– सुभाष गाताडे

प्रस्तावना
 
‘क्या पानी में आग लग सकती है ?’’
किसी भी संतुलित मस्तिष्क व्यक्ति के लिए यह सवाल विचित्र मालूम पड़ सकता है। अलबत्ता सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों पर निगाह रखनेवाला व्यक्ति बता सकता है कि जब लोग सदियों से जकड़ी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ कर आगे बढ़ते हैं तो न केवल /बकौल शायर/ ‘आसमां में भी सुराख हो सकता है’ बल्कि ‘ पानी में भी आग लग सकती है।’
2017 का यह वर्ष पश्चिमी भारत की सरजमीं पर हुए एक ऐसे ही मौके की नब्बेवी सालगिरह है, जब सार्वजनिक स्थानों से छूआछूत समाप्त करने को लेकर महाड नामक जगह पर सार्वजनिक तालाब से पानी पीने के लिए डा अंबेडकर की अगुआई में हजारों की तादाद में लोग पहुंचे थे। /19-20 मार्च 2017/ कहने के लिए यह एक मामूली घटना थी, लेकिन जिस तरह नमक सत्याग्रह ने आज़ादी के आन्दोलन में एक नयी रवानी पैदा की थी, उसी तर्ज पर इस अनोखे सत्याग्रह ने देश के सामाजिक सांस्कृतिक पटल पर बग़ावत के नए सुरों को अभिव्यक्ति दी थी।
गौरतलब है कि पश्चिमी भारत के सामाजिक आन्दोलन में महाड क्रान्ति दिवस के नाम से जाने जाते चवदार तालाब के इस ऐतिहासिक सत्याग्रह को तथा उसके दूसरे दौर में मनुस्मृति दहन की चर्चित घटना को दलित शोषितों के विमर्श में वही स्थान, वही दर्जा प्राप्त है जो हैसियत फ्रांसिसी क्रांति की यादगार घटनाओं से सम्बन्ध रखती है । यूं कहने के लिए तो उस दिन दलितों ने और ऐसे तमाम लोगों ने जो अस्पृश्यता  की समाप्ति के लिए संघर्षरत थे, महज तालाब का पानी पिया था लेकिन रेखांकित करनेवाली बात यह थी कि इस छोटेसे दिखनेवाले इस कदम के जरिये उन्होंने हजारों साल से जकड बनायी हुई ब्राहमणवादी व्यवस्था के खिलाफ बगावत का ऐलान किया था। जानवरों को भी जिस तालाब पर जाने की मनाही नहीं थीं, वहां पर इन्सानियत के एक हिस्से पर धर्म के नाम पर सदियों से लगायी गयी इस पाबंदी को तोड़ कर वह सभी नयी इबारत लिख रहे थे। यह अकारण नहीं कि महाड सत्याग्रह के बारे में मराठी में गर्व से कहा जाता है कि वही घटना ‘जब पानी में आग लगी थी’ उसनेे न केवल दलित आत्मसम्मान की स्थापना की बल्कि एक स्वतंत्र राजनीतिक सामाजिक ताकत के तौर पर उनके भारतीय जनता के बीच अपने आगमन का संकेत दिया था। दलितों द्वारा खुद अपने नेतृत्व में की गयी यह मानवाधिकारों की घोषणा एक ऐसा हुंकार था जिसने भारत की सियासी तथा समाजी हलचलों की शक्लोसूरत हमेशा के लिए बदल दी।
आनेवाले पन्नों में महाड सत्याग्रह का विवरण पेश किया गया है और महाड की पूर्वपीठिका तैयार करनेवाले सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रोहों पर भी निगाह डाली गयी है। प्रस्तुत आलेख इस मसले पर भी विचार करता है कि आखिर वह क्या वजह थी कि महाड सत्याग्रह को इतनी अहमियत हासिल हुई और अन्त में इस मसले पर भी गौर किया गया है कि आज के वक्त़ में जबकि अपने मुल्क में ही नहीं बल्कि शेष दुनिया में नफरत एवं डर की, असमावेश एवं बहिष्करण की अलग किस्म की हवाएं चल रही हैं, उस दौर में महाड के सबकों को याद करना क्यों जरूरी है।
1.
स्मृति का वजूद कहां होता है ? और विस्मृति के साथ उसका रिश्ता कैसे परिभाषित होता है ?
कभी लगता है कि स्मृति तथा उसकी ‘सहचर‘ विस्मृति एक दूसरे के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहे हों। स्मृति के दायरे से कब कुछ चीजें, कुछ अनुभव, कुछ विचार विस्मृति में पहुंच जाएं और कब किसी शरारती छोटे बच्चे की तरह अचानक आप के सामने नमूदार हो जाएं इसका गतिविज्ञान जानना न केवल बेहद मनोरंजक बल्कि मन की परतों की जटिल संरचना को जानने के लिए बेहद उपयोगी हो सकता है । यह अकारण ही नहीं कि किसी चीज / घटनाविशेष को मनुष्य कैसे याद रखता है और कैसे बाकी सबको भूल जाता है इसको लेकर मन की पड़ताल करने में जुटे मनीषियों / विद्वानों ने कई सारे ग्रंथ लिख डाले हैं ।
और अगर किसी व्यक्तिविशेष के बजाय समाज के ‘मानस’ की चर्चा की जाय तो ‘स्मृतियों’ और ‘विस्मृतियों’ की इस लुकाछिपी को जानना जटिलता के नये आयामों से हमें परिचित करा सकता है ।
आज का यह दौर भी वैसे अजीब है। हम यह पा रहे हैं कि स्मृतियों का यह फ़लक ही संघर्ष का नया मैदान बना दिया गया है। स्मृति-विस्मृति की इस लुकाछिपी में काल्पनिक, आभासी बातों का आरोपण हो रहा है , भावनाओें की दुहाई देते हुए चुनिन्दा स्मृतियों को छांटा जा रहा है और इन आरोपित ‘स्मृतियों’ और ‘मिथकीय’ घटनाओं के जरिये एक नया ‘इतिहास’ रचा जा रहा है। यथार्थ के बजाय मिथक, हकीकत के बजाय भावनाओं के पुर्नस्थापन के जरिये इतिहास के इस ‘पुननिर्माण’ को अंजाम दिया जा रहा है।
वैसे इस प्रकल्प के बरअक्स इतिहास के वास्तविक पुनर्निर्माण की एक समानान्तर प्रक्रिया भी निरन्तर चलती रहती है जहां बार-बार अतीत को खंगाला जाता है , उस पर नये नये कोणों से देखा जाता है और पुराणों में वर्णित समुद्रमंथन के मिथक से तुलना करें तो इससे नये-नये ‘मोती‘ निकाले जाते हैं।
प्रख्यात इतिहासकार ई एच कार ( Carr ) के शब्दों में कहें तो इतिहास दरअसल ‘इतिहासकार तथा तथ्यों के साथ निरन्तर चलती अन्तर्क्रिया तथा अतीत के साथ वर्तमान के निरन्तर जारी सम्वाद ’ का दूसरा नाम है (history is ” a continuouis process of interaction between the historian and his facts, an unending dialogue between the present and the past )  । जाहिर है इस नितनवीन होती प्रक्रिया में नये नये आयाम सामने आते रहते हैं, पहले लगभग अनुपस्थित या अदृश्य से रहनेवाले पहलू उजागर होते रहते हैं, पहले उपेक्षित से दिखनेवाले कारक धमाके के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करते रहते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया होती है जहां चीजों का एकरेखीय, एक आयामीय या सरल बने रहना सम्भव ही नहीं होता। सम्वाद की यह प्रक्रिया अधिकाधिक जटिल, अधिकाधिक बहुआयामीय हुए बिना नहीं रह सकती।
सम्वाद की इस समूची आपाधापी में यह बात केन्द्रीभूत महत्व की हो जाती है कि इतिहासकार कहां से खड़े होकर ‘अपने तथ्यों‘ से बातें कर रहा है तथा उसका अपना राजनीतिक सामाजिक नज़रिया क्या है ? इसके बारे में एक दिलचस्प वाकया जनाब कार बताते हैं जिसमें वे फ्रांसीसी क्रांति  में शामिल जनता को सम्बोधित करने के लिए अलग अलग पीढ़ियों के इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों पर गौर कराते हैं: ‘ऐसे गरीब किसान जिनके पास कपड़े भी नहीं थे’ ‘ सर्वहारा’ , ‘अफवाहें फैलानेवाले’ ‘निहत्थे’ आदि ।
2.
‘अतीत के साथ वर्तमान के सम्वाद‘ के सन्दर्भ में अगर बीते दशकों पर गौर करें तो एक सकारात्मक चीज दिखती है कि इतिहासलेखन की प्रक्रिया में पहले से व्याप्त सीमाएं उजागर हो रही हैं । इतिहास को महज ‘साम्राज्यवाद’, ‘राष्ट्रवाद‘ और ‘साम्प्रदायिकता‘ जैसी श्रेणियों से देखने के सिलसिले पर प्रश्न उठे हैं तथा लगभग हाशिये पर पड़े निम्न तबकों -‘स्त्राीपुरूष भेद‘ ( जेण्डर) या जाति जैसे पहलूओं – की ओर भी प्रगतिशील इतिहासकारों का ध्यान गया है । यह भी महत्वपूर्ण है कि केवल विश्व के सन्दर्भ में ही नहीं बल्कि भारतीय सन्दर्भ में भी इतिहास की नये सिरेसे पड़ताल हो रही है। जाहिर है इसके चलते भारत के औपनिवेशिक काल में उठे विभिन्न किस्म के आन्दोलनों पर नयी रौशनी डालना सम्भव हो सका है । इसका एक लाभ यह भी हुआ है कि इतिहासलेखन में सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलनों की उपेक्षा की हकीकत भी रेखांकित हो सकी है।
यहां इस बात को रखना बेहद जरूरी है कि औपनिवेशिक शासन तथा उसके प्रतिपक्ष के तौर पर आकार ग्रहण करते विभिन्न धाराओं वाले राष्ट्रवादी आन्दोलन से अलग इन समाजसुधार या सामाजिक विद्रोह के आन्दोलनों के सम्यक आकलन में एक अलग तरह की परेशानी से बार बार जूझना पड़ता रहा है। जहां तक सामाजिक विद्रोह या सुधार आन्दोलनों का सवाल रहा है या महिला अधिकारों तथा शूद्रातिशूद्रों के बीच उठी हलचलों का सवाल रहा है वे औपनिवेशिक नीतियों के चन्द पहलूओं का लाभ उठाते हुए या पश्चिमी विचारधाराओं से उर्जा ग्रहण करते हुए आगे बढ़े हैं। अपने शासन की दीर्घजीविता के लिए तत्कालीन बर्तानवी हुक्मरान भी ऐसे तबकों के उद्धार के लिए थोड़े बहुत कदम बढ़ाते रहे हैं। और यह बात भी उतनीही सच है कि ब्रिटिशों के विरोध में खड़े राजनीतिक आन्दोलन में इन तमाम मुद्दों को लेकर सम्वेदनशीलता उसी स्तर की नहीं रही है। अक्सर यहभी हुआ है कि औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ व्यापक एकता बनाये रखने के नाम पर भारतीय समाज की अपनी बुराइयों को एजेण्डा पर लाने का काम मुल्तवी रखने में या उसे आगे के लिए टालने का ही रास्ता अख्तियार किया जाता रहा है।
राजनीतिक तथा सामाजिक के बीच खड़ी कर दी गयी इस कृत्रिम दरार के चलते कई बार यह स्थितियां भी बनी हैं कि सामाजिक धारा की प्रतिनिधि ताकतें राजनीतिक विरोध द्वारा परिभाषित होती मुख्यधारा में उपस्थित भी नहीं हो सकी है। जहां इनकी अनुपस्थिति ने इन आन्दोलनों की छवि ‘ब्रिटिशपरस्त’ यहां तक कि ‘राष्ट्रद्रोही‘ के रूप में भी बनायी जाती रही है वहीं राजनीतिक आन्दोलन के नेताओं द्वारा भारतीय समाज की आंतरिक बुराईयों को उठाने में बरती गयी कोताही ने सामाजिक धारा के प्रतिनिधियों के बीच उनके असली मन्तव्य को लेकर गहरी शंकाएं लगातार पैदा होती रही हैं। राजनीतिक आन्दोलन की प्रतिनिधि शक्तियों के ‘ब्राहमणवादी’ मूल्यों के वाहक होने के उनके आरोप ऐसे ही बेबुनियाद नहीं लगते रहे हैं। सामाजिक धारा की वाहक शक्तियों, संगठनों को कभी कभी यह भी लगता रहा है कि बर्तानवी ताकतों के हटने का मतलब होगा पुराने ब्राहमणी शासन की वापसी, दलितों शूद्रों स्त्रिायों के लिए मिले सीमित अधिकारों का फिर एक बार हनन ।
स्मृति-विस्मृति के द्वंद और उनके नये व्याख्यापन की ऐसी कोशिशों की पृष्ठभूमि में फिलहाल हम औपनिवेशिक भारत के सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन के एक ऐसे अध्याय से रूबरू होना चाह रहे हैं जिसको लेकर सब कोई एक अजीब से स्मृतिलोप का शिकार दिखा है। इसको लेकर व्याप्त चुप्पी और अधिक खलनेवाली इसलिये लगती है क्योंकि यह उस अध्याय का नब्बेवां साल है।
3.
एक हिन्दू पुरूष या स्त्राी, जो कुछ भी वह करते हैं, वह धर्म का पालन कर रहे होते हैं। एक हिन्दू धार्मिक तरीके से खाना खाता है, पानी पीता है, धार्मिक तरीके से नहाता है या कपड़े पहनता है, धार्मिक तरीके से ही पैदा होता है, शादी करता है और मृत्यु के बाद जला दिया जाता है। उसके सभी काम पवित्र काम होते हैं। एक धर्मनिरपेक्ष नज़रिये से वह काम कितने भी गलत क्यों न लगें, उसके लिए वह पापी नहीं होते क्योंकि उन्हें धर्म के द्वारा स्वीकृति मिली होती है। अगर कोई हिन्दू पर पाप करने का आरोप लगाता है, उसका जवाब होता है, ‘ अगर मैं पाप करता हूं, तो मैं धार्मिक तरीके से ही पाप करता हूं।’
(‘द अनटचेबल्स एण्ड द पॅक्स ब्रिटानिका’ – डाक्टर भीमराव अम्बेडकर )
वह तीस का दशक था जिसने ऐतिहासिक महाड सत्याग्रह को एक पृष्ठभूमि प्रदान की। सभी जानते हैं कि देश और दुनिया के पैमाने पर यह एक झंझावाती काल था । महान सर्वहारा अक्तूबर क्रांति के पदचाप भारत में भी सुनाई दे रहे थे। नये आधार पर एक नयी कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की योजनाएं आकार ग्रहण कर रही थीं । यही वह काल था जब गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने असहयोग आन्दोलन में जोरदार हिस्सा लिया था । जातिप्रथा की मुखालिफत करते हुए देश के अलग अलग हिस्सों में राजनीतिक सामाजिक हलचलें भी इन दिनों तेज हो रही थीं । पतुआखली, वैकोम आदि स्थानों पर होनेवाले सत्याग्रहों के जरिये ब्राहमणवाद तथा जातिप्रथा की जकड़न को चुनौती दी जा रही थी। यही वह दौर था जब असहयोग आन्दोलन की असमय समाप्ति के बाद देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने के मसले सामने आने लगे थे और हिन्दू तथा मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठनों की गतिविधियों में तेजी देखी गयी थी।
इसी पृष्ठभूमि में वर्ष 1923 में बम्बई विधान परिषद में रावसाहेब बोले की पहल पर यह प्रस्ताव पारित हुआ कि सार्वजनिक स्थानों पर दलितों के साथ होने वाले भेदभाव पर रोक लगायी जाय । बहुमत से पारित इस प्रस्ताव के बावजूद तीन साल तक यह प्रस्ताव कागज़ पर ही बना रहा । उसके न अमल होने की स्थिति में 1926 में जनाब बोले ने नया प्रस्ताव रखा कि सार्वजनिक स्थानों, संस्थानों द्वारा इस पर अमल न करने की स्थिति में उनको मिलने वाली सरकारी सहायता राशि में कटौती की जाय ।
विलायत से अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटे बाबासाहेब आम्बेडकर दलितों शोषितों के बीच जागृति तथा संगठन के काम में जुटे थे, उन्हीं दिनों महाड तथा आसपास के कोकण के इलाके के दलितों के बीच सक्रिय लोगों ने एक सम्मेलन की योजना बनायी तथा उसके लिए डा अंबेडकर को आमंत्रित किया। इस सम्मेलन के प्रमुख संगठनकर्ता थे रामचंद्र बाबाजी मोरे / 1903-1972/ जिन्होंने अपनी सामाजिक गतिविधियों से पहले से इलाके में अलग पहचान बनायी थी और उनकी अगुआई में कुछ माह पहले ही क्राफोर्ड तालाब सत्याग्रह का आयोजन हुआ था जिसमें सार्वजनिक जल स्त्रोतों पर दलितों के समान अधिकार का दावा रेखांकित किया गया था। बाद में रामचंद्र मोरे कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सक्रिय हुए और मुंबई की ऐतिहासिक गिरणी कामगार यूनियन के संस्थापक सदस्य बने।
इसे संयोग कहा जाना चाहिए कि महाड ही वह भूमि थी जहां पर बाबासाहेब के पूर्ववर्ती महात्मा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के दलित समाज के अग्रणी कार्यकर्ता गोपालबुवा वलंगकर ने अपने जनजागृति की शुरूआत की थी । महाड उसी कोकण का इलाका है जहां के एक गांव के स्कूल में बाबासाहब का बचपन बीता था। तीसरा अहम संयोग यह था कि बम्बई विधानपरिषद के प्रस्ताव के बाद महाड नगरपालिका ने अपने यहां एक प्रस्ताव पारित कर अपने यहां के तमाम सार्वजनिक स्थान दलितों के लिए खुले करने का निर्णय लिया था ।
महाड के वीरेश्वर थिएटर में हो रहे इस सम्मेलन में लगभग तीन हजार लोग एकत्रित थे जिनमें महिलाएं भी भारी संख्या में उपस्थित थीं। गं.नी.सहस्त्रबुद्धे, अनंत चित्रो, शंकरभाई धारिया, तुलजाभाई,  सुरेन्द्रनाथ टिपणीस जैसे समाजसुधारों के लिए अनुकूल सवर्ण भी शामिल थे। ये वही सुरेन्द्रनाथ टिपणीस थे जिन्होंने महाड नगरपालिका द्वारा प्रस्ताव पारित कराने मंें पहल ली थी। सवर्णों की इस उपस्थिति के दो निहितार्थ थे: एक पहलू यह था कि जातिभेद के उन्मूलन के लिए या समाजसुधार के लिए इनमें से एक छोटा तबका तत्पर था तथा उन्हें बाबासाहब के नेतृत्व पर भी यकीन था। दूसरे बाबासाहेब का अपना दृष्टिकोण सर्वसमावेशी था तथा वे ब्राहमणवाद की समाप्ति केे लिए सभी तरह के लोगों को साथ लेकर चलने के लिए तैयार थे।
सम्मेलन के अपने धारदार भाषण में बाबासाहब ने सदियों से चली आ रही ब्राहमणवाद की गुलामी की मानसिकता से विद्रोह करने के लिए दलितों तथा अन्य शोषितों का आवाहन किया। महाड सत्याग्रह की चर्चित घोषणा में उन्होंने कहा कि ‘‘ तीन चीजों का तुम्हें परित्याग करना होगा । उन कथित गंदे पेशों को छोड़ना होगा जिनके कारण तुम पर लांछन लगाये जाते हैं । दूसरे, मरे हुए जानवरों का मांस खाने की परम्परा को भी छोड़ना होगा । और सबसे अहम है कि तुम उस मानसिकता से मुक्त हो जाओ कि तुम ‘अछूत’ हो ।’’ उनका यह भी कहना था कि ‘‘क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है ? क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलानेवाले पानी के हम प्यासे हैं ? नहीं, दरअसल इन्सान होने का हमारा हक जताने हम यहां आये हैं ।’’
20 मार्च की सुबह सम्मेलन के लिए एकत्रित चुनिन्दा लोगों की एक बैठक स्थानीय आयोजक सुरबानाना टिपणिस के घर पर हुई, जिसमें डा अम्बेडकर के अलावा बापूसाहेब सहस्त्राबुद्धे, बापू टिपनिस, शिवतरकर और भाई चित्रो शामिल थे। उन्होंने बीते दिन में प्रस्तुत भाषणों पर विचार किया और यह तय किया कि सम्मेलन की औपचारिक समाप्ति के बाद वह सामूहिक तौर पर चवदार तालाब पर जाएंगे और महाड नगरपालिका द्वारा पारित प्रस्ताव पर अमल करेंगे। चूंकि चवदार तालाब पर जाने का मुददा मूल एजेण्डा में शामिल नहीं था, उसे कैसे अंजाम दिया जाएगा – कौन प्रस्तावित करेगा और कब प्रस्तावित किया जाएगा, किस रास्ते मार्च निकाला जाएगा – यह तमाम बातें तय नहीं हो सकीं। / देखें, महाड: द मेकिंग आफ द फर्स्ट दलित रिवॉल्ट, पेज 124, आनंद तेलतुम्बडे, आकार, 2016/
बाद में सम्मेलन में जारी चर्चाओं में बहिष्कृत अर्थात दलित शोषित तबके की अन्य समस्याओं पर भी चर्चा हुई और प्रस्ताव पारित किये गये । जंगल की जमीन दलितों को खेती के लिये दी जाय, उन्हें सरकारी नौकरियां मिलें, सरकार न केवल शिक्षा को अनिवार्य करे बल्कि 20 साल के छोटे लड़कों तथा 15 साल से छोटी लड़कियों की शादी पर भी पाबन्दी लगाये आदि विभिन्न आर्थिक सामाजिक मसलों पर प्रस्ताव मंजूर हुए । सरकार से अपील की गयी वह शराबबन्दी लागू करे तथा मरे हुए जानवरों का मांस खाने पर पाबंदी लगा दे । यह प्रस्ताव भी पारित हुआ कि सार्वजनिक कुआंे और तालाबों के बारे में जो प्रस्ताव विधानपरिषद में पारित हुआ है उस पर सरकार सख्ती से अमल करे तथा जरूरत पड़े तो उसके लिए क्रिमिनल प्रोसिजर कोड सेक्शन 144 का इस्तेमाल करे।
सम्मेलन की औपचारिक समाप्ति तथा धन्यवाद ज्ञापन के बाद – जिसे महाड के सामाजिक कार्यकर्ता अनंत चित्रे  ने रखा, उन्होंने बाद में सम्मेलन को सम्बोधित किया और लोगों का आवाहन किया कि प्रस्तुत सम्मेलन को एक महत्वपूर्ण काम को अंजाम दिए बिना पूरा नहीं समझा जाना चाहिए। उनका कहना था कि समाज में जारी छूआछूत की प्रथा के चलते आज भी इलाके के दलितों को चवदार तालाब – जो सार्वजनिक तालाब है – उसमें से पानी लेने नही दिया जाता। महाड नगरपालिका द्वारा इस सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किए जाने के बावजूद वह कागज पर ही बना हुआ है। अगर यह सम्मेलन इस प्रथा की समाप्ति के लिए आगे आता है तो यह कहा जा सकेगा कि इसने एक महत्वपूर्ण कार्यभार पूरा किया। चित्रो के चंद शब्दों ने पूरे जनसमूह को आंदोलित किया और वह डा अंबेडकर की अगुआई में कतारबद्ध होने लगे। 20 मार्च की तपती दुपहरिया में लगभग चार हजार की तादाद में वहां जमा जनसमूह ने चवदार तालाब की ओर कूच किया । समूचे महाड नगर में उनका अनुशासित जुलूस आगे बढ़ा। जुलूस में शामिल लोग नारे लगा रहे थे ‘महात्मा गांधी की जय’, ‘शिवाजी महाराज की जय’, ‘समानता की जय’। जुलूस तालाब पर जाकर रूका और फिर सबसे पहले अम्बेडकर ने अपनी अंजुरी भर पानी पिया और फिर जुलूस में शामिल हजारों लोगों ने पानी पीया। गौरतलब है कि इस ऐतिहासिक सत्याग्रह में गैरब्राहमण आन्दोलन के शीर्षस्थ नेताओं के साथ साथ मेहनतकशों के आन्दोलन से जुड़े क्षेत्राीय कार्यकर्ता भी शामिल थे ।
दलितों  द्वारा चवदार तालाब पर पानी पीने की घटना से बौखलाये सवर्णों ने यह अफवा फैला दी कि चवदार तालाब को अपवित्र करने के बाद ये दलित / उन दिनों इन तबकों को ‘अछूत’ कह कर सम्बोधित किया जाता था, जिस शब्द का प्रयोग अब वर्जित है  / वीरेश्वर मन्दिर पर धावा बोलनेवाले हैं । पहले से ही तैयार सवर्ण युवकों की अगुआई में सभास्थल पर लगे तम्बू कनात पर हमला करके कई लोगों को घायल किया गया।
दलितों के इस ऐतिहासिक विद्रोह के प्रति मीडिया की प्रतिक्रिया में भी उसके जातिवादी आग्रह साफ दिख रहे थे । कई सारे समाचारपत्रों ने डॉ आम्बेडकर के इस बाग़ी तेवर के खिलाफ आग उगलना शुरू किया । ‘भाला’ नामक अख़बार जो सनातनी हिन्दुओं का पक्षधर था उसने 28 मार्च को दलितों को सम्बोधित करते हुए लिखा:
‘‘.. आप लोग मन्दिरों और जलाशयों को छूने की कोशिशें तुरंत बन्द कीजिये। और अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम तुम लोगों को सबक सीखा देंगे ।..‘‘
इसके जवाब में बाबासाहब ने लिखा कि
‘‘ ..जो हमें सबक सीखाने की बात कर रहे हैं हम उनसे भी निपट लेंगे ।..’’ 
बहरहाल जिस तरह का आलम था उसके इस बात की जरूरत महसूस की गयी कि अपनी बात जनमानस तक पहुंचाने के लिए एक स्वतंत्रा अख़बार होना चाहिए। पहले निकाले जाते रहे अख़बार ‘मूकनायक‘ का प्रकाशन बन्द हो चुका था। इस जरूरत को पूरा करने के लिए सत्याग्रह की समाप्ति के बाद बम्बई लौटने पर चन्द दिनों के अन्दर ही ‘बहिष्कृत भारत’ नामक अख़बार का प्रकाशन शुरू किया गया। प्रवेशांक निकला था 3 अप्रैल 1927 को।
अपने इस अख़बार के जरिये न केवल नवोदित दलित आन्दोलन ने उसके खिलाफ शुरू हो रहे अनर्गल प्रचार का जवाब देने की कोशिश की बल्कि सकारात्मक ढंग से अपनी समूची परियोजना को भी लोगों के सामने रखने के काम की शुरूआत की।
22 अप्रैल के अंक में बाबासाहब ने लिखा
‘‘. महात्मा गांधी की तरह आज तक हम लोग भी यही मानते आये थे कि अस्पृश्यता यह हिन्दुधर्म के उपर लगा कलंक है। लेकिन अब हमारी आंखें खुली हैं और हम समझ रहे हैं कि यह हमारे शरीर पर लगा कलंक है। जब तक हम इसे हिन्दुधर्म पर लगा कलंक समझते थे तब तक इस काम को हमने आप लोगों पर सौंपा था लेकिन अब हमें इस बात का एहसास हुआ है कि यह हमारे शरीर पर लगा कलंक है तो इसे खतम करने के पवित्र काम को हमने खुद स्वीकारा है।..‘‘
4.
महाड सत्याग्रह का दूसरा चरण पहले जितना ही क्रांतिकारी था। यह महसूस किया गया था कि  यूं तो कहने के लिए महाड सत्याग्रह के अन्तर्गत ‘चवदार तालाब’ पर पानी पीने या छूने के लिए दलितों पर लगायी गयी सामाजिक पाबंदी तोड़ दी गयी थी लेकिन अभीभी यह लड़ाई तो अधूरी ही रह गयी है ।
घटना के दूसरे ही दिन महाड के सवर्णों ने ‘अछूतों‘ के स्पर्श से ‘अपवित्र‘ हो चुके चवदार तालाब के शुद्धीकरण को अंजाम दिया था। घटना के चन्द दिनों के बाद महाड नगरपालिका ने अपनी एक बैठक में अपने पहले प्रस्ताव को वापस लिया था। तथा महाड के चन्द सवर्णों ने अदालत में जाकर यह दरखास्त दी थी कि यह ‘चवदार तालाब’ दरअसल ‘चौधरी तालाब’ है और यह कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है । गौरतलब है कि अदालत ने उनकी याचिका स्वीकार की थी और फैसले के लिए अगली तारीख मुकरर की थी।
बॉक्स
महाड सत्याग्रह में शामिल हो रहे लोगों के लिए सूचना
 
25 दिसम्बर 1927 को महाड से शुरू हो रहे सत्याग्रह में शामिल होनेवाले सभी लोगों के लिए विनम्रतापूर्वक यह सूचना दी जाती है कि वे अपने साथ थाली, लोटा, कंबल और तीन दिन पूरी पड़नेवाली भोजनसामग्री अवश्य लाएं। हम लोग वहां भोजन का इंतज़ाम करनेवाले हैं, लेकिन हरेक अपनी व्यवस्था कर सके तो अच्छा रहेगा। डा अम्बेडकर और सत्याग्रह कमेटी के अन्य लोग मुंबई से 24 दिसम्बर को मुंबई से पानी वाले जहाज से निकलनेवाले हैं। जो लोग उनके साथ निकलना चाहते हैं वे अपने आने जाने के खर्चे के लिए 5 रूपए की रकम बहिष्क्रत हितकारिणी सभा के दफतर में पहुंचा दें ताकि उनके लिए स्वतंत्रा बोट का इन्तजाम किया जा सके।..जो लोग कमेटी के सदस्यों के साथ नहीं पहुंच रहे हैं वह दासगांव पहुंच जाएं।
महाड के सत्याग्रह में भारी तादाद में लोग इकटठा होने वाले हैं। इस पूरी भीड़ में अपने साथियों को पहचानने के लिए सत्याग्रह में शामिल हो रहे स्वयंसेवकों को चाहिए कि वह बहिष्क्रत हितकारिणी सभा का बिल्ला प्रदर्शित करे। जिनके सीने पर सभा के नाम का बिल्ला नहीं होगा उनके हिफाजत की या अन्य किसी भी किस्म की जिम्मेदारी सत्याग्रह कमेटी के पास नहीं रहेगी। इस बिल्ले की कीमत सिर्फ दो आना रखी गयी है और वह बहिष्क्रत हितकारिणी सभा के दफतर में खरीदा जा सकेगा।
आप का 
सिताराम नामदेव शिवतरकर
सेक्रेटरी सत्याग्रह कमेटी
/महाड सत्याग्रह के दूसरे चरण के दौरान में प्रकाशित मराठी पर्चे का अनुवाद/
तय किया गया कि 25-26 दिसम्बर को महाड सत्याग्रह के अगले चरण को अंजाम दिया जाएगा । उसके लिए हैण्डबिल प्रकाशित किये गये तथा उसकी तैयारी के लिए जगह जगह सम्मेलन भी आयोजित किये गये। बम्बई में इसी के लिए आयोजित एक सभा में 3 जुलाई 1927 को बाबासाहब ने कहा ‘‘.. सत्याग्रह का अर्थ लड़ाई। लेकिन यह लड़ाई तलवार, बंदूकों, तोप तथा बमगोलों से नहीं करनी है बल्कि हथियारों के बिना करनी है। जिस तरह पतुआखली, वैकोम जैसे स्थानों पर लोगों ने सत्याग्रह किया उसी तरह महाड में हमें सत्याग्रह करना है। इस दौरान सम्भव है कि शान्तिभंग के नाम पर सरकार हमें जेल में डालने के लिए तैयार हो इसलिये जेल जाने के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।.. सत्याग्रह के लिए हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो निर्भीक तथा स्वाभिमानी हों। अस्पृश्यता यह अपने देह पर लगा कलंक है और इसे मिटाने के लिए जो प्रतिबद्ध हैं वही लोग सत्याग्रह के लिए अपने नाम दर्ज करा दें। ..‘‘
27 नवम्बर के अपने लेख में बाबासाहब ने सरकार को यहभी चेतावनी दी कि उसके साथ न्याय के रास्ते में अगर बाधाएं खड़ी की गयीं तो वह अपनी समस्या को दुनिया के सामने रखने में भी नहीं हिचकेगा । ‘‘.. सरकार कितने लोगों को जेल भेजेगी ? कितने दिन जेल में रखेगी ?.. शान्तिभंग के नाम पर अगर सरकार हमारे न्याय अधिकारों के आड़े आएगी तो हम सुधरे हुए देशों का जो राष्ट्रसंघ बना है उसके पास फिर्याद करके सरकार के अन्यायी रूख को बेपर्द करेंगे।..
25 दिसम्बर को चार बजे हजारों जनसमूह की भीड के बीच सम्मेलन की शुरूआत हुई । प्रस्तुत सम्मेलन के लिए महज महाड और उसके आसपास से ही नहीं बल्कि समूचे महाराष्ट्र से जातिभेद का उन्मूलन में रूचि रखनेवाले लोग जुटे थे । समूचे मण्डप में अलग अलग नारे लिख कर लगाये गये थे। गांधी के नेतृत्व के बारे में दलित आन्दोलन में तब तक व्याप्त मोह की झलक इस बात से भी मिल रही थी कि वहां महज एक ही तस्वीर लटकी थी और वह थी गांधी की। सम्मेलन के शुरूआत में उन बधाई सन्देशों को पढ़ कर सुनाया गया जो जगह जगह से आये थे। इसमें एक महत्वपूर्ण सन्देश था लोकमान्य तिलक के सुपुत्रा श्रीधर तिलक का जो जातिभेद उन्मूलन के काम में लगे थे तथा इसके लिए एक अलग संस्था बना कर काम कर रहे थे ।
सम्मेलन के अपने शुरूआती वक्तव्य में बाबासाहेब ने प्रस्तुत सत्याग्रह परिषद का उद्देश्य स्पष्ट किया ।
‘‘ अन्य लोगों की तरह हमभी इन्सान है इस बात को साबित करने के लिए हम तालाब पर जाएंगे । अर्थात यह सभा समता संग्राम की शुरूआत करने के लिए ही बुलायी गयी है । आज की इस सभा और 5 मई 1789 को फ्रांसीसी लोगों की क्रांतिकारी राष्ट्रीय सभा में बहुत समानताएं हैं । .. इस राष्ट्रीय सभा ने राजारानी को सूली पर चढ़ाया था, सम्पन्न तबकों के लिए जीना मुश्किल कर दिया था, उनकी सम्पत्ति जब्त की थी । 15 साल से ज्यादा समय तक समूचे यूरोप में इसने अराजकता पैदा की थी ऐसा इस पर आरोप लगता है। मेरे खयाल से ऐसे लोगों को इस सभा का वास्तविक निहितार्थ समझ नहीं आया।.. इसी सभा ने ‘जन्मजात मानवी अधिकारों को घोषणापत्रा जारी किया था.. इसने महज फ्रान्स में ही क्रान्ति को अंजाम नहीं दिया बल्कि समूची दुनिया में एक क्रांति को जनम दिया ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा‘‘ 
उन्होंने अपील की थी इस सभा को फ्रेंच राष्ट्रीय सभा का लक्ष्य अपने सामने रखना चाहिए..‘‘ हिन्दुओं में व्याप्त वर्णव्यवस्था ने किस तरह विषमता और विघटन के बीज बोये हैं इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘ समानता के व्यवहार के बिना प्राकृतिक गुणों का विकास नहीं हो पाता उसी तरह समानता के व्यवहार के बिना इन गुणों का सही इस्तेमाल भी नहीं हो पाता।  एक तरफ से देखें तो हिन्दु समाज में व्याप्त असमानता व्यक्ति का विकास रोक कर समाज को भी कुंठित करती है और दूसरी तरफ यही असमानता व्यक्ति में संचित शक्ति का समाज के लिए उचित इस्तेमाल नहीं होने देती। ..‘‘सभी मानवों की जनम के साथ बराबरी की घोषणा करता हुआ मानवी हकों का एक ऐलाननामा भी सभा में जारी हुआ।  सभा में चार प्रस्ताव पारित किये गये जिसमें जातिभेद के कायम होने के चलते स्थापित विषमता की भर्त्सना की गयी तथा यहभी मांग की गयी कि धर्माधिकारी पद पर लोगों की तरफ से नियुक्ति हो। इसमें से दूसरा प्रस्ताव मनुस्मृतिदहन का था जिसे सहस्त्रबुद्धे नामक एक ब्राहमण जाति के सामाजिक कार्यकर्ता ने प्रस्तुत किया था । प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘‘शूद्र जाति को अपमानित करनेवाली उसकी प्रगति को रोकनेवाली उसके आत्मबल को नष्ट कर उसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूती देनेवाली मनुस्मृति के श्लोेकों को देखते हुए .. ऐसे जनद्रोही और इन्सानविरोधी ग्रंथ को हम आज आग के हवाले कर रहे हैं।’’
शाम को सभास्थान पर पहले से तैयार किये गये एक यज्ञकुण्ड में मनुस्मृति को आग के हवाले किया गया। यज्ञकुण्ड के आसपास ‘अस्पृश्यता नष्ट करो’ ‘ पुरोहितशाही का विध्वंस करो’ जैसे बैनर लगे थे । सभा के दूसरे दिन स्थानीय कलेक्टर ने अदालत की ओर से जारी उस स्थगनादेश की प्रतियां सम्मेलन को सौंपी जिसमें कहा गया था कि ‘ फिलहाल तालाब पर यथास्थिति बनायी रखी जाय अर्थात उसमें दलितों को वहां का पानी छूने से मना किया गया था। निश्चित ही वह एक बेहद उलझन का समय था । एक तरफ सत्याग्रहियों का विशाल जनसमूह था जो ‘चवदार तालाब पर सत्याग्रह के लिए तैयार था और जिसके लिए जेल जाने के लिए भी तैयार था दूसरी तरफ था सरकार का वह आदेश जिसके तहत इस पर पाबंदी लगा दी गयी थी। रात भर विचारविमर्श चलता रहा । अन्त में सत्याग्रह स्थगित करने का कटु फैसला लिया गया । 27 दिसम्बर के अपने भाषण में डा आम्बेडकर ने कहा कि ‘‘ मुझे आपकी ताकत का अन्दाजा है । लेकिन अपनी शक्ति का उपयोग समय स्थान देख कर किया जाना चाहिये ऐसा मुझे लगता है। .. सवर्णों ने सब तरफ से दमन का चक्र चलाया है। व्यापारियों ने बाजार बन्द किया है। भूस्वामी ( खोत) खेत नहीं दे रहे हैं। किसान लोग जानवरों को उठा ले जा रहे हैं।’’ इसके बाद बाबासाहेब ने महिलाओं विशेषकर सम्बोधित करते हुए लम्बा वक्तव्य दिया जिसमें उन्हें सामाजिक समता लाने की लड़ाई में जोर से आगे आने की अपील की गयी थी।
5.
महाड के समतासंग्राम तो फिलहाल समाप्त हो गया था लेकिन ‘चवदार तालाब’ के पानी में लगी ‘आग’ और दूर तक पहुंचनेवाली थी। जाहिर था कि अगर चवदार तालाब पर पानी पीना विषमतामूलक भारतीय समाज पर दलितों के अपने नेतृत्व में पहला हमला था तो मनुस्मृतिदहन यह दूसरा हमला था। अब यह उजागर हो रहा था कि 19 वीं सदी में महात्मा फुले, ताराबाई शिन्दे या रमाबाई तथा रानडे जैसों ने समाजसुधार की जो मशाल जलायी थी और 20 वीं सदी में उसके साथ पेरियार, अयनकली जैसे तमाम लोग अलग अलग स्थानों पर जुड़ते गये थे उस चिंगारी ने आग की लपटों का रूप ले लिया था।
आज जब हम नये सिरे से महाड समतासंग्राम का पुनरावलोकन कर रहे हैं तो वैसी कौनसी बातें हैं जो हमें आज के अपने समय के लिए भी प्रासंगिक दिखाई देती हैं । जाहिर है कि महाड के समतासंग्राम में ढेर सारी ऐसे बातों के सूत्रा हम पा सकते हैं जो बाबासाहेब के नेतृत्व में विकसित हुए दलित मुक्ति के प्रकल्प/प्रोजेक्ट में बाद में पुष्पित पल्लवित हुए ।
महाड के समतासंग्राम की एक अहम बात थी राजनीतिक आर्थिक संघर्षों के साथ सामाजिक सांस्कृतिक संघर्षों की अहमियत को रेखांकित किया जाना । बाबासाहब ने एक स्थान पर लिखा है कि ‘अस्पृश्यता सारतः राजनीतिक सवाल है..‘‘। जाहिर था कि दलितों को राजनीतिक चेतना से लैस करने के लिए उन्होंने ताउम्र कोशिशें की। बहिष्कृत हितकारिणी सभा से लेकर इण्डिपेण्डट लेबर पार्टी तक का सफर या उसके बाद  शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन से रिपब्लिकन पार्टी बनाने तक की उनकी यात्रा उनकी इसी जद्दोजहद का नतीजा थीं। लेकिन इसके बावजूद लगातार सामाजिक सांस्कृतिक हलचलें खड़ी करने पर उनका जोर रहा। यहभी कहा जा सकता है कि अपने समूचे जीवन में उन्होंने कभी इन दोनों के बीच कोई चीन की दीवार महसूस ही नहीं की । महाड सत्याग्रह के पहले चरण में जब चवदार तालाब पर सत्याग्रह किया गया था उस वक्त जिन प्रस्तावों को पारित किया गया था उनमें सामाजिक सांस्कृतिक मांगों के साथ आर्थिक-राजनीतिक किस्म की मांगें भी साथ साथ विराजमान दिखती हैं, एक तरफ सरकार से मांग की जा रही है कि वह दलितों को जमीन दे दे तो दूसरी तरफ दलितों को अपनी आत्मोन्नति के लिए ललकारा जा रहा है।
महाड सत्याग्रह के बाद तो हम 20 के दशक के उत्तरार्द्ध में या तीस के दशक के शुरू में कालाराम मन्दिर, पर्वती सत्याग्रह जैसे सामाजिक आन्दोलनों का एक लम्बा सिलसिला ही देखते हैं जो बाबासाहेब के नेतृत्व में या उनके मार्गदर्शन में शुरू हुआ। इस मामले मंे हम तुलना करना चाहें तो उनके पूर्ववर्ती महात्मा फुले के नेतृत्व में खड़े सामाजिक आन्दोलन या उनके समकालीन पेरियार रामस्वामी नायकर के नेतृत्व में खड़ी सामाजिक हलचलों के साथ उनके इन प्रयासों की तुलना की जा सकती है। यूं भी कहा जा सकता है कि महात्मा फुले के सत्यशोधक समाज की वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने में वे अव्वल रहे। इसे कोई प्रतीकात्मक कह सकता कह सकता है कि महाड का उनका चयन भी एक तरह से सत्यशोधक समाज की असली विरासत पर अपनी दावेदारी पोख्ता करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम था।
आज के सन्दर्भ में जबकि दलितों की राजनीतिक दावेदारी जोरदार रूप में सामने आयी है तब इस पहलू की अहमियत और बढ़ी दिखती है। यह किसी के लिए भी स्पष्ट है कि 1927 ने जिस स्वाभिमानी दलित आन्दोलन के बीज डाले वहां से दलित आन्दोलन कई कदम आगे बढ़ गया है। देश तथा विभिन्न प्रांतों के स्तर पर दलितों के तथा उनकी मित्राशक्तियों के संश्रय ने 21 वीं सदी के राजनीतिक हलचलों को जबरदस्त प्रभावित किया है। लेकिन साथ ही साथ दलितों के संगठनों के एक हिस्से के बीच भाजपा जैसी साम्प्रदायिक फासीवादी पार्टी के प्रति भी मोह दिखाई दे रहा है। ब्राहमणवाद का आदर्शीकरण करनेवाली ऐसी जनद्रोही धारा के प्रति दलितों के एक हिस्से के साथ उठने बैठने ने निश्चित ही दलित आन्दोलन को कुन्द करने की एक प्रक्रिया शुरू की है। समय की यह मांग साफ दिख रही है कि दलित नये सिरे से ब्राहमणवाद के खिलाफ अपने सामाजिक सांस्कृतिक संघर्ष को भी पुख्ता  करते जाएं । इसका एक दूसरा अहम पहलू था ब्राहमणवाद की समाप्ति के लिए सभी जातियों की एकता की बाबासाहेब की कोशिश । इस मामले में भी वे महात्मा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज की परम्परा को आगे बढ़ाते दिखते हैं। मालूम है कि सत्यशोधक समाज के सदस्यों में कई सवर्ण भी शामिल थे, यहां तक कि उसके पहले संचालक मंडल में एक यहुदी व्यक्ति भी शामिल थे।
यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि गैरब्राहमण पार्टी के लोगों ने जो सत्याग्रह में शामिल हुए थे बाबासाहेब के सामने यह प्रस्ताव रखा था कि ब्राहमणों को इस आन्दोलन से दूर रखा जाये । मालूम हो कि इन दोनों ने मराठी अख़बारों में सत्याग्रह के समर्थन के लिए दो बयान जारी किए थे, पहले बयान में जहां उन्होंने सत्याग्रह के लिए समर्थन का ऐलान किया था तो दूसरे बयान में उन्होंने सत्याग्रह के इस चरण में ब्राहमण व्यक्तियों को उससे दूर रखने की अपील की थी। उनका लिखित प्रस्ताव 1 जुलाई 1927 के ‘बहिष्कृत भारत‘ के अंक में प्रकाशित भी हुआ था। गैरब्राहमण आन्दोलन के शीर्षस्थ नेता जेधे तथा जवलकर के इस प्रस्ताव के समर्थन चन्द और पत्रा भी छपे थे।
बहिष्कृत भारत के 29 जुलाई 1927 के अंक में डा अम्बेडकर ने गैरब्राहमण आन्दोलन के अग्रणी जवलकर और जेधे द्वारा महाड सत्याग्रह को दिए जा रहे सशर्त समर्थन पर अपनी बात रखी। अपने लेख में डा अम्बेडकर ने साफ कहा कि ऐसी कोई शर्त उन्हें मंजूर नहीं होगी । उनके मुताबिक
‘‘.. हमारा संघर्ष सिद्धान्तों को लेकर है। वह किसी व्यक्तिविशेष या किसी खास जाति के साथ नहीं है। हम इस बात पर यकीन नहीं करते कि ब्राहमण जाति में पैदा कोई व्यक्ति उदार नहीं हो सकता। .. हमें ऐसे तमाम लोगों की जरूरत है जो हमारे उददेश्य के प्रति हमदर्दी रखते हैं, भले वह ब्राहमण हो या गैरब्राहमण हों। ब्राहमणों को दूर रखना न केवल उसूलन गलत होगा बल्कि रणनीति में भी गलत होगा …। पुणे से मेरी एक ब्राहमण भगिनी ने अपने पति के साथ महाड के सत्याग्रह में एक स्वयंसेविका के तौर पर शामिल होने की इच्छा तथा तैयारी के बारे में मुझे सूचित किया है। ऐसे लोगों को निरूत्साहित किया जाये ऐसा जवलकर भी नहीं कहेंगे। ब्राहमणों के चलते काम बिगड़ जाएगा ऐसा डर हो तो यही डर कई सारे गैरब्राहमणों और खुद बहिष्कृत तबकों के बारे में भी रखना होगा।हम किसी भी बात को गुपचूप अन्दाज में नहीं करना चाहते। हम लोग हर बात को खुल कर करना चाहते हैं। इसलिए हमें न केवल ब्राहमणों से बल्कि किसी से भी डरना नहीं चाहिए।…. चन्द पुरातनपंथी ब्राहमण या गैरब्राहमण हमें भले ही अस्पृश्य समझते रहें लेकिन सद्भावना से प्रेरित ब्राहमणों की सहायता से हम छूआछूत नहीं बरतते । हमें लगता है कि सत्याग्रह आंदोलन को अस्प्रश्यता की समाप्ति के मकसद तक सीमित रखना चाहिए। अस्प्रश्यों के साथ ऐसे तमाम लोगों की सहभागिता पर हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जो ईमानदारी से इस बात पर यकीन करते हैं कि अस्प्रश्यता का निर्मूलन सुधार, न्याय, मानवीय करूणा और राष्टीय एकता के नज़रिये से बेहद जरूरी है।..सत्याग्रह जैसे आंदोलन को विशिष्ट मुददों तक सीमित रखना चाहिए। यह जरूरी है कि उसे तमाम मुददों में उलझाया न जाए। और यह सभी के लिए लाभप्रद होगा कि सिद्धांतो के साथ समझौता किए बिना विभिन्न किस्म के मतों के लोगों के साथ सहयोग किया जाए। 
/ देखें, महाड – द मेकिंग आफ द फर्स्ट दलित रिवॉल्ट, आकार, 2016/
इसी समझदारी की परिणति थी कि अपने इस सत्याग्रह में ब्राहमण तथा अन्य गैरदलित जातियों के विद्वानों, कार्यकर्ताओं के विशेष सहभाग के बारे में भी उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ के अपने अंकों में उल्लेख करना जरूरी समझा ।
महाड समतासंग्राम का तीसरा अहम पहलू था कि उसके दोनों चरणों में महिलाओं का विशेष सहभाग । अपने भाषण में भी बाबासाहेब ने महिलाओं पर विशेष जोर दिया था । और इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि अंबेडकर के पूर्ववर्ती या समकालीन सामाजिक-सांस्क्रतिक विद्रोहों/ आंदोलनों में महिलाओं की विशिष्ट सहभागिता रही। फिर चाहे फुले का आन्दोलन हो या पेरियार की पहल पर संचालित आत्मसम्मान / सेल्फ रिस्पेक्ट/ आंदोलन हो, सभी में महिलाओं को आगे आने का पूरा मौका प्रदान किया गया। यह ऐसे आन्दोलन थे जिन्होंने अम्बेडकर की सामाजिक-सांस्क्रतिक-राजनीति के लिए रास्ता सुगम किया।
महाड सत्याग्रह को एक तरह से ऐसी तमाम हलचलों की चरम परिणति कहा जा सकता है।
ऐसी ही एक विराट हलचल वर्तमान केरल के इलाके से उठी थी, जिसकी अगुआई महान समाज सुधारक अय्यनकली ने की थी।
6.
इतिहास के झरोखों में -1 
अय्यनकली की अगुआई में ऐतिहासिक हड़ताल
यह उन दिनों की बात है जब ‘छोटे लोगों’ को मानव से नीच समझा जाता था। वे बैल के साथ हल जोतते थे। उन्हें उन्हीें की तरह दो पैरों के पशु समझा जाता था। उन्हें सभी किस्म की आजादियों से वंचित रखा गया था। यहां तक कि उनका ‘नज़र’ आना भी अशुभ समझा जाता था। उंची जाति के लोगों से दलितों – पुलया लोगों की दूरी तय थी, कमसे कम 64 फीट। और अगर कोई दलित इस दूरी को लांघता दिखे तो नायर को अधिकार था कि वह उस पुलया को मार डाले।
..‘छोटी जाति’ के लोगों को उनके चमड़े के रंग से पहचाना जाता था। न उन्हें नये कपड़े पहनने की आजादी थी न वे लकड़ी की चपलें पहन सकते थें, न वे छाता ले सकते थे। सवर्ण जब सड़को पर निकलते थे तब अपने मुंह से ‘होय’ जैसी आवाज़ करते गुजरते थे और जवाब में दलितों को भी एक विशिष्ट किस्म की आवाज मंुह से निकालकर आनेवाले द्धिजों को आगाह करना पड़ता था और साथ ही साथ पेड़ों के पीछे छिपना पड़ता था। साफ था कि इस पूरी व्यवस्था में महिलायें सबसे ज्यादा भुक्तभोगी होती थी। वे अपने स्तनों को ढंक नहीं सकती थी।..
( अय्यनकली, महान समाज सुधारक, ूूूwww.ambedkar.org  से साभार)
क्या आप उस सूबे का नाम बता सकते हैं जहां आज से डेढ़ सौ साल पहले दलितों को आम सड़कों पर चलने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था तथा इसे हासिल करने के लिये उन्हें लड़ाकू संघर्ष करना पड़ा था ! या क्या आप बता सकते हैं कि वह कौनसा सूबा है जहां आज से सौ साल से कुछ वर्ष पहले खेतमजदूरों  (लगभग सभी दलित) ने इस बात के लिए हड़ताल की थी कि उनकी सन्तानों को स्कूल जाने का तथा उन सभी को आम सड़कों पर चलने का अधिकार मिले तथा उनकी झंझावाती हड़ताल ने भूस्वामियों को झुकने के लिए मजबूर किया था। केरल मंे मानवीय विकास के जिस चमत्कार की बातें स्वातंत्रोत्तर काल में की जाती हैं उसके बरअक्स वंचित तबकों की इस तस्वीर को देख कर समझदार लोग भी इन्कार कर सकते हैं कि यह पूर्ववर्ती केरल की बातें हैं।
आज भले ही विभिन्न समाजसुधारकों तथा लम्बे कम्युनिस्ट आंदोलन के कारण केरल के दलितों स्त्रिायों को तमाम तरह के अधिकार मिलें हों लेकिन 19 वीं सदी तक उन्हें जानवरों से बेहतर नहीं समझा जाता था । इस पूरी प्रणाली में महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा बुरा बर्ताव होता था, उन्हें अपने स्तन ढंकने की इजाजत नहीं थी। एक कहानी प्रचलित है कि एक बार कोई गरीब औरत अपने स्तनों को ढंक कर किसी रानी से मिलने गयी । रानी ने खफा होकर उसके स्तन वहंी कटवा दिये । जाहिर सी बात थी पढ़ना लिखना तो मना था ही सार्वजनिक स्थानों पर उनका प्रवेश वर्जित था यहां तक कि बाजारों मंे भी उन्हें घुसने नहीं दिया जाता था ।
इस समूची पृष्ठभूमि में देखें तो केरल के दलितों को शिक्षा तथा अन्य मानवाधिकार दिलाने का तिरूअनंतपुरम के पास पुलाया नामक दलित जाति में जन्मे अय्यनकली ( जन्म 1864) के नेतृत्व में चला संघर्ष उत्पीड़ितों के लिए चले आंदोलन में अपनी विशेष अहमियत रखता है। साफ है कि अय्यनकली की अगुआई में दलितों-शोषितों ने संघर्ष नहीं किया होता तो उनके हालात अपने आप सुधरनेवाले नहीं थे। तिरूअनन्तपुरम से 18 किलोमीटर दूर वेगनूर गांव में अय्यन और माला के परिवार में 28 अगस्त 1863 को जब उनका जनम हुआ था तो शायद ही किसी को अन्दाजा रहा होगा कि इन सात भाई-बहनों के बीच जन्मे अय्यनकली का नाम एक दिन सातों समुदर पार भी पहुंच जाएगा और लोग अपने इस लाड़ले को हमेशा के लिए याद करेंगे। 25 साल की उम्र मंे अय्यनकली ने चेल्लम्मा से शादी की। अपनी युवावस्था में अच्छे दो सफेद बैलों तथा उन्हें नयी गाड़ी में जोत कर जब वे लौट रहे थे तो उंची जातियों की नौजवानों की एक टोली ने उन्हें रोक दिया और धमकाने की कोशिश की। युवा अय्यन ने आव देखा न ताव झट्से कमर में लटकाया खंजर निकाल कर उन सभी को ललकारा कि वे अगर ज्यादा बोले तो उन सभी को खंजर का आनंद उठाना पड़ सकता है। अय्यनकली के गुस्से को देख कर  इन युवाओं ने भाग जाना ही बेहतर समझा।
फिर वक्त आया उनके जीवन के पहले संगठित विद्रोह का। जहां उनकी ताकत तथा उनके स्वभाव को देखते हुए उंची जाति के लोग उन्हें बैलगाड़ी से चलते हुए नहीं रोकते थे लेकिन आम सड़कों पर अन्य पुलया लोगों के घुमने फिरने की आज भी पाबंदी थी। फिर एक दिन उन्होंने अपने युवा साथियों के साथ पुथन मार्केट तक जाना तय किया। जब वे बलरामपुरम के चालियार रास्ते पर पहुंचे तब वहां पहले से ही तैनात उंची जाति के नौजवानों ने उनका रास्ता रोका। अय्यनकली तथा उनके तमाम युवा साथी पहले से ही तैयार थे और आपस में जबरदस्त संघर्ष हुआ, दोनों तरफ से कई लोगों को चोटें आयीं। इस ‘चालियार विद्रोह’ से प्रेरणा पाकर दलित नौजवानों ने राजधानी के आसपास के मान्नाकाडू, काझाकोट्टम और कुनया पुरामेट आदि तमाम गांवों में, कस्बों में इसी तरह का ‘सत्याग्रह’ किया।
उनके जीवन का एक दूसरा महत्वपूर्ण पड़ाव था दलितों के लिए स्कूलों में प्रवेश दिलाने का आन्दोलन। वे जब छोटे थे तब दलितों को स्कूल में प्रवेश नहीं दिया जाता था। इस समस्या से मुक्ति पाने के लिये उन्होंने दो स्तरों पर प्रयास शुरू किये। एक तो रियासत में जनमत तैयार करना तथा दूसरे समानान्तर स्कूल खोलना। वेंगनूर ग्राम जहां उनका जन्म हुआ था वहां उनका यह पहला स्कूल शुरू हुआ। ( वर्ष 1904) सभी सुविधाओं से विहीन यह स्कूल दरअसल लोगों की प्रचण्ड इच्छाशक्ति पर ही चल रहा था। ये ऐसे स्कूल थे जिसमें ब्लैकबोर्ड भी नहीं था । जमीन पर पड़ी बालू ही बच्चांे की किताब थी तथा उनकी उंगलियां ही पेन्सिल का काम करती थीं । इस तरह दलितों ने एक स्वाभिमान भरा कदम उठाया तथा सवर्णों द्वारा लागू इस संहिता को चुनौती दी कि दलित पढ़ नहीं सकते हैं। उंची जाति के लोगों को दलितों का इस कदर स्कूल चलाना नागंवार गुजरा और उन्होंने इस स्कूल को ही नष्ट किया। दरअसल वे अच्छी तरह जानते थे कि दलितों द्वारा अक्षरज्ञान का मतलब होगा ब्राहमणवाद की उस समूची गुलामी की व्यवस्था से या सामन्ती उत्पीड़न की प्रथा से उनकी मुक्ति की जमीन तैयार करना।
उसके कुछ समय बाद 1907 में अय्यनकली के नेतृत्व में ‘साधु जन परिपालन संगम’ ;ैश्रच्ैद्ध नामक संगठन की नींव डाली गयी। ‘संगम’ की तरफ से सरकार को कई दरखास्त दी गयी कि वह दलित छात्रों को भी स्कूल में पढ़ने दे । जाननेयोग्य है कि आज के केरल में उन दिनों नारायण गुरू जैसे सामाजिक विद्रोहियों की ओर से श्री नारायण धर्म परिपालन योगम ;ैछक्च् द्ध जैसे संगठनों के जरिये मुख्यतः इझावा और अन्य पिछड़ी जातियों को संगठित करने की कोशिशें पहले से चल रही थीं। उनके इस संगठन की ही तर्ज पर अय्यनकली ने अपने संगठन की नींव डाली। साधु जन परिपालन संघम की ओर से सबसे पहला काम हाथ में लिया गया दलितों की सन्तानों के लिए शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का। इन आवेदनों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करके सरकार ने आदेश दिया कि दलित छात्रों को भी पढ़ने दिया जाये । हालांकि त्रावणकोर रियासत का दीवान इस मांग के पक्ष में था लेकिन नीचे के स्तर के अफसरों ने इस आदेश को लागू नहीं होने दिया । इस आदेश का पता लगने पर अय्यनकली ने शिक्षा विभाग पर भी दबाव डाला कि वह इस दिशा में सख्त कदम उठाये। मगर अधिकारियों के कानों पर जूं नहीं रेंगी । अय्यनकली ने उन्हें चेतावनी भी दी कि वे इस मांग को मान लें वर्ना उनके खेत खाली रह जाएंगे । फिर अय्यनकली के आवाहन पर पुलया तथा अन्य जाति के दलित मजदूरों ने एक ऐतिहासिक हड़ताल शुरू की जिसमें प्रमुख मांगें थीं कि बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिया जाये अर्थात दलित छात्रों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करना, मजदूरों के साथ मारपीट बंद की जाये तथा उन्हें झूठे मामलों में फंसाना बन्द किया जाये, चाय की दुकानों में दलितों को अलग कपों में चाय देने की प्रथा बन्द की जाये, काम के दौरान आराम का वक्त़ और अनाज या अन्य मोटी चीजों के बजाय मजदूरी का भुगतान नगद में । (1908) एक महत्वपूर्ण मांग यह भी थी कि दलितों को सड़कों पर आजादी से टहलने पर जो मनाही थी उसे भी खतम किया जाये।
हड़ताल काफी दिनों तक जारी रही । जमींदारों को लगा कि भूखमरी का शिकार होने पर पुलया लोग काम पर लौट जाएंगे । मगर वे अडिग रहे । दलितों को भूखमरी से बचाने के लिए अय्यनकली ने इलाके के मछुआरांे से सम्पर्क किया तथा उनसे सहयोग मांगा । सवर्णों के उत्पीड़न से परेशान मछुआरों ने खुशी खुशी उनकी मदद की। अन्ततः जब स्थिति बिगड़ती देख कर रियासत के दीवान की मध्यस्थता में दलितों के साथ समझौता हुआ जिसमें उन्होंने मजदूरी बढ़ाने तथा स्कूल में प्रवेश दिलाने और आज़ादी से घुमने फिरने की मांग मान ली । निश्चित ही यह दलितों की ऐतिहासिक जीत थी मगर अभी भी कई बाधाएं पार करनी थी।
महाड सत्याग्रह के लगभग बीस साल पहले अययनकली की अगुआई में सम्पन्न ऐतिहासिक सत्याग्रह ने एक तरह से उसके पहले से चले आ रहे आन्दोलन के तौरतरीकों – जिसमें ब्रिटिश सरकार को दरखास्तों, पीटिशन भेजा जाता था – से रैडिकल विच्छेद किया था।
7.
इतिहास के झरोखों में – 2
समाजविज्ञानी बताते हैं कि कुछ समाज अधिक परिवर्तनशील होते हैं, कुछ समाजों में परिवर्तन की यह गति धीमी होती है तो कुछ में तीव्र। अगर भारतीय समाज को देखें तो प्राचीन तथा मध्यकाल में इसकी गति बहुत धीमी थी।
ऐसा नहीं कह सकते कि सदियों से चली आ रही इस जातिप्रथा को बदलने के लिए हलचलें नहीं चलीं। हलचलें चलीं। मगर वह जातिप्रथा की जड़ों पर आघात नहीं कर सकीं। और अपने आप जाति का सवाल हल हो सकता था भला, जबकि उसे धर्मशास्त्रों की स्वीकृति प्राप्त हो और वह समाज में स्त्रिायों की दोयम दर्जे की स्थिति से भी अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ हो।
आधुनिक काल के पहले चूंकि चन्द अपवादों को छोड़ दें तो धर्म की सार्विक स्वीकार्यता एवं वैधता थी, इसीलिए जातिप्रथा के खिलाफ विद्रोह भी सन्तों की वाणी में, उनके उद्गारों में या मनु के विधान के खिलाफ बग़ावत करनेवाले महात्माओं के साथ लोगों के जुड़ने के रूप में सामने आया।  फिर चाहे बसवेश्वर हों, सन्त तुकाराम हों, रैदास हों या नामदेव हों, ऐसे तमाम सन्तों, महात्माओं के नाम गिनाये जा सकते हैं। भक्ति आन्दोलन का एक विशेष उल्लेख होता है जिसने शूद्र अतिशूद्र जातियों से संतों को सामने लाने का काम किया। यह अलग बात है कि भक्ति आन्दोलन की अपनी सीमाएं थीं। यथास्थिति के पोषक विचार भक्ति आन्दोलन में स्पष्टतः विद्यमान थे। गोस्वामी तुलसीदास की चर्चित पंक्ति है, जिसका उल्लेख वह ‘रामचरितमानस’ में करते हैं ‘ढोर गंवार पशु शूद्र नारी, यह सब ताडन के अधिकारी।’
‘भक्ति और जन’ के लेखक डा सेवा सिंह के मुताबिक
‘भक्ति, अब समस्त समाजार्थिक परिवर्तनों को धता बताते हुए लोक चेतना में स्वायत्त रूप से दृढतापूर्वक पैठ बना चुकी है। भक्ति की विचारधारा ने, निचले तबकों को पारलौकिक सत्ता की अनुकम्पा के प्रति आश्वस्त बनाए रख कर, उनकी अकिंचनता की जिम्मेदारी मानवकृत व्यवस्था की बजाय कर्मफल पर डाल कर, प्रतिरोध को कंुठित करते हुए, वर्चस्वी वर्ग को सुरक्षा प्रदान की है और उन्हें अमानवीय उत्पीड़न के अपराध बोध से छुटकारा दिलाया है।’’
स्थितियां ऐसी थीं कि शुद्धता और प्रदूषण पर टिकी, मनु के विधान को लागू करनेवाली प्रथा ज्यों की त्यों बरकरार थी । अंग्रेजों के आगमन ने ही इस स्थिति में एक गुणात्मक फरक डाला ।
इस मायने में देखें तो 19 वीं सदी का उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध हिन्दोस्तां की सरजमीं पर तमाम तरह की हलचलों के लिए चर्चित रहा । अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ सियासी आर्थिक मामलों को लेकर उठी जबरदस्त जनतहरीक से लेकर अन्य सामाजिक सांस्कृतिक मसले इसी दौरान जोरदार तरीके से एजेण्डा पर आये। 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में तत्कालीन बम्बई प्रांत ने उपनिवेशवादी विरोधी संघर्ष के शुरूआती दौर के अलावा रैडिकल सामाजिक – सांस्कृतिक आन्दोलन की एक सशक्त धारा के निर्माण की भी पृष्ठभूमि तैयार की ।
भारत में अंग्रेजों का शासन शुरू होने से पहले प्रजा को शिक्षा देना सरकार का दायित्व नहंी माना जाता था । महात्मा फुले के जनम से पहले राजसत्ता तथा धार्मिक सत्ता ब्राह्मणांे के हाथ में होने के कारण सिर्फ उन्हें ही धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अधिकार था । निम्न जाति के जिन व्यक्तियों ने पवित्रा गं्रथ पढ़ने का प्रयास किया तो उन व्यक्तियों को मनु के विधान के तहत कठोर सजायंे मिली थी । दलितों की स्थिति जानने के लिए पेशवाओं के राज पर नज़र डालें तो दिखेगा कि वहां दलितों को सड़कों पर घुमते वक्त अपने गले में घडा बांधना पड़ता था ताकि उनकी थूक भी बाहर न निकले । वे सड़कों पर निश्चित समय में ही निकल सकते थे क्योंकि उनकी छायाओं से भी सवर्णों के प्रदूषित होने का खतरा था। जाहिर सी बात है कि दलितों के लिए शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। वर्ष 1813 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा जारी आदेश के तहत शिक्षा के दरवाजे सभी के लिए खुल गये । वैसे सरकार ने भले ही आदेश जारी किया हो लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति बेहद प्रतिकूल थी । ब्राह्मणों के लिये ही एक तरह से आरक्षित पाठशालाओं में जब
अन्य जाति के छात्रों को प्रवेश दिया जाने लगा तब उसका जबरदस्त प्रतिरोध हुआ था ।
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 1848 में महिलाओं के लिये खोले अपने पहले स्कूल के जरिये जोतिबा फुले, उनकी जीवनसंगिनी सावित्राीबाई फुले और उनकी सहयोगिनी फातिमा शेख ने उस सामाजिक विद्रोह का बिगुल फूंका जिसकी प्रतिक्रियायें 21 वीं सदी में भी जोरशोर से सुनायी दे रही हैं । 1851 तक आते आते महिलाओं, शूद्रों अतिशूद्रों के लिये उनके द्वारा खोले गये स्कूलों की संख्या पांच तक पहंुची थी जिसमें एक स्कूल तो सिर्फ दलित महिलाओं के लिए था । जैसे कि उस समय हालात थे और ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियों में पढ़ने लिखनेवालों की तादाद बेहद सीमित थी, उस समय इस किस्म के ‘धर्मभ्रष्ट’ करनेवाले काम के लिये कोई महिला शिक्षिका कहां से मिल पाती । ज्योतिबा ने बेहतर यही समझा कि अपनी खुद की पत्नी को पढ़ लिख कर तैयार किया जाये और इस तरह 17 साल की सावित्रीबाई पहली महिला शिक्षिका बनीं । फातिमा शेख नामक दूसरी शिक्षित महिला ने भी इस काम में हाथ बंटाया । इस बात के विस्तृत विवरण छप चुके हैं कि शूद्रों अतिशूद्रों तथा स्त्रिायों के लिए स्कूल चलाने के लिए इस दंपति को कितनी प्रताडनायें झेलनी पड़ीं यहां तक कि सनातनियों के प्रभाव मंे आकर ज्योतिबा के पिता गोविंदराव ने उनको घर से भी निकाला। यह बात भी बहुत कम लोग जानते हैं कि ऐसे समय में उन्हें फातिमा शेख के भाई उस्मान शेख ने अपने घर में सहारा दिया था।
महात्मा फुले ने अपने काम को महज शिक्षा तक सीमित नहीं रखा । उन्होंने कई सारी किताबों के जरिये ब्राह्मणवाद से उत्पीड़ित जनता को शिक्षित जागरूक करने की कोशिश की । ‘गुलामगिरी’ ‘किसान का कोड़ा’ ‘ब्राह्मण की चालबाजी’ आदि उनकी चर्चित किताबें हैं । अपने रचनात्मक कामों के अन्तर्गत उन्होंने वर्ष 1863 में अपने घर में ही ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ खोला । जाननेयोग्य है कि विधविवाह पर रोक की प्रथा के कारण विशेषकर ब्राह्मण जाति की तमाम महिलाआंे को काफी प्रताडना झेलनी पड़ती थी । अगर किसी के भुलावे में आकर वे गर्भवती हुईं तो बदनामी से बचने के लिये उन्हें उसके मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचता था । ज्योतिबा-सावित्री ने महिलाओं को इस दुर्दशा से बचाने के लिये अपने घर में ही ऐसे गृह की स्थापना की । इसको लेकर समूचे पुणे में हैण्डबिल भी बांटे गये थे । बालविधवाओं के बाल काटने से रोकने के लिये उन्होंने पुणे के नाईयों की एक हड़ताल भी संगठित की थी ।
अपने कार्यों को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिये ज्योतिबा ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की और अपने दो मित्रों के साथ मिल कर 1873 में ‘दीनबंधु’ नामक अख़बार का प्रकाशन भी शुरू किया । ‘स्त्राी पुरूष तुलना’ की रचयिता ताराबाई शिन्दे हों या पुणे के सनातनियों से प्रताडित पंडिता रमाबाई हों दोनों की मजबूत हिफाजत ज्योतिबा ने की ।
जाननेयोग्य है कि सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता तथा फुले के सहयोगी श्री नारायण मेघाजी लोखंडे ने बम्बई की पहली टेªड यूनियन बॉम्बे मिलहैण्डस एसोसिएशन की स्थापना की थी तथा उन्हीं के आन्दोलन की अन्य कार्यकर्ती ताराबाई शिन्दे अपनी किताब ‘स्त्री पुरूष तुलना’ के चलते एक तरह से पहली नारीवादी सिद्धांतकार मानी गयी हैं । उनके अन्य सहयोगी भालेकर ने ज्योतिबा की ही प्रेरणा से किसानों के संगठन का बीड़ा उठाया ।
इस तरह हम देख सकते हैं कि स्त्राी शूद्र अतिशूद्र के उत्पीड़न का प्रश्न रहा हो या उनकी शिक्षा का, जनता को सचेत करने के लिये अख़बारों पत्रापत्रिकाओं के प्रकाशन मामला रहा हो या सेठों और ब्राह्मणों द्वारा साधारण जन के लिये रचे गये छलकपट का सभी की मुखालिफत में वे हमेशा आगे रहे । लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान यही कहा जाएगा कि उन्होंने वर्णाश्रम पर टिकी ब्राह्मणवाद की चौखट को जबरदस्त चुनौती दी और यह साबित किया कि उंचनीचअनुक्रम पर टिकी यह प्रणाली इन्सान को जोड़नेवाली नहीं है तोड़नेवाली है । यह स्वाभाविक ही था कि नवोदित उपनिवेशवादी संघर्ष द्वारा गढ़ी जा रही राष्ट्र की अवधारणा उन्होंने प्रश्नों के घेरे में खड़ी की । उनका साफ साफ सवाल था कि जातियों में बंटा यह समाज कैसे एक राष्ट्र हो सकता है ।
अगर स्त्राी शूद्रो अतिशूद्रों को शिक्षित करने के उनके प्रयासों पर फिर लौटे तो हम पाएंगे कि उन्होंने शोषितों को शिक्षित करने के साथ साथ शिक्षा का एक वैकल्पिक माडल भी प्रस्तुत करने की कोशिश की । मेकॉले के शिक्षा की फिल्टर पद्धति के माडल के बरअक्स अर्थात शिक्षा उंचे तबकों को प्रदान की जाये तो वह छन छन कर नीचले तबकों तक आएगी, महात्मा फुले ने नीचले तबकों को सबसे पहले शिक्षित करने पर जोर दिया । आज कल चर्चित ‘पड़ोस में स्कूल’ ;दमपहीइवनतीववक ेबीववसेद्ध की नीति की भी उन्होंने हिमायत की यहां तक कि शिक्षा में सरकारी हस्तक्षेप का आग्रह किया। भारतीय जनमानस पर प्रगट रूप में कायम मनु के विधान को चुनौती देते हुए उन्होंने दलितांे शोषितों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने की भी कोशिश की । उनकी मौत के चन्द साल बाद ही उनकी यह इच्छा कोल्हापुर के महाराजा शाहू महाराज ने पूरी की जो उन्हीं के आंदोलन से जुड़े थे ।(1902)
1882 में अंग्रेज सरकार द्वारा शिक्षा संबंधी समस्याओं को जानने के लिए नियुक्त हंटर आयोग के सामने प्रस्तुत अपने निवेदन में फुले के इन शिक्षासम्बन्धी विचार और ठोस रूप में मिले दिखते हैं।  वे साफ कहते हैं कि ‘‘मेरी राय है कि लोगों को , प्राथमिक शिक्षा कमसे कम 12 साल तक अनिवार्य कर देनी चाहिए’’ उनका यह भी प्रस्ताव था कि ब्राह्मणों द्वारा दलित जातियों की पढ़ाई के रास्ते में खड़ी की जा रही बाधाओं को देखते हुए उनकी बस्ती में अलग स्कूल बनाने चाहिए । शिक्षा तथा अन्य स्थानों पर शोषित तबकों को वरीयता देने की बात करते हुए वे इसमें यह भी लिखते हैं कि अध्यापकों को ठीक तनखाह मिलनी चाहिए तभी वे ठीक से पढ़ा पाएंगे । लेकिन उनका सबसे रैडिकल सुझाव शिक्षा के पाठयक्रम को लेकर है जो उनके मुताबिक ‘‘महज क्लर्क और शिक्षक तैयार करने की उपयोगिता तक सीमित है’’। प्रचलित माध्यमिक शिक्षा को सामान्य लोगों की दृष्टि से अव्यावहारिक और अनुचित घोषित करते हुए उसका विकल्प तलाशने की मांग करते हैं।
आखिर हम ज्योतिबा फुले के योगदान के बारे में क्या कह सकते हैं जिन्होंने सामाजिक मुक्ति के क्षेत्रा में एक रैडिकल प्रवाह के विकास में अहम भूमिका अदा की जिसने ‘शेटजी और भटजी’ (महाजन और ब्राह्मण) से मुक्ति की बात रेखांकित की। स्थानाभाव के कारण हम भले ही अधिक विवरण में न जाएं लेकिन क्या हम नहीं जानते कि यह वही आन्दोलन था जिसने भारतीय सन्दर्भ में जिस स्त्राी मुक्ति की बात कही वह विचार उंची जाति से सम्बद्ध समाज सुधारकों से गुणात्मक तौर पर अलग था। श्रमिक आन्दोलन में सम्बद्ध तमाम लोगों ने तो फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के अग्रणी लोखंडे, का नाम भी नहीं सुना होगा जिन्होंने 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बम्बई के कामगारों को संगठित किया।
‘सिलेक्टेड रायटिंग्ज आफ जोतिराव फुले’ के सम्पादकीय में प्रोफेसर गो पु देशपाण्डे हमें बताते हैं
फुले का फ़लक व्यापक था, उनका प्रसार विशाल था। उन्होंने अपने वक्त़ के अधिकतर महत्वपूर्ण प्रश्नों – धर्म, वर्णव्यवस्था, कर्मकाण्ड, भाषा, साहित्य, ब्रिटिश हुकूमत, मिथक, जेण्डर प्रश्न, कृषि में उत्पादन की परिस्थितियां, किसानों की हालत आदि – को चिन्हित किया और उनको सैद्धान्तिक शक्ल देने की कोशिश की… क्या फुले को फिर समाज सुधारक कहा जा सकता है ? इस जवाब होगा ‘नहीं’। एक समाज सुधारक उदार मानवतावादी होता है और फुले क्रान्तिकारी अधिक थे। उनके पास विचारों की समग्र प्रणाली थी, और वह उन प्रारम्भिक विचारकों में से थे, जिन्होंने भारतीय समाज मे वर्गो की पहचान की थी। उन्होंने भारतीय समाज के द्वैवर्णिक संरचना का विश्लेषण किया था, और सामाजिक क्रान्ति के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को अग्रणी कारकशक्ति/एजेंसी के तौर पर चिन्हित किया था। (पेज 20, लेफ्टवर्ड)
या जयोति थास (1945-1914) को देखें जो दार्शनिक विद्रोहियों की क्लासिकीय धारा के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं -जिसने भारत की बौद्धिक परम्परा को चार्वाक, बौद्ध के जमाने से ही अलग पहचान दी – उन्होंने जाति सोपानक्रम को निर्मित करनेवाले मनुधर्म का परित्याग किया और दलितों के समग्र मुक्ति के लिए आगे बढ़ कर प्रचार किया।
अपनी किताब ‘वेनॉमस पास्ट’ (साम्य) में रविकुमार लिखते हैं ‘जयोति थास (अयोध्या दास) उन तमाम दलित महानायकों में से एक रहे हैं जिनके नाम को मुख्यधारा के इतिहास ने दबाने की कोशिश की।’ वे अंग्रेजी, संस्कृत और पाली जानते थे। उनका साफ मानना था कि बाद के चोला के आगमन के पहले तमिलनाडु में बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हुआ था और परिस्थितियों का ऐसा षडयंत्रा रहा जिसके चलते इस गैरवैदिक धर्म का अन्ततः पतन हुआ। जयोति थास के मुताबिक अन्ततः बौद्धधर्मियों को उनके धर्म से वंचित किया गया और वे अस्पृश्य की श्रेणी में पहुंचे। ‘यह सब भले ही अटकलबाजी पर टिका सिद्धान्त लग सकता है मगर असम्भव नहीं दिखता।’
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इतिहास के झरोखों में – 3
 
अपनी किताब ‘अण्डरस्टैण्डिंग कास्ट: फ्रॉम बुद्ध टू अम्बेडकर एण्ड बियांण्ड (ओरिएन्ट ब्लैकस्वान,, 2011) के जरिए सुश्री गेल ओमवेद,  इस मसले को सम्बोधित करती हैं कि उच्च नीच सोपानक्रम पर टिकी जाति नामक भारत की इस विशिष्ट सामाजिक संरचना,  के अलग अलग दौरों-सभ्यताओं को लांघते हुए आज भी बने रहने के पीछे क्या राज है ? जातिविरोधी आन्दोलनों, मुहिमों के कभी मद्धिम, कभी तेज सिलसिले के बावजूद आखिर इस प्रथा की दीर्घजीविता के क्या कारण है ?
12 अध्यायों में बंटी 115 पेज की किताब एक तरह से भारत की श्रमण संस्कृति एवं ब्राहमण संस्कृति की दो महान परम्पराएं तथा हिन्दु धर्म के निर्माण सेे शुरूआत करती हुइं, बुद्ध के दर्शन, भक्ति आन्दोलन, ज्योतिबा फुले के योगदान, रमाबाई ताराबाई जैसे शुरूआती नारीवादियों के विचार एवं कार्य, अम्बेडकर के पूर्ववर्ती किशन फागू बनसोडे, जयोति थास, मांगू राम, स्वामी अछूतानन्द जैसे दलित विचारक-कार्यकर्ताओं के हस्तक्षेप, पेरियार, दलित पैंथर्स, दलित राजनीति की भविष्यदृष्टि, बहुजन समाज पार्टी का उद्भव आदि का एक विहंगावलोकन प्रस्तुत करती है।
उदाहरण के लिए अपने दौर के तमाम समाज सुधारकों एवं सामाजिक विद्रोहियों की तुलना में महात्मा फुले के संघर्ष की चर्चा करते हुए वह बताती हैं जहां इनमें से अधिकतर ने कहीं न कहीं समझौते किए वहीं ज्योतिबा ने न केवल अपनी पत्नी सावित्राीबाई को पढ़ाया और उसे लड़कियों के लिए खोले गए स्कूल में शिक्षक बनने के लिए प्रोत्साहित किया, सन्तानविहीनता के बावजूद उन्होंने दूसरी शादी करने को लेकर पड़े समाज के दबाव को मानने से इन्कार किया। अन्य सभी प्रमुख दलित एवं निम्नजातियों के प्रतिनिधियांे की तरह फुले द्वारा प्रस्तुत धार्मिक विकल्प के बारे में उनका कहना है कि अपनी आखरी प्रमुख किताब ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ में वह एक आदर्श परिवार की चर्चा करते हुए बताते हैं कि वह एक ऐसा परिवार होगा जहंा पिता बौद्ध बनता है, मां ईसाई धर्म स्वीकार करती है, बेटी इस्लाम कबूल करती है और बेटा सत्यधर्मी होता है।
रमाबाई-ताराबाई शिन्दे जैसी अधिक चर्चित शख्सियतों की बात करते हुए किताब में इस बात का भी जिक्र है कि किस तरह आजादी के आन्दोलन के दौरान उठे किसान आन्दोलन में भी स्त्रिायांे के प्रश्न को उठाने की कोशिशें हुईं। बाबा रामचन्द्र की अगुआई में अवध किसान सभा की सरगर्मियों के दौरान गठित महिलाओं का संगठन ‘किसानिन सभा’ का किताब में विशेष उल्लेख है जिसकी अगुआई कूर्मी समुदाय से जुड़ी जग्गी कर रही थीं। किसानिन सभा ने महिलाओं को जमीन का अधिकार दिलाने, पुरूषों की बहुपत्नीप्रथा पर हमला तथा पारिवारिक रिश्तों पर सुधारने पर जोर दिया। फुले की तरह किसानिन सभा ने एकपत्नीप्रथा की हिमायत की, जिसके नियमों में यह बात भी शामिल थी कि सभी किस्म के रिश्तों को वैध माना जाना चाहिए और महिलाएं अगर सन्तान को जनने में असमर्थ हों तबभी उनका सम्मान होना चाहिए।
किताब में अम्बेडकर पूर्व दलित-बहुजन विद्रोहियों ने किस तरह अपने आप को इस भूमि के मूल निवासियों के तौर पर पेश किया और उसके अनुरूप नयी पहचानें गढ़ी इस पर विस्तृत चर्चा है। उदाहरण के लिए बीसवी सदी की दूसरी दहाई में पंजाब का आदिधर्म आन्दोलन, यूपी का आदि हिन्दू आन्दोलन, हैद्राबाद में आदि द्रविड, आदि आंध्र जैसे आन्दोलन तो दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में आदि कर्नाटक जैसी सरगर्मियों की बात की गयी है। मैनपुरी में दलित परिवार में जनमे अछूतानन्द अछूतानन्द, (जन्म 1879 मैनपुरी मृत्यु 1933 कानपुर) ने भारत के मूल निवासियों का आदि हिन्दू आन्दोलन चलाया। 1927 में ‘आदि हिंदू’ शीर्षक से अख़बार का प्रकाशन एवं संपादन किया। अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत आर्य समाज से करनेवाले अछूतानन्द का जल्द ही उससे मोहभंग हो गया, जब उन्होंने उसके अन्दर जातिवाद को देखा। उन्होंने जनजागृति के लिए अनेक नाटक, कविताएं और गीत इत्यादि की रचना की। अपने एक आलेख में उन्होंने कहा
अछूत, कथित हरिजन, दरअसल आदि हिन्दू हैं अर्थात उत्तर के मूलनिवासी नागा या दास हैं जिस तरह दक्षिण के द्रविड हैं और वहीं इस भारत के मूल, निर्विवाद मालिक हैं। बाकी सभी यहां पर प्रवासी की तरह आए हैं, जिसमे आर्य भी शामिल हैं, जिन्होंने मूल आबादी को शैार्य एवं पराक्रम के आधार पर नहीं बल्कि धोखे से जीता ….जिन्होंने हमेशा समानता पर यकीन किया उन्हें नीचले दर्जे में ढकेला गया। हिन्दू एवं अछतू तभी से दो छोर पर बने हुए हैं।
 
सुश्री गेल इस किताब में भारतीय परम्परा को हिन्दु धर्म के समकक्ष रखने और हिन्दु धर्म को ब्राहमणवाद के तौर पर पेश करने की लम्बे समय से चली आ रही रवायत की आलोचना करती हैं। उनके मुताबिक यह समझदारी वेदों को भारतीय संस्कृति के बुनियादी ग्रंथ मानती है तथा भारतीय सभ्यता के सारतत्व को आर्यों की विरासत में ढंूढती है। उनका कहना है कि सिर्फ हिन्दुवादी लोग ही नहीं सेक्युलर लोग भी इसी  दृष्टि तक कैद दिखते हैं।
उनके मुताबिक भारत की सांस्कृतिक विविधताओं को समेटनेवाला हिन्दु धर्म को लेकर यह सहजबोध, जो एक तरह से हिन्दु सहिष्णुता एवं बहुलवाद की आधिकारिक विचारधारा में परिणत हुआ है, उसी के विस्तार के रूप में हम हिन्दुत्व – लड़ाकू हिन्दुधर्म – की आधुनिक राजनीति के उद्भव को देख सकते हैं, जहां हिन्दु धर्म ही राष्ट्रवाद का दूसरा नाम है।
भारतीय समाज एवं इतिहास की इस स्थापित समझदारी को प्रश्नांकित करनेवाली दलित आन्दोलनों में समाहित वैकल्पिक परम्पराओं पर भी वह निगाह डालती हैं। दिलचस्प है कि जाति के प्रश्न दलित दृष्टि/विज़न के उद्भव एवं विकास में ऐसे लोग जो खुद परिभाषा के हिसाब से ‘दलित’ नहीं थे – उदाहरण के लिए फुले, पेरियार, कबीर, तुकाराम यहां तक कि बौद्ध – आदि के योगदान को रेखांकित करते हुए वह दलित राजनीति को यह सलाह भी देती हैं कि उसे चाहिए कि वह ‘दलित’ शब्द से परे जाए और जातिप्रथा द्वारा उत्पीड़ित एवं शोषित विभिन्न तबकों की आवाज बने। हिन्दु धर्म के उत्पीड़क पहलूुओं एवं उसकी जाति विचारधारा को समाप्त करने के लिए चली तमाम कोशिशों की असफलताओं एवं कामयाबियों को सामने लाते हुए वह यह भी जिक्र करती है आजभी ऐसी कोशिशें चल रही हैं ताकि ‘दूसरी’ ऐसी दुनिया बनायी जा सके जहां समानता एवं मानवीय आजादी को सर्वोपरि समझा जाता हो।
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अन्त में, 1927 के महाड के इस समतासंग्राम में वैसे उस क्रांतिकारी सम्भावना के बीज भी तलाशे जा सकते हैं जो कभी आकार नहीं ग्रहण कर सके। वह था इस आन्दोलन में नवोदित दलित आन्दोलन के साथ गैरब्राहमण आन्दोलन तथा मेहनतकशों के आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं का एक मंच पर आना । क्या भारत की शक्लोसूरत वही रह पाती अगर ये तीनों धाराएं एक साथ आतीं । अपनी चर्चित किताब ‘‘कल्चरल रिवॉल्ट इन ए कालोनियल सोसायटी: द नॉनब्राहमन मूवमेंट इन महाराष्ट्र’ प्रख्यात विचारक गेल ओमवेट इस बात को रेखांकित करती हैं कि किस तरह सत्यशोधक समाज के इस अनुवर्ती गैरब्राहमण आन्दोलन के एक धडे़ के साथ कम्यूनिस्ट कार्यकर्ताओं की नज़दीकी बनने की सम्भावना थी । अपने चन्द लेखों में बाबासाहेब भी जनता के दुश्मनों के तौर पर ‘ब्राहमणवाद’ और ‘पूंजीवाद’ को रेखांकित करते दिखते हैं । बाबासाहेब जिस पहली राजनीतिक पार्टी का गठन करते हैं उसका नाम भी वे ‘इण्डिपेण्डट लेबर पार्टी’ रखते हैं जो मजदूर आन्दोलन में जम कर हिस्सा लेती दिखती है और 40 के दशक में खोतप्रथा ( कोकण के इलाके में एक तरह की जमींदारी) के सवाल पर उग्र आन्दोलन करतेे दिखते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी भारत की पहली पार्टी होती है जो जातिप्रथा की समाप्ति के लिए प्रतिबद्ध होने की बात करती है ।
आखिर ऐसी क्या वजहंे थीं कि ब्राहमणवाद , जातिप्रथा की समाप्ति तथा मेहनतकशों के राज के लिए प्रतिबद्ध ये तमाम ताकतें एक साथ जुड़ नहीं सकीं । इसमें कम्युनिस्ट नेतृत्व की समझदारी की कौनसी कमियां आड़ आयी या डा अम्बेडकर की अगुआई में जारी आन्दोलन की कौनसी सीमाएं बाधा बनीं, इस बात की भी पड़ताल करने की जरूरत आज निश्चित ही है ।
आज जबकि 21 वीं सदी की इस प्रभातबेला में हम विषमतामूलक समाज को मजबूत करनेवाली ताकतों के दबदबे से देश तथा वैश्विक स्तर पर नये सिरेसे रूबरू हैं तो कमसे कम भारत की सरजमीं पर किसी न किसी स्तर पर सामाजिक बदलाव के लिए प्रयासरत ऐसी ताकतांे का एक साथ मंच पर आना क्या समय की मांग नहीं है ।
महाड के ‘पानी से उठी लपटों के ’ पुनरावलोकन के सिलसिले में क्या कमसे कम इतना संकल्प नहीं लिया जा सकता !
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परिशिष्ट 1
‘रामराज’ या ‘सोविएट राज’
/डा अंबेडकर द्वारा संपादित ‘जनता’ अख़बार के 26 जनवरी 1931 के अंक में प्रकाशित लेख/
‘रामराज’ इस शब्द से मराठी के पाठक अच्छी तरह परिचित हैं। ‘रामराज’ का अर्थ अयोध्या में राम ने जिस तरह किया उस किस्म का राज। राम के अवतार होने की धार्मिक श्रद्धा के चलते ‘रामराम’ की कल्पना हिन्दु आदमी के लिए विशेष तौर पर प्रिय और आदरणीय लगती है। महात्मा गांधी ने भी अपने सामने ‘रामराज’ का उददेश्य रख कर स्वराज के आंदोलन का संचालन किया है। हिन्दोस्तां में आगे स्थापित होने वाला स्वराज्य किस किस्म का होगा इसका वर्णन करते वक्त़ अपने लेखन में वह ‘रामराज’ शब्द का प्रयोग अक्सर करते हैं। मगर जो ‘राम’ नामक पौराणिक शख्स को चाहते हैं, उस राम ने जिस तरीके से राज किया वह ‘रामराज की पद्धति’ उन्हें पसंद है, इसका स्पष्ट खुलासा उनके लेखन या भाषणों से नहीं होता। ऐसा लगता है कि ‘रामराज’ का मतलब ‘न्याय एवं सत्य की बुनियाद पर आधारित और न्याय एवं सत्य के नियम से संचालित राज्य’ इसी अर्थ में वह ‘रामराज’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे होंगे। गांधीजी की ‘रामराजी स्वराज्य’ संकल्पना की सबसे बेहतर यही व्याख्या हो सकती है। मुमकिन है कि गांधीजी इस भावार्थ से ‘रामराज’ शब्द का इस्तेमाल नहीं भी कर रहे हों।
ब्राहमण धर्मानुयायी लेकिन खुद को ‘सनातनी’ कहलानेवाले शास्त्राी पंडितभी इस ‘रामराज’ के बहुत हिमायती हैं। जलगांव में आयोजित अखिल भारतीय वर्णाश्रम स्वराज्य संघ परिषद तो ‘रामराज’ को नए सिरेसे स्थापित करने के मकसद से ही आयोजित की गयी थी। ‘‘जन्म एवं जाति के अन्तर्गत शूद्र में शुमार किए गए एक व्यक्ति चोरी छिपे वेदविद्या ग्रहण किया। उसके इस ‘पाप’ से ब्राहमण जाति के एक लड़के की असमय मौत हुई। इस घटना से पूरे रामराज में कोलाहल मचा। ऐसी विपरीत घटना किस तरह हुई इसकी जांच रामराज के सरकारी अधिकारियों ने की तब उन्हें उस शूद्र अपराधी का पता लगा जिसने ब्राहमणों की तरह वेदविद्या ग्रहण की थी। उसे सिंहासन के सामने प्रस्तुत किया गया। उसके अपराध का स्वरूप जानते ही उसे सज़ा ए मौत का ऐलान हुआ और उसी के अनुसार शूद्र का सिर काट दिया गया और उधर ब्राहमण की लाश उट खड़ी हुई। ’
इस प्रकार की कहानी रामायण में है। आज हजारों सालों से सभी श्रद्धालु हिन्दू उसको सुनते आए हैं। रामराज्य की न्यायनीति और राजकाज की पद्धति इसी किस्म की थी, इसी यकीन पर ही जलगांव में वर्णाश्रम के हिमायतियों ने ‘रामराज्य’ को अपने स्वराज्य का ध्येय तय किया है।
इस प्रकार ‘रामराज्य’ का लौकिक स्वरूप है। ‘सुस्वभावी राजा’ का राज यही रामराज्य का सबसे उत्तम पहलू है। लेकिन भविष्य का समय लोकतंत्रा का समय है। प्रजा की इच्छा एवं गुजारिश को अस्वीकार करके अपने मां बाप के लिए अपने खुद के कर्तव्य को भूल कर जंगल में जानेवाला राजा व्यक्तिगत तौर पर राम की तरह सुस्वभावी हो तबभी लोकतंत्रा के दौर के लिए वह बेकार है। और शूद्र विद्या हासिल करके विद्वान होने पर उसका सिर काटने का आदेश देनेवाली अनियंत्रित राज्य पद्धति भी इसके आगे निंदनीय समझी जाएगी। इस प्रकार देखें तो ‘रामराज्य की पद्धति’ का  भलाबुरा स्वरूप होने के चलते उसकी हिमायत भले गांधीजी करें या शास्त्राी पुरोहित करें, वह लोकतंत्रा के तत्वों के पूरी तरह खिलाफ है। इस रामराज्य पद्धति का विलोप अभी हुआ नहीं है। हिन्दोस्तां के राजेरजवाड़े उसी ‘रामराज्य पद्धति’ का अवशेष हैं। मुगलों का राज, पेशवाओं का राज यहां तक कि कुछ मामलों में अंग्रेजों का राज भी एक हद तक उसी रामराज्य पद्धति के नक्शेकदम चलते रहते हें। मगर उनका वैभव अब ढलान पर है। भूतकाल इस पद्वति के वैभव का उषःकाल है। वर्तमान समय इसका मध्यान्ह काल है और भविष्य में उसका अस्त होनेवाला है।
लेकिन यही सोविएत राज की प्रभातबेला है। रूस में इस राज्यपद्धति पर अमल हाल में ही शुरू हुआ है। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, अमेरिका आदि मुल्क रूस में शुरू इस अनोखे प्रयोग की तरफ काफी हद तक डर से और कुछ हद तक कुतूहल से देख रहे हैं। रूस ने अपनी ओर बाकी मुल्कों का ध्यान खींचा है। हिन्दोस्तां भी ‘सोविएत’ रूस की निगाह से ओझल नहीं हुआ है। हिन्दोस्तां में सोविएत राज्यपद्धति किस तरह शुरू की जा सकती है इसका सर्वव्यापी प्रोग्राम उन्होंने बनाया है। लंदन के टाईम्स अख़बार में उसके हिस्से प्रकाशित हुए हैं और मुंबई के टाईम्स अख़बार ने उसपर सम्पादकीय लिखा है।
हिन्दोस्तां में सोविएत राज कायम करने के लिए गठित पार्टी का लक्ष्य और उसे अमली जामा पहनाने के लिए निम्नलिखित तरीके बताए गए हैं
1. हिन्दोस्तां पर फिलवक् कायम ब्रिटिश राज्यसत्ता को हिंसक रास्ते से नष्ट कर हिन्दोस्तां को आज़ाद करना, सभी प्रकार के कर्जों को माफ करना। ब्रिटिश कारखाने और अन्य सभी ब्रिटिश मिल्कियत को जब्त कर इस सभी संपत्ति को ‘राष्टीय सम्पत्ति’ घोषित करना।
2. सोविएत राज्यपद्धति को हिन्दोस्तां में कायम करना। अल्पसंख्यक समाजों को अपनी इच्छा से स्वतंत्र और अलग होने का हक प्रदान करना।
3. बिना किसी मुआवजे के जमींदारों, राजे रजवाड़ों, मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों, साहूकारों एवं सरकारी अधिकारियों की जमीनों को जब्त करना  और उन्हें किसानों व मजदूरों को अनाज उत्पादन के लिए देना
4. मजदूर पर आठ घंटे से अधिक काम करने का बोझ न पड़े। उसकी मजदूरी बढ़ाना और उसका जीवनस्तर सुधारना। बेरोजगार लोगों के जीवनयापन की जिम्मेदारी सरकार द्वारा अपने हाथ में लेना।
…अस्पृश्यता और गुलामगिरी समाप्त करने के लिए जातिभेद पर जोरदार हमला किया जाना चाहिए, ऐसी बात भी इस कार्यक्रम में लिखी गयी है। स्त्रिायों के उद्धार के मसले का भी उसमें जिक्र है।
इस प्रकार ‘सोविएत राज्यपद्धति’ की शुरूआती कागज़ी रूपरेखा है। … लोकमत की उड़ान कितनी उंचाई पर है, इसका आकलन करने के लिए हम लोगों इस घोषणापत्रा को यहां प्रकाशित किया है।….पुराने ‘रामराज’ का विलोपन और नए ‘सोविएट राज’ के उदय के बीच के अन्तराल में हिन्दोस्तां की जनता में अभी बहुत जाग्रति और वैचारिक क्रांति की जरूरत है। ..
/प्रस्तुत अंश ‘डा बाबासाहेब अम्बेडकर, एम ए, पीएचडी, डीएससी, बार-एट-लॉ’ की अगुआई में निकलनेवाले पाक्षिक अख़बार ‘जनता’ The People ’ से लिया गया है। मालूम हो कि जनता पाक्षिक का पहला अंक 24 नवम्बर 1930 को प्रकाशित हुआ था। लगातार बाईस अंकों के प्रकाशन के बाद 23 वां और 24 वां अंक ‘संयुक्तांक’ के तौर पर प्रकाशित हुआ। बाद में ‘जनता’ को साप्ताहिक मंे रूपांतरित किया गया। ‘मूकनायक,’ ‘बहिष्क्रत भारत’, ‘समता’ ऐसी यात्रा पूरी करके अम्बेडकरी अख़बारी आन्दोलन की यात्रा ‘जनता’ तक पहुंची थी।/
परिशिष्ट 2
समसामयिक विचार
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा अम्बेडकर
/जनता, 13 अप्रैल 1931/
तीन शिकार
 
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू इन तीनों को अन्ततः फांसी पर लटका दिया गया। इन तीनों पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने सान्डर्स नामक अंग्रेजी अफसर और चमनसिंह नामक सिख पुलिस अधिकारी की लाहौर में हत्या की। इसके अलावा बनारस में किसी पुलिस अधिकारी की हत्या का आरोप, असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप और मौलमिया नामक गांव में एक मकान पर डकैती डाल कर वहां लूटपाट एवं मकानमालिक की हत्या करने जैसे तीन चार आरोप भी उन पर लगे। इनमें से असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप भगतसिंह ने खुद कबूल किया था और इसके लिए उसे और बटुकेश्वर दत्त नामक उनके एक सहायक दोस्त को उमर कैद के तौर पर काला पानी की सज़ा सुनायी गयी। सांडर्स की हत्या भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने की ऐसी स्वीकारोक्ति जयगोपाल नामक भगतसिंह के दूसरे सहयोगी ने भी की थी और उसी बुनियाद पर सरकार ने भगतसिंह के खिलाफ मुकदमा कायम किया था। इस मुकदमें में तीनों ने भाग नहीं लिया था। हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के स्पेशल ट्रीब्युनल का गठन करके  उनके सामने यह मुकदमा चला और उन तीनों ने इन्हें दोषी घोषित किया और उन्हें फांसी की सज़ा सुना दी। इस सज़ा पर अमल न हो और फांसी के बजाय उन्हें अधिक से अधिक काला पानी की सज़ा सुनायी जाए ऐसी गुजारिश के साथ भगतसिंह के पिता ने राजा और वायसराय के यहां दरखास्त भी की। अनेक बड़े बड़े नेताओं ने और तमाम अन्य लोगों ने भगतसिंह को इस तरह सज़ा न दी जाए इसे लेकर सरकार से अपील भी की। गांधीजी और लॉर्ड इरविन के बीच चली आपसी चर्चाओं में भी भगतसिंह की फांसी की सज़ा का मसला अवश्य उठा होगा और लार्ड इरविन ने भले ही मैं भगतसिंह की जान बचाउंगा ऐसा ठोस वायदा गांधीजी से न किया हो, मगर लार्ड इरविन इस सन्दर्भ में पूरी कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों के दायरे में इन तीनों की जान बचाएंगे ऐसी उम्मीद गांधीजी के भाषण से पैदा हुई थी। मगर यह सभी उम्मीदें, अनुमान और गुजारिशें गलत साबित हुई और बीते 23 मार्च को शाम 7 बजे इन तीनांे को लाहौर सेन्ट्रल  जेल में फांसी दी गयी। ‘ हमारी जान बकश दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी; हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगतसिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं। मगर उनकी इस आखरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया। न्यायाधीश के आदेश पर हुबहू अमल किया गया ! ‘अंतिम सांस तक फांसी पर लटका दें’ यही निर्णय जज ने सुनाया था। अगर गोलियों से उड़ा दिया जाता तो इस निर्णय पर शाब्दिक अमल नहीं माना जाता। न्यायदेवता के निर्णय पर बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में हुबहू अमल किया गया और उसके कथनानुसार ही इन तीनों को शिकार बनाया गया।
यह बलिदान किसके लिए 
अगर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है – न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और सरकार की इसी ‘न्यायप्रियता’ के चलते लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी समझी जा सकती है। क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्यायदेवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी का भी यकीन नहीं है। खुद सरकार भी इसी समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है। फिर बाकियों को भी इसी  न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है ? न्यायदेवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कान्जर्वेटिव /राजनीतिक रूढिवादी/ पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ साथ तमाम दुनिया भी जानती है। गांधी जैसे राजनीतिक बन्दियों को बिनाशर्त रिहा करने और गांधी खेमे से समझौता करने से ब्रिटिश साम्राज्य की बदनामी हुई है और जिसके लिए लेबर पार्टी की मौजूदा सरकार और उनके इशारे पर चलनेवाला वायसरॉय है, ऐसा शोरगुल विलायत के राजनीतिक रूढिवादी  पार्टी के कुछ कटटरपंथी नेताओं ने चला रखा है। और ऐसे समय में एक अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी की हत्या करने का आरोप जिस पर लगा हो और वह साबित भी हो चुका हो, ऐसे राजनीतिक क्रांतिकारी अपराधी को अगर इरविन ने मुआफी दी होती तो इन राजनीतिक रूढिवादियों के हाथों बना बनाया मुददा मिल जाता। पहले से ही ब्रिेटेन में लेबर पार्टी की सरकार डांवाडोल चल रही है और उसी परिस्थिति में अगर यह मसला राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता कि वह अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी के हिन्दुस्थानी हत्यारे को भी माफ करती है तो यह अच्छा बहाना वहां के राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता और इंग्लैण्ड का लोकमत लेबर पार्टी के खिलाफ बनाने में उन्हें सहूलियत प्रदान होती। इस संकट से बचने के लिए और रूढिवादियों के गुस्से की आग न भड़के इसलिए फांसी की इन सज़ा को अंजाम दिया गया है। यह कदम ब्रिटिश न्यायपालिका को खुश करने के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश लोकमत को खुश करने के लिए उठाया गया है। अगर निजी तौर पर यह मामला लार्ड इरविन की पसंदगी -नापसंदगी से जुड़ा होता तो उन्होंने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके फांसी की सज़ा रदद करके उसके स्थान पर उमर कैद की सज़ा भगत सिंह आदि को सुनायी होती। विलायत की लेबर पार्टी के मंत्रिमंडल ने भी लार्ड इरविन को इसके लिए समर्थन प्रदान किया होता, गांधी इरविन करार के बहाने से इसे अंजाम देकर भारत के जनमत को राजी करना जरूरी था। जाते जाते लार्ड इरविन भी जनता का दिल जीत लेते। मगर इंग्लेण्ड की अपने रूढिवादी बिरादरों और यहां के उसी मनोव्रत्ती की नौकरशाही के गुस्से का वह शिकार होते। इसलिए जनमत की पर्वा किए बगैर लार्ड इरविन की सरकार ने भगतसिंह आदि को फांसी पर चढ़ा दिया और वह भी कराची कांग्रेस के तीन चार दिन पहले। गांधी-इरविन करार को मटियामेट करने व समझौते की गांधी की कोशिशों को विफल करने के लिए भगतसिंह को फांसी और फांसी के लिए मुकरर किया समय , यह दोनों बातें काफी थी। अगर इस समझौते को समाप्त करने का ही इरादा लार्ड इरविन सरकार का था तो इस कार्रवाई के अलावा और कोई मजबूत मसला उसे ढंूढने से भी नहीं मिलता। इस नज़रिये से भी देखें तो गांधीजी के कथनानुसार सरकार ने यह बड़ी भूल /ब्लंडर/ की है, यह कहना अनुचित नहीं होगा। लुब्बेलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इरविन समझौते का क्या होगा इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढिवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगतसिंह आदि को बली चढ़ाया गया यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए। ..
( Published as a booklet by ISD, Institute for Social Democracy, Delhi, 2017)