति’ प्रकाशक ने यह कहकर लिखवाई थी कि यह पाठ्यक्रम में लगेगी. प्रकाशकों की आपसी लड़ाई के कारण इस पुस्तक पर मुकदमा किया गया कि इसमें धार्मिक महापुरुषों के बारे में गलत ढंग से लिखा गया है. यह मामला जबलपुर हाई कोर्ट में चला. अदालत ने इस पुस्तक के कुछ अंश निकालने को कहा.
रमेश ने कहा, ‘इससे मुक्तिबोध को बहुत झटका लगा. उनका मानना था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है और सरकार लेखन पर प्रतिबंध लगाना चाहती है.’ उन्होंने बताया कि अब यह पूरी पुस्तक नए सिरे से प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध है.
मुक्तिबोध की प्रमुख रचनाएं
कविता संग्रह – चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल, कहानी संग्रह- काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी, आलोचना- कामायनी – एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी रचनावली- मुक्तिबोध रचनावली (6 खंडों में) अँधेरे में (कविता) एक स्वप्न कथा, एक अंतःकथा, जब प्रश्न चिन्ह बौखला उठा, ब्रह्मराक्षस, भूल-गलती, मैं उनका ही होता, मैं तुम लोगों से दूर हूं, मुझे पुकारती हुई पुकार, मुझे मालूम नहीं, मुझे याद आते हैं, मेरे लोग , शून्य, एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन, दिमागी गुहांधकार का औरांग उटांग, मुझे कदम-कदम पर, जब दुपहरी जिंदगी पर।
http://hindi.firstpost.com/special/100th-birth-anniversary-of-hindi-poet-and-writer-gajanan-madhav-muktibodh-even-after-the-class-was-over-he-used-to-teach-pr-66386.html
मुक्तिबोध की जयंती पर पढ़ें उनके पुत्र दिवाकर मुक्तिबोध का एक संस्मरण

आज हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मदिन है. उन्हें आधुनिक हिंदी का शीर्ष कवि माना जाता है. उन्होंने हिंदी की कविता में प्रयोगधर्मिता को बढ़ावा दिया. मुक्तिबोध की कविताओं में मनुष्य का संघर्ष उसकी पहचान प्रमुखता से सामने आती हैं. उनकी कविताओं में प्रखर राजनैतिक चेतना भी नजर आती है. लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाये कि उनके जीवित रहते उनका कोई भी स्वतंत्र काव्य संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ. उनकी मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी. उनके पुत्र दिवाकर मुक्तिबोध जो पेशे से पत्रकार हैं ने पिछले दिनों उनपर एक फेसबुक पोस्ट लिखा था, पढ़ें उनका यह ओलख:-
वे अपने जीवन के प्रति कितने आशंकाग्रस्त थे, इसकी झलक 5 फरवरी 1964 (मुक्तिबोध रचनावली खंड-6 – पृष्ठ 368) को श्रीकांत वर्मा को लिखे गए पत्र से मिलती है.एक स्थान पर उन्होंने लिखा है – “जबलपुर से लौटने पर मैं बहुत बीमार पड़ गया.चलने में, सोने में, यहां तक कि लिखने में भी चक्कर आते रहते हैं, खूब चक्कर आते हैं.इस कारण छोटी-मोटी दुर्घटनाओं का भी शिकार होता रहा.अपने स्वास्थ्य के संबंध में भयानक और विकृत सपने आते रहते हैं.बहुत दुर्भाग्यपूर्ण अपने को महसूस करता हूं.’ दुर्भाग्य ने वाकई उनका पीछा नहीं छोड़ा.47 की उम्र वे इस दुनिया से चले गए.11 सितंबर 1964.आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस, नई दिल्ली.समय रात्रि लगभग 8 बजे.
दीवारों पर दुलर्भ फोटोग्राफ थे जो उनकी जीवन यात्रा के कुछ पलों के साक्षी थे.किन्तु सीलन आने की वजह से वे निकाल दिए गए.स्मृतियों का यह झरोखा उस हाल तक सीमित हैं जहां वे चक्करदार सीढ़ियां हैं जो उनकी प्रख्यात कविता “अंधेरे में’ जीवन की रहस्यात्मकता की प्रतीक बनी है.बगल के दो अन्य कमरों में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है और डा. बलदेव प्रसाद मिश्र. इसलिए हमारे उस मकान को राज्य सरकार द्वारा त्रिवेणी नाम दिया गया है.कभी खंडहर रहे इस भवन में जिसे कॉलेज के प्राचार्य स्व. किशोरीलाल शुक्ल के निर्देश पर रहने लायक बना दिया गया था, हम रहते थे.बख्शीजी या मिश्रजी नहीं.यह कोई कीर्ति की प्रतिस्पर्धा नहीं थी पर ज्यादा अच्छा होता यदि इस मकान एवं परिसर में सिर्फ पिताजी की स्मृतियों को संजोया जाता.यह अलग बात है कि हिन्दी साहित्य जगत में इस “त्रिवेणी’ को मुक्तिबोध स्मारक के रुप में ही जाना जाता है.बहरहाल राज्य सरकार ने एक दशक पूर्व परिसर की कायाकल्प करके साहित्य जगत में बड़ी वाहवाही लूट ली थी, बड़ी सराहना मिली थी, किंतु उसके बाद उसने पलटकर नहीं देखा.साहित्य – सृजन के लिए बना भवन लगभग एक दशक से सृजनात्मकता की बाट जोह रहा है.अब तक उसे एक भी लेखक नहीं मिला जो उसकी उदासी दूर कर सकें. सरकार ने अपने कारणों से जिसे राजनीतिक भी कह सकते हैं और सांस्कृतिक सोच का अभाव भी, इससे पल्ला झाड़ लिया है. राज्य की भाजपा सरकार के साथ ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं. लेकिन इसी सरकार ने वर्ष 2014 में राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव का आयोजन करके देशव्यापी सराहना अर्जित की थी.फिर उसे इसकी दुबारा जरूरत नहीं पड़ी. राजनांदगाँव में मुक्तिबोध स्मारक के साथ भी कुछ ऐसा ही है.
November 17, 2017 at 5:33 pm
The poet taught sincerely and imparted lot of knowledge to his students in the college