गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर में हुआ था

जन्मशती विशेष: क्लास खत्म होने के बाद भी पढ़ाते रहते थे मुक्तिबोध

आधुनिक हिंदी में गहन वैचारिक रचनाओं के लिए विख्यात मुक्तिबोध आम जीवन में एक बहुत ही सरल व्यक्ति और ‘स्नेहिल पिता’ थे और ऐसे प्रतिबद्ध अध्यापक थे जो कक्षा खत्म होने की घंटी बजने के बावजूद बच्चों को पढ़ाते रहते थे.

मुक्तिबोध के जन्म शताब्दी वर्ष की समाप्ति पर उनके पुत्र रमेश मुक्तिबोध ने ‘भाषा’ के साथ स्मृतियों को साझा करते हुए बताया, ‘पिता के रूप में उन्होंने मुक्तिबोध को सदैव एक निर्मल स्वभाव वाले व्यक्ति के रूप में पाया. अपने को उन्होंने कभी सर्वेसर्वा या ऐसा नहीं माना कि वह ही सभी कुछ जानते हैं. कविता में वह कहते हैं, ‘मैं ब्रह्मराक्षस सृजन सेतु बनना चाहता हूं.’ वह जिंदगी भर सीखना और पढ़ना चाहते थे. संक्षेप में वह एक स्नेहिल पिता थे.

गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर में हुआ था. मुक्तिबोध के रचनाकर्म में चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी :एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र (आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएं और एक साहित्यिक की डायरी (आलोचनात्मक कृतियां) शामिल है.

कभी कोई क्लास नहीं छोड़ी

रमेश ने बताया कि 1958 में राजनांदगांव आने के बाद मुक्तिबोध दिग्विजय महाविद्यालय में साहित्य पढ़ाते थे, वहीं वह विज्ञान के छात्र थे. उनके बारे में बताया जाता है कि मुक्तिबोध ने कभी अपनी कोई क्लास नहीं छोड़ी. पढ़ाते समय उन्हें किसी प्रकार का विघ्न बर्दाश्त नहीं था.

उन्होंने ने बताया, ‘वह पढ़ाते-पढ़ाते इतने तल्लीन हो जाते कि कक्षा खत्म होने की घंटी कब बजी उनको यह भी नहीं पता चल पता था. दूसरी कक्षा लेने के लिए जब अन्य अध्यापक आता तो वह पढ़ाना बंद करते. उस जमाने में भी दो कक्षाओं के बीच पांच मिनट का अंतराल होता था और वह उस दौरान भी पढ़ाते रहते थे.’

पिता के संघर्षपूर्ण जीवन पर रमेश ने बताया, ‘उन्होंने जो रास्ता चुना था, वह खुद ही चुना था. उनके साहित्य और उनकी बातों से यही पता चलता है. भारतीय मध्यवर्ग की जो स्थिति बनती है, वह आई और उन्होंने इससे जमकर संघर्ष किया. कभी समझौता नहीं किया.’

अब आठ खंडों में आएगी मुक्तिबोध की रचनावली

मुक्तिबोध की अप्रकाशित या अधूरी रचनाओं के बारे में रमेश ने बताया, ‘मैंने उनकी रचनाओं के पुलिंदे से ऐसी सभी रचनाओं को निकाला. उन सभी रचनाओं को संकलित कर उनकी समग्र रचनावली में डाला गया है. अभी तक मुक्तिबोध की समग्र रचनावली छह खंडों में आई थी. किंतु इन अप्रकाशित रचनाओं को सम्मिलित कर उनकी समग्र रचनावली अब आठ खंडों में आने वाली है.’

11 सितंबर 1964 को मुक्तिबोध के निधन के वक्त 23 बरस के रहे रमेश ने बताया कि 1960 में मुक्तिबोध से ‘भारतीय इतिहास और संस्कृति’ प्रकाशक ने यह कहकर लिखवाई थी कि यह पाठ्यक्रम में लगेगी. प्रकाशकों की आपसी लड़ाई के कारण इस पुस्तक पर मुकदमा किया गया कि इसमें धार्मिक महापुरुषों के बारे में गलत ढंग से लिखा गया है. यह मामला जबलपुर हाई कोर्ट में चला. अदालत ने इस पुस्तक के कुछ अंश निकालने को कहा.

रमेश ने कहा, ‘इससे मुक्तिबोध को बहुत झटका लगा. उनका मानना था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है और सरकार लेखन पर प्रतिबंध लगाना चाहती है.’ उन्होंने बताया कि अब यह पूरी पुस्तक नए सिरे से प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध है.

मुक्तिबोध की प्रमुख रचनाएं

कविता संग्रह – चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल, कहानी संग्रह- काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी, आलोचना- कामायनी – एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी रचनावली- मुक्तिबोध रचनावली (6 खंडों में) अँधेरे में (कविता) एक स्वप्न कथा, एक अंतःकथा, जब प्रश्न चिन्ह बौखला उठा, ब्रह्मराक्षस, भूल-गलती, मैं उनका ही होता, मैं तुम लोगों से दूर हूं, मुझे पुकारती हुई पुकार, मुझे मालूम नहीं, मुझे याद आते हैं, मेरे लोग , शून्य, एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन, दिमागी गुहांधकार का औरांग उटांग, मुझे कदम-कदम पर, जब दुपहरी जिंदगी पर।

http://hindi.firstpost.com/special/100th-birth-anniversary-of-hindi-poet-and-writer-gajanan-madhav-muktibodh-even-after-the-class-was-over-he-used-to-teach-pr-66386.html

  • Nov 13 2017 2:10PM

मुक्तिबोध की जयंती पर पढ़ें उनके पुत्र दिवाकर मुक्तिबोध का एक संस्मरण

मुक्तिबोध की जयंती पर पढ़ें उनके पुत्र दिवाकर मुक्तिबोध का एक संस्मरण

आज हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मदिन है. उन्हें आधुनिक हिंदी का शीर्ष कवि माना जाता है. उन्होंने हिंदी की कविता में प्रयोगधर्मिता को बढ़ावा दिया. मुक्तिबोध की कविताओं में मनुष्य का संघर्ष उसकी पहचान प्रमुखता से सामने आती हैं. उनकी कविताओं में प्रखर राजनैतिक चेतना भी नजर आती है. लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाये कि उनके जीवित रहते उनका कोई भी स्वतंत्र काव्य संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ. उनकी मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशि‍त की थी. उनके पुत्र दिवाकर मुक्तिबोध जो पेशे से पत्रकार हैं ने पिछले दिनों उनपर एक फेसबुक पोस्ट लिखा था, पढ़ें उनका यह ओलख:-

 
– दिवाकर मुक्तिबोध-
मुक्तिबोध जन्मशताब्दी वर्ष की शुरुआत 13 नवंबर 2016 से हुई थी. एक बेटे के तौर पर बचपन एवं किशोर वय की ओर बढ़ते हुए हमें उनके सान्निध्य के करीब 10-12 वर्ष ही मिले. जन्म के बाद शुरु के 5-6 साल आप छोड़ दीजिए क्योंकि यादों के कुछ पल, कुछ घटनाएं ही आपके जेहन में रहती है जो जीवन भर साथ चलती हैं. ऐसे ही चंद प्रसंगों पर आधारित यह संस्मरण
“पता नहीं कब कौन कहां, किस ओर मिले,
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले,
यह राह जिंदगी की, जिससे जिस जगह मिले।”
कविता की ये वे पंक्तियां हैं जिन्हें मैं बचपन में अक्सर सुना करता था, पाठ करते हुए मुक्तिबोधजी से. स्व. श्री गजानन माधव मुक्तिबोध मेरे पिता, जिन्हें हम सभी, घरवाले दादा-दादी भी बाबू साहेब के नाम से संबोधित करते थे. मैं उनका श्रोता उस दौर में बना जब मुझे अस्थमा हुआ.दमे के शिकार बेटे को गोद में लेकर हालांकि वह इतना बड़ा हो गया था कि गोद में नहीं समा सकता था, थपकियां देकर वे जो कविताएं सुनाया करते थे, उनमें “”पता नहीं” शीर्षक की इस कविता की प्रारंभिक लाइनें मेरे दिमाग में अभी भी कौधंती हैं.वह शायद इसलिए कि मैंने उसे उनके स्वर में बार-बार सुना है.जिस लयबद्ध तरीके से वे इसे सुनाया करते थे, कि मुझे थोड़ी ही देर में नींद आ जाती थी.अस्थमा एक ऐसा रोग है जो आदमी को चैन से सोने भी नहीं देता.धौंकनी की तरह बेचैनी होती सांसें ऊपर-नीचे होती रहती हैं जिसकी वजह से सीधा लेटा नहीं जा सकता.दो-तीन तकियों के सहारे आधा धड़ ऊपर रखकर-एक तरह से बैठे-बैठे रातें काटनी पड़ती हैं.10-11 साल की उम्र में मुझे दमे ने कब कब पकड़ा, याद नहीं, अलबत्ता पिताजी की बड़ी चिंता मुझे लेकर थी.इसलिए जब अधलेटे बेटे की हालत उनसे देखी नहीं जाती थी, तब वे उसे गोद में लेकर सस्वर कविताओं का पाठ करते थे, आगे पीछे अपने शरीर को झुलाते हुए ताकि मुझे नींद आ जाए और वह आ भी जाती थी.
बाबू साहेब की उर्दू शायरी में भी गहरी दिलचस्पी थी.उस दौर के प्रख्यात उर्दू शायरों की किताबें उनकी लाइब्रेरी में थी, जिन्हें वे बार-बार पढ़ा करते थे. जिन पंक्तियों को मैंने अक्सर उन्हें गुनगुनाते हुए सुना है वह है – “”अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ.” मुझे पता नहीं था कि वे किस शायर की लिखी कविता हैं पर मैं देखता था, उन्हें गुनगुनाते समय पिताजी बहुत प्रसन्न मुद्रा में रहते थे.चक्करदार सीढ़़ी वाले हालनुमा कमरे में चक्कर लगाते हुए वे इन पंक्तियों को बार-बार दोहराते थे. मैं समझता हूँ संतोष और खुशी के जितने भी लम्हें उनकी जिंदगी में थे, कविताएँ उन्हें ताकत देती थीं.उनकी उम्र कुछ भी नहीं थी, युवा थे, महज 40-42 के लेकिन “अभी तो मैं जवान हूं’ गुनगुना कर वे बढ़ती उम्र के अहसास को शायद कम करने की कोशिश करते थे. संभवत: आशंकाग्रस्त थे.फिर भी इन पंक्तियों को गाकर उनके चेहरे पर जो खुशी झलकती थी, वह उन्हें संतुष्टि देती थी, आशंकाओं से मुक्त करती थी.लेकिन हकीकतन ऐसा हुआ कहाँ?

वे अपने जीवन के प्रति कितने आशंकाग्रस्त थे, इसकी झलक 5 फरवरी 1964 (मुक्तिबोध रचनावली खंड-6 – पृष्ठ 368) को  श्रीकांत वर्मा को लिखे गए पत्र से मिलती है.एक स्थान पर उन्होंने लिखा है – “जबलपुर से लौटने पर मैं बहुत बीमार पड़ गया.चलने में, सोने में, यहां तक कि लिखने में भी चक्कर आते रहते हैं, खूब चक्कर आते हैं.इस कारण छोटी-मोटी दुर्घटनाओं का भी शिकार होता रहा.अपने स्वास्थ्य के संबंध में भयानक और विकृत सपने आते रहते हैं.बहुत दुर्भाग्यपूर्ण अपने को महसूस करता हूं.’ दुर्भाग्य ने वाकई उनका पीछा नहीं छोड़ा.47 की उम्र वे इस दुनिया से चले गए.11 सितंबर 1964.आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस, नई दिल्ली.समय रात्रि लगभग 8 बजे.

अपनी याद में पिताजी को बीमार पड़ते मैंने कभी नहीं देखा.बचपन की यादें यानी नागपुर में सन् 1954 -55, राजनांदगांव में 1964, उनकी मृत्यु पर्यंत तक.जनवरी 1964 में पक्षाघात के बाद वे कभी नहीं उठ पाये. ऊंचे-पूरे, अच्छी पर्सनालिटी के मालिक थे.उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता था कि कोई बीमारी उन्हें तोड़ सकती है.लेकिन हाथ-पैर उनके दर्द देते थे.कॉलेज से लौटने के बाद या निरंतर लेखन से आई शारीरिक शिथिलता दूर करने के लिए वे हमें हाथ-पैर दबाने के लिए कहते थे.यह काम मालिश जैसा नहीं था यानी यहां हाथों की उंगलियों का कोई काम नहीं था.वे पेट के बल लेट जाते थे और हमें ऊपर से नीचे तक, पैरों से लेकर गर्दन तक पांव से दबाने कहते थे.हम दीवार के सहारे एक तरह से उनकी पीठ व कमर पर नाचते थे.यह हमारे लिए खेल था किन्तु उन्हें इससे आराम मिलता था.कभी-कभी वे पेट भी इसी तरह हमसे दबाया करते थे.इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हें कितनी तकलीफ थी पर न तो वे डॉक्टर के पास जाते थे और न दवाई लेते थे.इसलिए उनकी शारीरिक पीड़ाओं का हमें अहसास नहीं था.
बाबू साहेब को हमने गुस्से में कभी नहीं देखा.दिन-रात व्यस्तता के चलते हमारी पढ़ाई के बारे में पूछताछ करने या हमें पढ़ाने के लिए वक्त निकालना उनके लिए बहुत कठिन था.लेकिन वसंतपुर के मकान में रात्रि में कंदील की रोशनी में जब कभी वे हमें किताब कापी लेकर आने के लिए कहते थे, तो हमारी रूह कांप जाती थी.हालांकि वे हम पर कभी नाराज नहीं होते थे और न ही डांटते-फटकारते थे.हम पढ़ते कम थे पर उन्हें एतराज नहीं था.मैं और मेरी बड़ी बहन उषा नगर पालिका की प्राथमिक शाला के विद्यार्थी थे.पढ़ाई लिखाई में मैं सामान्य था लेकिन उषा से कुछ बेहतर.इसलिए पिताजी के सवालों का टूटा-फूटा सा जवाब मैं दे देता था.इससे उन्हें संतोष हो जाता था किन्तु उषा मूक बनी रहती थी इसलिए वह उनके गुस्से का शिकार बन जाती थी.उनका रौद्र रुप देखकर हम दोनों सहम जाते थे.यद्यपि गुस्सा शांत हो जाने के बाद वे हमें दुलारते भी थे.यह अच्छा था कि पढ़ाई-लिखाई का वह दौर न ज्यादा समय के लिए चलता था और न ज्यादा दिन चलता था.दिग्विजय कॉलेज परिसर वाले मकान में रहने के लिए आने के बाद वह खत्म हो गया.वक्त ने उन्हें वक्त नहीं दिया.वे बीमार पड़ गए.
राजनांदगाँव के दिग्विजय कॉलेज जो अब शासकीय है, में आप जाएं तो उसके सौंदर्य को देखकर आप अभिभूत हो जाएंगे.पिछले सिंह द्वार का हमारा वह मकान, दोनों तरफ बड़े तालाब, रानी सागर, बूढ़ासागर, पिताजी की मृत्यु के बाद उनकी कीर्ति का यशोगान करते हुए नजर आएंगे.इसमें संदेह नहीं कि राज्य सरकार ने उसके सौंदर्य को निखारा है, समूचे परिसर को स्मारक में तब्दील किया है, प्रतिमाएं स्थापित की हैं, परिसर को हरा-भरा कर दिया है, एक नया भवन भी बनाया है, इस सोच के साथ कि देश-प्रदेश के लेखक, विचारक इस भवन में सरकार के मेहमान बनकर रहेंगे और रचनात्मक कार्य करेंगे.सिंह द्वार के ऊपर मंजिल पर जहां हम रहते थे, पिताजी की स्मृतियों को संजोया गया है, उनकी लेखन सामग्री, उनकी कुछ किताबें, उनके कुछ वस्त्र, कुछ पांडुलिपियां प्रदर्शित की गई हैं.

दीवारों पर दुलर्भ फोटोग्राफ थे जो उनकी जीवन यात्रा के कुछ पलों के साक्षी थे.किन्तु सीलन आने की वजह से वे निकाल दिए गए.स्मृतियों का यह झरोखा उस हाल तक सीमित हैं जहां वे चक्करदार सीढ़ियां हैं जो उनकी प्रख्यात कविता “अंधेरे में’ जीवन की रहस्यात्मकता की प्रतीक बनी है.बगल के दो अन्य कमरों में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है और डा. बलदेव प्रसाद मिश्र. इसलिए हमारे उस मकान को राज्य सरकार द्वारा त्रिवेणी नाम दिया गया है.कभी खंडहर रहे इस भवन में जिसे कॉलेज के प्राचार्य स्व. किशोरीलाल शुक्ल के निर्देश पर रहने लायक बना दिया गया था, हम रहते थे.बख्शीजी या मिश्रजी नहीं.यह कोई कीर्ति की प्रतिस्पर्धा नहीं थी पर ज्यादा अच्छा होता यदि इस मकान एवं परिसर में सिर्फ पिताजी की स्मृतियों को संजोया जाता.यह अलग बात है कि हिन्दी साहित्य जगत में इस “त्रिवेणी’ को मुक्तिबोध स्मारक के रुप में ही जाना जाता है.बहरहाल राज्य सरकार ने एक दशक पूर्व परिसर की कायाकल्प करके साहित्य जगत में बड़ी वाहवाही लूट ली थी, बड़ी सराहना मिली थी, किंतु उसके बाद उसने पलटकर नहीं देखा.साहित्य – सृजन के लिए बना भवन लगभग एक दशक से सृजनात्मकता की बाट जोह रहा है.अब तक उसे एक भी लेखक नहीं मिला जो उसकी उदासी दूर कर सकें. सरकार ने अपने कारणों से जिसे राजनीतिक भी कह सकते हैं और सांस्कृतिक सोच का अभाव भी, इससे पल्ला झाड़ लिया है. राज्य की भाजपा सरकार के साथ ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं. लेकिन इसी सरकार ने वर्ष 2014 में राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव का आयोजन करके देशव्यापी सराहना अर्जित की थी.फिर उसे इसकी दुबारा जरूरत नहीं पड़ी. राजनांदगाँव में मुक्तिबोध स्मारक के साथ भी कुछ ऐसा ही है.

बहरहाल सन् 1960 में जब हम वसंतपुर से दिग्विजय कॉलेज में एरिया में रहने गए थे, तब भी उसका सौंदर्य अद्भुत था, हालांकि वह खुरदुरा था.शहर में रहते हुए गांव जैसा अहसास.सिंह द्वार, आम रास्ता था.सुबह-शाम खुलता-बंद होता.दरवाजों पर बड़ी-बड़ी कीलें ठुकी हुई थीं जो राजशाही की प्रतीक थीं.वे अभी भी वैसी ही हैं.इस द्वार से सबसे ज्यादा आते-जाते थे वे धोबी जिनके लिए दोनों तालाबों के घाट ज्यादा मुफीद थे.धोबीघाट पर कपड़े पटकने की ध्वनि में भी एक अलग तरह की मिठास थी.मकान की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से टकराती ध्वनियां मधुर संगीत का अहसास कराती थी.पिताजी के जीवन के ये सबसे अच्छे दिन थे.राजनांदगाँव का वसंतपुर व दिग्विजय कॉलेज का हमारा किराए का मकान.
जहां तक मुझे स्मरण है, बाबू साहेब ने नागपुर आकाशवाणी की नौकरी छोडऩे के बाद, “नया खून’ में काम किया.यह उनकी पत्रकारिता का दौर था जिसमें उन्होंने सम-सामयिक विषयों जिसमें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी शामिल है, काफी कुछ लिखा.उन दिनों के नागपुर का भी उन्होंने बड़ा भावनात्मक चित्र खींचा.माँ से मैंने सुना था “नया खून’ में रहते हुए उनके लिए दो नौकरियों की व्यवस्था हुई थी.दिल्ली श्री श्रीकांत वर्मा ने प्रयत्न किए थे और राजनांदगाँव से श्री शरद कोठारी ने.अब समस्या दो शहरों में से एक को चुनने की थी.अंतत: बाबू साहेब ने महानगर की बजाए कस्बाई राजनांदगाँव को चुना.दिग्विजय कॉलेज जो उन दिनों निजी था, में उन्हें प्राध्यापकी मिली.यह एकदम सही निर्णय था क्योंकि जो शांतता और सौहार्दता इस शहर थी, वह उन्हें संभवत: दिल्ली में नहीं मिल सकती थी.राजनांदगाँव उनके लेखन एवं जीवन की दृष्टि से इसीलिए महत्वपूर्ण रहा.
वे कितने पारिवारिक थे, कितने संवेदनशील यह बहुतेरी घटनाओं से जाहिर है.एक प्रसंग है – वसंतपुर में हमारे मकान के सामने आगे बड़ा था मैदान था जहां हम प्राय: रोज पतंग उड़ाया करते थे.एक दिन पतंग उड़ाते- उड़ाते मैं पीछे हटता गया और अंत में मेरा पैर एक बड़े पत्थर से जा टकराया.हड्डी में चोट आई.कुछ दिनों में वह बहुत सूज गया और उसमें मवाद आ गया.सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ने कहा – चीरा लगाना पड़ेगा.दर्द के उन दिनों में पिताजी हर पल मेरे साथ रहे.अस्पताल लाना-ले-जाना, पास में बैठना, पुचकारना और आखिर में सरकारी अस्पताल में चीरा लगाते समय मुझे पकड़कर रखना.उन दिनों ऐसी छोटी-मोटी सर्जरी पर एनेस्थिया नहीं दिया जाता था.छोटे बच्चे इंजेक्शन से वैसे भी घबराते है और ऊपर से चीरा.भयानक क्षण थे.मेरी दर्द भरी चीखें और मजबूती से मेरे पैर पकड़े हुए घबराए से पिताजी.उनका कांपता चेहरा, वह दृश्य अभी भी आंखों के सामने हैं.

मुझे अस्थमा था.जब यह महसूस हुआ कि घर के दोनों तरफ के तालाब और उमस भरा वातावरण इसकी एक वजह है तो मेरे रहने की अलग व्यवस्था की गयी. मां के साथ एवं बड़े भैया के साथ.गर्मी के दिन थे.शहर से बाहर जैन स्कूल में छुट्टियां थी इसलिए स्कूल के एक कमरे में मैं माँ के साथ रहा.इसके बाद मेरे लिए शहर के नजदीक लेबर कॉलोनी में एक कमरे का मकान किराये पर लिया गया जहाँ मैं भैया के साथ रहने लगा.पिताजी रोज शाम को पैदल मिलने आया करते थे, किसी नजदीकी मित्र के साथ.मेरे लिए उनकी चिंता गहन थी.अभावों के बावजूद उन्होंने हमें किसी बात की कमी नहीं होने दी.समय के साथ मैं तो ठीक हो गया पर वे बीमार पड़ गए.ऐसे पड़ गए कि फिर बिस्तर से उठ नहीं पाये.
यकीनन राजनांदगाँव उनकी सृजनात्मकता का स्वर्णिम काल था.जीवन में कुछ निश्चिंतता थी, कुछ सुख थे पर दुर्भाग्य से यह समय अत्यल्प रहा.लेकिन मात्र 6-7 साल.इस अवधि में उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखन यही हुआ.वे छत्तीसगढ़ के प्रति कितने कृतज्ञ थे, इसका प्रमाण श्री श्रीकांत वर्मा को लिखे गए उनके पत्र से मिलता है – 14 नवंबर 1963 के पत्र में उन्होंने लिखा है -“उस छत्तीसगढ़ का मैं ऋणी हूँ जिसने मुझे और मेरे बाल बच्चों को शांतिपूर्वक जीने का क्षेत्र दिया.उस छत्तीसगढ़ में जहां मुझे मेरे प्यारे छोटे-छोटे लोग मिले, जिन्होंने मुझे बाहों में समेट लिया और बड़े भी मिले, जिन्होंने मुझे सम्मान और सत्कार प्रदान करके, संकटों से बचाया”.