29 दिसंबर 2020

मौजूदा किसान आन्दोलन पर वक्तव्य
रवि सिन्हा

किसानों के इस आन्दोलन को उसके तात्कालिक उद्देश्यों और सम्भावनाओं मात्र के सन्दर्भ में देखें तो भी यह ऐतिहासिक है. अपनी अंतिम और सम्भावित सफलता से स्वतन्त्र इसकी उपलब्धियाँ अभी ही ऐतिहासिक महत्त्व की साबित हो चुकी हैं. लेकिन इस आन्दोलन के अर्थ और इसकी सम्भावनायें और भी बड़ी हैं. भारत की दुर्दशा के इस घोर अँधेरे में, जहाँ अधिनायकवादी फ़ासिस्ट शक्तियों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की सम्भावनााओं को एक के बाद एक कुचल दिया जाता रहा है, यह आन्दोलन एक मशाल बनकर सामने आया है. किसानों से शुरू होकर यह आन्दोलन सिर्फ़ किसानों का नहीं रह गया  है. पंजाब और हरियाणा के किसानों के द्वारा दिल्ली को घेरने से शुरू हुई यह मुहिम अब दिल्ली की सत्ता को घेरने वाली चौतरफ़ा मुहिम का रूप लेती जा रही है. हम किसानों के इस आन्दोलन को सर्वप्रथम इसलिए समर्थन देते हैं और उसमें इस लिये शामिल हैं कि उनकी माँगें जायज़ हैं और इस सरकार द्वारा ज़बरदस्ती लाये गये तीनों क़ानूनों को लेकर उनकी आशंकायें वास्तविक हैं. और हम इस आन्दोलन को इसलिये सलाम करते हैं और इससे प्रेरणा लेते हैं कि यह अँधेरे में रौशनी की मशाल बनकर सामने आया है.

अगर हम आंदोलन की तात्कालिक माँगों और उद्देश्यों की विस्तृत चर्चा यहाँ नहीं करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि इनके जायज़ और ऐतिहासिक महत्त्व के होने में हमें कोई संदेह है. अब यह जगज़ाहिर है कि ये तीनों क़ानून उस शैतानी योजना का हिस्सा हैं जिसके तहत कृषि क्षेत्र को कारपोरेट पूँजी के प्रत्यक्ष आधिपत्य में ले जाने की तैयारी है. यह न केवल किसानों की रही-सही आर्थिक सुरक्षा को समाप्त करेगा, सरकार को उसकी जिम्मेदारी से मुक्त करेगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा राज्य-संचालित मंडियों की व्यवस्था को तोड़ देगा, बल्कि यह पूरे देश की आम जनता की खाद्य-सुरक्षा – जितनी भी है और जैसी भी है – को ख़तरे में डाल देगा. साथ ही ये क़ानून भारत के संघीय ढाँचे के विरुद्ध भी हैं, और केन्द्र द्वारा राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण हैं. यह सब आप सभी को मालूम है और इन कारणों से ही इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ है.

लेकिन जैसा कि मैंने कहा, इस आन्दोलन का महत्त्व अधिक व्यापक और अधिक गहरा है. इसकी सम्भावनायें दूरगामी हैं. इसके राजनैतिक महत्त्व को और इसकी ऐतिहासिक भूमिका को समझा जाना चाहिये और समझाया जाना चाहिये.

आप ग़ौर करेंगे कि पूँजीवादी व्यवस्था के अधीन शासक वर्गों में आम तौर पर एक श्रम-विभाजन होता है. आर्थिक संसाधनों के निजी और संकेद्रित स्वामित्व तथा बाज़ार की व्यवस्था द्वारा समाज पर पूँजी का आर्थिक आधिपत्य सुनिश्चित किया जाता है, तो उसी समाज का राजनैतिक प्रबन्धन लोकतान्त्रिक प्रणाली के द्वारा किया जाता है. इस प्रणाली से शासक वर्गों को लोक-स्वीकार्यता हासिल होती है. इसकी कुछ कीमत उन्हें लोकतान्त्रिक अंकुश के रूप में चुकानी पड़ती है. शासक वर्गों की राजनीति का एक प्रमुख उद्देश्य यह होता है कि लोक-स्वीकार्यता और अंकुश के बीच ऐसा सन्तुलन स्थापित हो जिसमें लोक-स्वीकार्यता बढ़े और अंकुश न्यूनतम हो. आज से पचास साल पहले तक यह सन्तुलन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में प्रकट होता था. कम से कम उन्नत पूंजीवादी देशों में तो ऐसी ही हवा थी. इस संतुलन में आर्थिक मुद्दों और राजनैतिक एजेंडा के बीच बहुत बड़ा गैप नहीं होता था.

Young artists extend support to farmers through paintings

पिछले पचास सालों में दुनिया के पैमाने पर इस संतुलन में बदलाव आया है. आर्थिक मुद्दों को राजनीति के केन्द्र से विस्थापित करने का तरीक़ा निकाला गया है. इसके लिये राजनीति के केन्द्र में पहचान, परंपरा, धर्म, संस्कृति, मिथक, उन्मादी राष्ट्रवाद इत्यादि को स्थापित किया गया है. दुनिया भर में दक्षिणपंथ के उभार के पीछे यह प्रमुख कारण रहा है. पूँजीवादी व्यवस्था को अपने अन्तर्भूत कारणों से पिछले संतुलन में बदलाव की ज़रूरत थी. यह ज़रूरत इस नयी राजनीति ने पूरी की है. इसमें लोक-स्वीकार्यता आर्थिक मुद्दों से इतर कारणों द्वारा हासिल की जाती है. इससे अंकुश वाले पक्ष में भी कमी आती है. जो राजनैतिक शक्तियाँ नग्न रूप में कारपोरेट पूँजी के नौकर की भूमिका में होती हैं और जनता की संपत्ति को, उसके उत्पादन को और उसके आर्थिक-भौतिक जीवन को पूँजी और बाज़ार के हवाले करती जाती हैं उन्हीं को अर्थेतर और वर्गेतर कारणों से जनता का समर्थन भी हासिल होता है.

भारत में यह रणनीति हिन्दुत्व की राजनीति के ज़रिये लागू की गयी है. इसकी विडम्बना यह है कि जो जनता पिसती है वह उसी का समर्थन करती है जिसके द्वारा वह पीसी जाती है. यह तो ठीक है कि ऐसा समर्थन हासिल करने के लिये सटीक मौकों पर दंगे-फ़साद, राष्ट्रवादी उन्माद और सांप्रदायिक-सामुदायिक वैमनस्य का सहारा लिया जाता है. लेकिन प्रश्न तो फिर भी बना रहता है कि ये उपाय कारगर क्यों सिद्ध होते हैं. विडम्बना यह भी है कि जो राजनेता जनता के बीच से उभरने का दावा करते हैं, जिनका बचपन ग़रीबी में बीता होता है, जिनकी पैदाइश पिछड़े वर्गों में हुई होती है और जो चाय बेचकर जीविकोपार्जन की कथायें कह सकते हैं, उनके लिए यह तुलनात्मक रूप में आसान होता है कि वे निर्लज्ज रूप में पूँजी की चाकरी करें और आम जनता को नुक्सान पहुंचायें. कुल मिलाकर हमारे लिये यह सब एक कठिन चुनौती है. जो लोग यह सोचते हैं हम जनता के बीच जाकर आसानी से इन आसुरी और शैतानी शक्तियों का पर्दा-फ़ाश कर देंगे और जनता सच सुनते ही हमारे पक्ष में आ जायेगी, वे इस चुनौती को कम कर के आँक रहे हैं.

इस चुनौती के सामने रखिये तो मौजूदा किसान आन्दोलन का महत्त्व समझ में आता है. अनेक परिस्थितियों का सम्मिलन होता है तब ऐसे मौके सामने आते हैं जब शासक वर्गों के घटाटोप वर्चस्व को चुनौती दी जा सकती है. उस पर भी ऐसे मौकों को वाक़ई फलीभूत करने के लिये कुशल और समझदार नेतृत्व की ज़रूरत होती है. मौजूदा किसान आन्दोलन इन शर्तों पर अभी तक तो खरा उतरता दिखाई देता है. इसे हम सभी की भागीदारी की और ज़बरदस्त समर्थन की ज़रूरत है. ज़रूरत इस बात की भी है कि हम सब राजनैतिक परिदृश्य को और राजनैतिक उद्देश्यों को आँख से ओझल न होने दें.

आन्दोलन के समक्ष चुनौतियाँ और सम्भावित ख़तरे भी मौजूद हैं. सरकार के द्वारा यह कोशिश लगातार बनी हुई है कि आन्दोलन को बदनाम किया जा सके और देश के पैमाने पर जनमत और लोकभावना को उसके विरुद्ध किया जा सके. यह ठीक है कि इस बार सरकार को अपनी साज़िशों में आसानी से सफलता नहीं मिलने वाली है. यह मसला किसानों का है और मेहनतकश लोगों के हर तबके का है. अतः आन्दोलन को आसानी से अलग-थलग नहीं किया जा सकता. ऊपर से किसान संगठनों के नेतृत्व की समझ-बूझ क़ाबिले-तारीफ़ है. लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार के तरकश में तीर बिलकुल नहीं बचे हैं. भले इस बार दंगे-फ़साद या राष्ट्रवादी उन्माद तत्काल कारगर न हो पायें, दूसरे उपाय ज़रूर आजमाए जा सकते हैं. मसलन आने वाले चुनावों की सरगर्मी का इस्तेमाल आन्दोलन पर से देश और दुनिया का ध्यान हटाने के लिए किया जा सकता है.

यह भी ग़ौरतलब है कि जन-आन्दोलन अपने राजनैतिक उद्देश्य हासिल करने में हमेशा कामयाब नहीं हो पाते. राजनैतिक कामयाबी के लिए आवश्यक होता है कि आन्दोलन राजनैतिक उद्देश्यों और निरन्तर बदलती परिस्थितियों के बारे में हमेशा सचेत रहे. दुनिया के पैमाने पर अरब स्प्रिंग जैसे अनेक विशाल जन-आन्दोलनों को हम विफल होते देख चुके हैं. वास्तविक मसलों पर खड़े हुए विशाल आन्दोलनों को भी थकाया जा सकता है, उनमें दरार डाली जा सकती है और उनसे जनता का ध्यान हटाया जा सकता है. यह भी भूलने की बात नहीं है कि जनता ने भयंकर अत्याचार, भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था की सज़ा इस सरकार को देने से इनकार किया है. ताज़ा उदाहरण लॉक-डाउन के समय भयंकर त्रासदी झेलने वाले प्रवासी मज़दूरों का है जिन्होंने सारे संकट झेलने के बाद भी सत्तारूढ़ पार्टी को हाल के चुनावों में सज़ा नहीं दी या उस तरह से नहीं दी जैसी कि अपेक्षा थी.

आन्दोलन के बीचो-बीच होते हुए ये बातें इसलिए आवश्यक हैं कि इनसे आन्दोलन की सफलता-विफलता का प्रश्न जुड़ा हुआ है. पहली बात तो यह कि आन्दोलन राजनैतिक परिस्थितियों को और उनमें निहित ख़तरों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. मसलन पश्चिम बंगाल के तथा अन्य राज्यों के आने वाले चुनाव न केवल आन्दोलन से जनता का ध्यान हटा सकते हैं बल्कि इन चुनावों में केंद्र में सत्तारूढ़ शक्तियों की जीत आन्दोलन को कमज़ोर करने में और अंततः उसे कुचलने में महती भूमिका निभा सकती है. अतः यह आवश्यक है कि आन्दोलन लम्बे समय तक डटा रहे और चुनावों पर भी वांछित प्रभाव डाले. अपने तात्कालिक हितों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी आन्दोलन को राजनैतिक तौर पर कुशल और सचेत होना पड़ेगा. इसके लिए यह भी आवश्यक है कि फ़ासीवाद और सम्प्रदायवाद की विरोधी जनपक्षधर शक्तियाँ भी किसान आंदोलन से सीख लें और राजनैतिक सूझ-बूझ का परिचय  दें.  

अन्त में, बौद्धिक-सांस्कृतिक-सृजनशील लोगों का दायित्व हमेशा की तरह यहाँ भी विशेष बनता है. हमारी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम इस आन्दोलन का, और व्यापक प्रतिरोध आन्दोलन का, उत्साह बढ़ायें, उसमें आशा का संचार करें, लेकिन साथ ही यथार्थ की यथार्थवादी समझ भी बनायें. ये दोनों उद्देश्य परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं. आशा-उत्साह का संचार सच से आँख चुरा कर नहीं हो सकता और एक दूसरे को वही घिसी-पिटी तथाकथित उत्साहजनक बातें सुनाकर भी नहीं हो सकता जिन्हें हम एक दूसरे को हज़ार बार सूना चुके होते हैं. दूसरी तरफ़ सपनों को साकार करने वाली रणनीति के लिये भी यथार्थ की निर्मम यथार्थवादी समझ की आवश्यकता होती है.

मैं यह दुहराये बिना नहीं रह सकता कि यह आन्दोलन भारत के मौजूदा अँधेरे एक मशाल बनकर सामने आया है. मैं एक बार फिर इस गौरवशाली आन्दोलन को सलाम करता हूँ, इसे अपना समर्थन देता हूँ, और तात्कालिक एवं दूरगामी दोनों स्तरों पर इसकी सफलता की कामना करता हूँ.

दिसम्बर 29, 2020                                                                                                     (कॉमरेड रवि सिन्हा,  न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव  [New Socialist Initiative])