–कँवल भारती 

ये घर से बुलाकर
नहीं कहते कि कपड़े उतारो,
नहाओ, और गैस चेम्बर में जाओ ।
ये घर से बुलाकर, सड़क पर, सब्जी खरीदते, कहीं भी सीधे गोली मार देते हैं ।
अपने विरोधियों को मारकर जश्न मनाना इनकी सांस्कृतिक परम्परा है ।
इन्होंने सबको मारकर जश्न मनाया ,
ताड़का से गौरी लंकेश तक
शम्बूक से महिषासुर और मायानन्द तक,
दाभोलकर से पंसारी और कलबुर्गी तक ।
दशहरा, दिवाली, होली, नवरात्र,
सब हत्याओं के जश्न ही हैं ।
वैसे तो दुनिया में कोई भी अमर नहीं है,
हत्यारों को भी एक दिन मरना ही है ।
पर मारकर मारने की संस्कृति
संसार की सबसे असभ्य और हत्यारी संस्कृति है ।
कल इस संस्कृति में किसकी बारी होगी,
नहीं कह सकते ।
मेरी भी बारी हो सकती है,
आपकी भी और उनकी भी ।
मैं तो वसीयत करता हूँ कि हिंसा की संस्कृति में
मेरी हत्या के बाद,
मुझे दफनाया जाए
और मेरी कब्र पर लिखा जाए–
‘जहां ली थी मौत के सौदागरों ने एक नर की बलि ।
मैं तो चाहता हूँ कि यह बसीयत
कलम के वे तमाम सिपाही करें,
जो लोकतन्त्र को बचाने के लिए लड़ रहे हैं,
ताकि आने वाले समय का इतिहास
कब्रों को गिनकर उन पर मर्सिया लिख सके,
और दुनिया को बता सके कि
भारत में मौत के सौदागरों ने कितनी नरबलियां ली थीं ।