पूरे देश को गुमराह कर लोगों को आधार कार्ड बनवाने और उसे फोन से जोड़ने के लिए बाध्य कर दिया गया.

Byडॉ. गोपाल कृष्ण0

केन्द्रीय मंत्री के तौर पर रवि शंकर प्रसाद ने 10 अप्रैल, 2017 को राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान कहा कि सरकार नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संख्या को नहीं जोड़ेगी. उनका बयान भरोसे के लायक नहीं है. इसी सरकार ने आधार को स्वैछिक बता कर बाध्यकारी बनाया है. इसी मंत्री ने पूरे देश को गुमराह कर लोगों को आधार को बनवाने और उसे फोन से जोड़ने के लिए बाध्य कर दिया था.

ऐसी सरकार जिसने आधार को गैरजरूरी बता कर देशवासियों से पंजीकरण करवाया और बाद में उसे जरूरी कर दिया उसके किसी भी ऐसे आश्वासन पर कैसे भरोसा किया जा सकता है. जनता इतनी तो समझदार है ही कि वह यह तय कर सके कि कंपनियों के समूह फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों और मंत्री की बातों में से किसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाय. इन्ही कंपनियों के समूहों में वे गुमनाम चंदादाता भी शामिल हैं जो ज्यादा भरोसेमंद हैं क्योंकि उन्हीं के भरोसे सत्तारूढ़ सियासी दलों का कारोबार चलता है. फिक्की और असोचैम की रिपोर्टों से स्पष्ट है कि नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए हैं. वैसे भी ऐसी सरकार जो “स्वैछिक” कह कर लोगों को पंजीकृत करती है और धोखे से उसे “अनिवार्य” कर देती है उसके आश्वासन पर कौन भरोसा कर सकता है.

इस हैरतंगेज सवाल का जवाब कि देशवासियों की पहचान के लिए यूआइडी/संख्या की जरूरत को कब और कैसे स्थापित कर दिया गया, किसी के पास नहीं. पहचान के संबंध में यह 16वां प्रयास है. चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव से पहले यह घोषणा करता है कि यदि किसी के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है तो वे अन्य 14 दस्तावेजों में से किसी का प्रयोग कर सकते हैं. ये वे पहचान के दस्तावेज हैं जिससे देश में प्रजातंत्र एवं संसद को मान्यता मिलती है.

ऐसे में इस 16वें पहचान की कवायद का कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता जिसे लोकशाही में स्वीकार किया जाए. संसद को पेश की गयी अपनी रिपोर्ट में वित्त की संसदीय समिति ने खुलासा किया है कि सरकार ने इस 16वें पहचान के अनुमानित खर्च का पहले हुए पहचान पत्र के प्रयासों से कोई तुलना नहीं की है. देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमेट्रिक-डिजिटल पहलों से जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रहा है. ज्ञात हो कि इस समिति ने सरकार के जवाब के आधार पर यह अनुमान लगाया है कि एक आधार संख्या जारी करने में औसतन 130 रुपए का खर्चा आता है जो देश के प्रत्येक 130 करोड़ लोगों को भुगतान करना पड़ेगा. बायोमेट्रिक यूआईडी नीति को नागरिक जीवन (सिविल लाइफ) के लिए समीचीन बताकर 14 विकासशील देशो में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और विश्व बैंक के जरिये लागू किया जा रहा है. दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागू हो चुका है और नेपाल और बांग्लादेश में भी लागू किया जा रहा है.

भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है. विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, 2009 के औपचारिक निर्माण से अस्तित्व में आई यूआईडी/आधार परियोजना जनवरी 1933 (जब हिटलर सत्तारूढ़ हुआ) से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद के दौर की याद ताजा कर देती है. जिस तरह इंटरनेशनल बिजनेस मशीन्स (आईबीएम) नाम की दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नॉलाजी कम्पनी ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों को हथियाने, उन्हें नारकीय बस्तियों में महदूद कर देने, उन्हें देश से भगाने और आखिरकार उनके सफाए के लिए पंच-कार्ड (कम्प्यूटर का पूर्व रूप) और इन कार्डो के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिये यहूदियों की निशानदेही की, उसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को सम्भव बनाया. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है.

खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज करके, निशानदेही के तर्क को आगे बढ़ाते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री ने 2010-2011 का बजट संसद में पेश करते हुए फर्माया कि यूआईडी परियोजना वित्तीय योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी. जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औजार बदले की भावना से किन्हीं खास धर्मों, जातियों, क्षेत्रों, जातीयताओं या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं.

आश्चर्य है कि आधार परियोजना के प्रमुख यानी वित्त मंत्री ने वित्तीय समावेशन की तो बात की, लेकिन गरीबों के आर्थिक समावेशन की नहीं. भारत में राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन लक्ष्य करके उन तबकों के जनसंहार का कारण बना- 1947 में, 1984 में और सन् 2002 में. अगर एक समग्र अन्तः आनुशासनिक अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे.

भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती. अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि यूआईडी के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ नहीं करेगा? दरअसल यही जनवरी 1933, जनवरी 2009 से सितंबर 2018 तक के निशानदेही के प्रयासों का सफरनामा है. यूआईडी वही सब कुछ दोहराने का मंच है जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ जहां वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम बना.

यूआईडी का नागरिकता से कोई संबंध नहीं है, वह महज निशानदेही का साधन है. इस पृष्ठभूमि में, ब्रिटेन द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय पहचानपत्र योजना को समाप्त करने का निर्णय स्वागत योग्य है क्योंकि यह फैसला नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा करता है. पहचानपत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार अपना राष्ट्रीय पहचानपत्र रजिस्टर बंद कर दिया है.

इसकी आशंका प्रबल है कि आधार जो कि यूआईडी (विशिष्ट पहचान संख्या) का ब्रांड नाम है वही करने जा रही है जो कि हिटलर के सत्तारूढ़ होने से पहले के जर्मन सत्ताधारियों ने किया, अन्यथा यह कैसे सम्भव था कि यहूदी नामों की सूची नाजियों के आने से पहले भी जर्मन सरकार के पास रहा करती थी? नाजियों ने यह सूची आइबीएम कम्पनी से प्राप्त की जो कि जनगणना के व्यवसाय में पहले से थी. यह जनगणना नस्लों के आधार पर भी की गई थी जिसके चलते न केवल यहूदियों की गिनती, बल्कि उनकी निशानदेही सुनिश्चित हो सकी, वाशिंगटन डीसी स्थित अमेरिका के होलोकास्ट म्युजियम (विभीषिका संग्रहालय) में आइबीएम की होलोरिथ डी-11 कार्ड सार्टिग मशीन आज भी प्रदर्शित है जिसके जरिये 1933 की जनगणना में यहूदियों की पहले-पहल निशानदेही की गई थी.

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भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने एक जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्डस कमिटि) का गठन किया. समिति खुलासा करती है कि जैवमापन सेवाओं के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा. यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को परिभाषित नहीं किया गया है. जैवमापन मानक समिति ने यह संस्तुति की है कि जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए. समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय निधि अर्थात ‘धन’ बताती है.

यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा नहीं जा सकता. ऐसे समय में जब बायोमेट्रिक आधार और कंपनी कानून मामले में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच खिचड़ी पकती सी दिख रही है, आधार आधारित केंद्रीकृत ऑनलाइन डेटाबेस से देश के संघीय ढांचे को खतरा पैदा हो गया है. आधार आधारित व्यवस्था के दुरुपयोग की जबरदस्त संभावनाएं हैं और यह आपातकालीन स्थिति तक पैदा कर सकने में सक्षम है. ये देश के संघीय ढांचे का अतिक्रमण करती हैं और राज्यों के अधिकारों को और मौलिक व लोकतान्त्रिक अधिकारों को कम करती हैं.

देश के 28 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से अधिकतर ने यूआईडीएआई के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. राज्यों में वामपंथी पार्टियों की सरकारों ने इस मामले में दोमुहा रवैया अख्तियार कर लिया है. अपने राज्य में वे इसे लागू कर रहे हैं मगर केंद्र में आधार परियोजना में अमेरिकी खुफिया विभाग की संलिप्तता के कारण विरोध कर रहे हैं. क्या उनके हाथ भी ठेके के बंटवारे के कारण बांध गए हैं? कानून के जानकार बताते हैं कि इस समझौते को नहीं मानने से भी राज्य सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कोई कानूनी बाध्यता नहीं है.

पूर्व न्यायाधीश, कानूनविद और शिक्षाविद यह सलाह दे रहे हैं कि यूआईडी योजना से देश के संघीय ढांचे को एवं संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है. राज्य सरकारों, केंद्र के कई विभागों और अन्य संस्थाओं को चाहिए कि यूआईडीएआई के साथ हुए एमओयू की समग्रता में समीक्षा करे और अनजाने में अधिनायकवाद की स्थिति का समर्थन करने से बचें. एक ओर जहां राज्य और उनके नागरिक अपने अधिकारों को लेकर चिंतित हैं और केंद्रीकृत ताकत का विरोध करने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिगामी कनवर्जेंस इकनॉमी पर आधारित डेटाबेस और अनियमित सर्वेलेंस, बायोमेट्रिक व चुनावी तकनीकों पर मोटे तौर पर किसी की नजर नहीं जा रही और उनके खिलाफ आवाज अभी-अभी उठना शुरू हुआ है.

आधार कानून 2016 की धारा 57 कहती है:

“Act not to prevent use of Aadhaar number for other purposes under law”.

इस धारा के प्रावधान में लिखा है कि:

Nothing contained in this Act shall prevent the use of Aadhaar number for establishing the identity of an individual for any purpose, whether by the State or any body corporate or person, pursuant to any law, for the time being in force, or any contract to this effect.

(धारा 57 कहती है कि ‘राज्य या कोई निगम या व्यक्ति’ आधार संख्या का इस्तेमाल ‘किसी भी उद्देश्य के लिये किसी व्यक्ति की पहचान स्थापित करने में कर सकता है.)’

लोक सभा की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इस प्रावधान सहित 59 धाराओं वाले आधार कानून को धन विधेयक के रूप में मुहर लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संविधान पीठ ने दो फैसले दिए हैं. दोनों फैसलों में आधार कानून पर सवाल उठाया गया है. चार जजों ने आधार के बहुत सारे प्रावधानों पर सवाल उठाया है. एक जज ने पूरे आधार कानून को असंवैधानिक बताया है. कोर्ट ने आधार कानून की धारा 57 को खत्म कर दिया है. आधार एक्ट के तहत प्राइवेट कंपनियां 2010 से ही आधार की मांग कर रही थी.

धारा 57 के अनुसार सिर्फ राज्य ही नहीं बल्कि बॉडी कॉरपोरेट या फिर किसी व्यक्ति को चिन्हित करने के लिए आधार संख्या मांगने का अधिकार अब नहीं है. इस प्रावधान के तहत मोबाइल कंपनी, प्राइवेट सर्विस प्रोवाइडर्स के पास वैधानिक सपोर्ट था जिससे वो पहचान के लिए आपका आधार संख्या मांगते थे. ऐसे नाजायज प्रावधान को धन विधेयक का हिस्सा बनाया गया था जिसे लोक सभा और लोक सभा की अध्यक्ष ने कानून बना दिया था.

26 सितंबर, 2018 तक इस प्रावधान के तहत देशवासियों के साथ कानून के नाम पर घोर अन्याय किया गया. इस अन्याय के लिए लोक सभा और लोक सभा की अध्यक्ष को नागरिकों से माफी मांगनी चाहिए. इस प्रावधान से देश हित और नागरिकों के हित के साथ खिलवाड़ हुआ. इसकी सांस्थानिक जिम्मेवारी तय होनी चाहिए. कोर्ट ने आधार संख्या को बैंक खाता नंबर से लिंक करने की अनिर्वाता को भी सुप्रीम कोर्ट ने खत्म कर दिया है. कोर्ट के आदेश के बाद आधार कानून में 2019 में संशोधन कर धारा 57 को हटा दिया गया है.

इस धारा के हटने से पूर्व के समझौते अभी तक निरस्त नहीं हुए हैं. वोटर आईडी आधार का जोड़ उन्हीं समझौतों (ठेकों) कारण सामने आया है. ये समझौते (ठेके) संविधान और कोर्ट के आदेश से ज्यादा बाध्यकारी प्रतीत हो रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट के चार जजों के फैसले में कहा गया है कि आधार कानून धन विधेयक (मनी बिल) है और उन्होने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को सही बताया है. ये चार जज हैं प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए के सीकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविल्कर और न्यायमूर्ति अशोक भूषण. न्यायमूर्ति मिश्रा, सीकरी व भूषण सेवामुक्त हो चुके हैं. गौरतलब है कि इन जजों का भी ये मानना है कि लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को संवैधानिक चुनौती दी जा सकती है.

न्यायमूर्ति डी वाइ चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा है कि वह सरकार की इस दलील से सहमत नहीं है कि आधार कानून धन विधेयक है और उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को गलत बताया है. आधार को किसी भी तरीके से लोकसभा अध्यक्ष को धन विधेयक नहीं बताना चाहिए था क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 110 (धन विधेयक की परिभाषा) की शर्तों को पूरा नहीं करता है. उन्होंने कहा कि ‘धारा 57 के तहत कोई लाभ और सब्सिडी का वितरण नहीं है. मनी बिल या धन विधेयक के तहत राजस्व और खर्च से जुड़े हुए मामले आते हैं. इस पर अंतिम फैसला लोकसभा लेती है.

ऐसे विधेयकों पर राज्य सभा में चर्चा तो हो सकती है लेकिन उसे खारिज नहीं कर सकती. उन्होंने अपने फैसले में कहा कि आधार को साधारण विधेयक की तरह पारित किया जा सकता है. उन्होंने आधार को लागू करने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के साथ हुए विदेशी निजी कंपनियों के करार का हवाला देते हुए कहा कि इन बायोमेट्रिक तकनीकी कंपनियों की सहभागिता से से होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी खतरे और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के हनन को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. इसलिए उन्होने आधार परियोजना और कानून को खारिज कर दिया और इसके जगह पर कोई और वैकल्पिक व्यवस्था करने की अनुसंशा की है.

(लेखक 2010 से आधार संख्या-NPR-वोटर आईडी परियोजना व गुमनाम चंदा विषय पर शोध कर रहे हैं. इस संबंध में संसदीय समिति के समक्ष भी पेश हुए.)

(साभार- जनपथ)