
RAIPUR: Representative of BBC hindi in Chhattisgarh Alok Putul received threats during his visit to Bastar. Putul, who left the place leaving his assignment in the middle, is the second scribe from national media who became the victim of non-cooperation of local police in the conflict zone which is on its verge of witnessing another battle against reds.
According to the series of events described by the journo in his report which is already online on BBC Hindi.com, he had been to Bastar on an assignment on February 17. He dropped text message to Bastar IG SRP Kalluri about him visiting the place, already sensitive from past few days.
The correspondent received no reply from the IG and even from the SP Bastar RN Das for two consecutive days. He had reported about the activist turned journalist Malini Subramanyam’s forceful eviction from Bastar apart from his scheduled assignment and failed to get police’s quote.
According to the sources from Bastar, the local police who was not caring about Alok Putul’s arrival suddenly became active after he updated about an alleged encounter in Darbha by the police forces on a WhatsApp group.
“Though no one commented on group, Alok Putul received several calls from police officials who were adamant to know the source of his information in the encounter case which the cops claimed has not happened,” said a local journo from Bastar who doesn’t want to be quoted.
Putul’s report further said that he suddenly received a message from Bastar IG SRP Kalluri (just a day after he inquired about an alleged encounter by police in Darbha). Kalluri’s text stated that Bastar police has the support of local media which is actually nationalist and he would not like to waste his time on biased media from outside Bastar.
‘देशभक्त मीडिया मेरे साथ, तुम पर समय क्यों बर्बाद करूँ’
- 22 फरवरी 2016
“आपकी रिपोर्टिंग निहायत पूर्वाग्रह से ग्रस्त और पक्षपातपूर्ण है. आप जैसे पत्रकारों के साथ अपना समय बर्बाद करने का कोई अर्थ नहीं है. मीडिया का राष्ट्रवादी और देशभक्त तबका कट्टरता से मेरा समर्थन करता है, बेहतर होगा मैं उनके साथ अपना समय गुजारूँ. धन्यवाद.”
बस्तर के आईजी शिवराम प्रसाद कल्लुरी से कई बार संपर्क करने की कोशिशों के जवाब में उन्होंने मुझे यह मैसेज भेजा. इस मैसेज के नीचे उन्होंने बीबीसी हिन्दी की वेबसाइट पर छपी मेरी एक ख़बर भी पेस्ट की थी जिसमें पत्रकार मालिनी सुब्रहमण्यम और कुछ महिला वकीलों को परेशान किए जाने के मुद्दे पर रिपोर्ट थी.
कुछ ही देर बाद लगभग इसी तरह का जवाब बस्तर के एसपी आरएन दास ने भेजा, “आलोक, मेरे पास राष्ट्रहित में करने के लिए बहुत से काम हैं. मेरे पास आप जैसे पत्रकारों के लिए कोई समय नहीं है, जो कि पक्षपातपूर्ण तरीक़े से रिपोर्टिंग करते हैं. मेरे लिए इंतज़ार न करें.”

रविवार को भी बीबीसी संवाददाता वात्सल्य राय ने जब आईजी शिवराम प्रसाद कल्लूरी से बात की तो उनका रवैया बेहद तल्ख रहा था.
मैं शनिवार को रिपोर्टिंग के सिलसिले में जगदलपुर में था.
ये छत्तीसगढ़ का वो इलाक़ा है जहाँ पिछले एक दशक से माओवादियों और सुरक्षाबलों के बीच लगभग युद्ध सा छिड़ा हुआ है और इस संघर्ष की ईमानदारी से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को दोनों पक्षों की ओर से निशाना बनाया जाता रहा है.
एक पत्रकार के तौर पर मैं दोनों पक्षों से बात किए बग़ैर कुछ नहीं लिखता इसलिए मैं बहुत बेताबी से पुलिस अधिकारियों से बात करने की कोशिश कर रहा था.
ये दोनों लिखित संदेश डराने वाले थे क्योंकि इन संदेशों से थोड़ी देर पहले ही एक गांव वाले मुझे बताया था, “आपकी तलाश की जा रही है. कुछ भी हो सकता है.”
इस संदेश के कोई दस मिनट के अंदर बड़े किलेपाल इलाक़े से एक और मैसेज आया- “कुछ लोग आपको तलाशते हुए गाड़ियों में पहुँचे हैं. अपनी सुरक्षा का इंतज़ाम कीजिए.”
बस्तर के हालात देखते हुए ख़ुद को सुरक्षित समझना ग़लत होता क्योंकि इस बार पुलिस और माओवादियों की लड़ाई की ज़द में मैं ख़ुद था.
मैंने सोचा कि जब पुलिस अधिकारी बात करने को तैयार न हों और सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं हो, ऐसे में यहां से सुरक्षित निकलना ही बेहतर है.

जब बीबीसी के दिल्ली कार्यालय से इस मामले में आईजी शिवराम प्रसाद कल्लूरी से संपर्क किया गया तो उन्होंने बीबीसी संवाददाता वात्सल्य राय को पत्रकार मानने से ही इनकार कर दिया और कहा, “मेरे मुताबिक़ पत्रकार वही है जो प्रेस कॉन्फ़्रेंस में आता है, जिसे हम जानते हैं, जिससे हम रोज़ाना बात करते हैं. कोई ऐरा गैरा फ़ोन करके इसी तरह लंबा इंटरव्यू करना चाहता है तो क्या हम कोई संवाद केंद्र चला रहे हैं. फ़ोन रखिए. और अगर आलोक प्रकाश पुतुल की कोई समस्या है तो उनसे मुझे फ़ोन करने को कहें.”
2005 में माओवादियों के ख़िलाफ़ पुलिस के समर्थन से सलवा जुड़ूम नामक अभियान शुरु किया गया था. जिसे पुलिस ख़ुद जनांदोलन कहती थी. इस आंदोलन के बाद अविभाजित दंतेवाड़ा के 644 गांवों को खाली करा दिया गया था और इन गांवों के हज़ारों आदिवासियों को सरकारी राहत शिविरों में रहना पड़ा था.
सलवा जुड़ूम के तहत ग्रामीण युवाओं को हथियार दे दिए गए और उन्हें ‘विशेष पुलिस अधिकारी’ (एसपीओ) का दर्जा. पर इन विशेष पुलिस अधिकारियों पर आदिवासियों की हत्या, बलात्कार, लूट और घरों को जलाने के दर्जनों आरोप लगे तो अंततः सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती के साथ इस आंदोलन को बंद करने के निर्देश राज्य सरकार को दिए.
ऐसे में जब जगदलपुर में कुछ नागरिकों के संगठन सामाजिक एकता मंच की गतिविधियाँ सामने आने लगीं और माओवादियों ने इसे सलवा जुड़ूम-2 का नाम दिया तो मेरी दिलचस्पी बढ़ी.

संगठन के मुख्य कर्ता-धर्ता और भारतीय जनता पार्टी के नेता मनीष पारख रायपुर में थे और उन्होंने फ़ोन पर कहा, “यह समाज के अत्यंत प्रतिष्ठित नागरिकों का मंच है, जिसका उद्देश्य शांतिपूर्ण तरीक़े से शहर के भीतर लोगों में माओवाद के खिलाफ जागृति लाना है”. उन्होंने आश्वासन दिया कि वे बस्तर लौटते ही मुलाकात करेंगे. हालांकि यह मुलाकात नहीं हो पाई.
अधिकांश पत्रकार मानते हैं कि बस्तर में पत्रकारिता दोधारी तलवार की तरह है. पुलिस चाहती है कि वे जो कहें बस उतना ही छपे और माओवादी चाहते हैं कि उनकी हिंसक कार्रवाइयों पर वही सब कुछ छपे, जैसा वो कह-बता रहे हैं. पत्रकारों के पास इस चिंता के कई ठोस कारण और उदाहरण भी हैं.

जैसे बस्तर के एक पत्रकार नेमीचंद जैन को पहले पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में गिरफ़्तार कर जेल में डाला और बाद में माओवादियों ने 2013 में पुलिस का मुख़बिर बता कर नेमीचंद जैन की हत्या कर दी. इसी तरह माओवादियों ने पत्रकार साईं रेड्डी की भी हत्या कर दी थी.
पर छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संजय श्रीवास्तव इस बात से असहमत हैं कि पत्रकारों के लिए राज्य में स्थितियाँ ठीक नहीं हैं. उन्होंने बीबीसी को बताया, “बस्तर में पिछले कई सालों से नक्सलवाद के कारण स्थितियां खराब रही हैं और पुरानी सरकारों ने लगातार इस मामले में तुष्टिकरण का काम किया है. लेकिन राज्य में जब से डॉक्टर रमन सिंह की सरकार आई है, तब से वहां लगातार विकास के काम हो रहे हैं और स्थितियां बेहतर हुई हैं. रही बात पत्रकारिता की तो जिस तरह की बातें हो रही हैं, उसे मैं सही नहीं मानता. बस्तर में स्थितियां ठीक हो रही हैं. ”

इसके उलट पिछले साल दो पत्रकारों सोमारू नाग और संतोष यादव को माओवादियों का समर्थक बता कर उन्हें जेल में डाल दिया गया और वे अब भी जेल में हैं.
‘बस्तर क्यों जायें-मरने?’ किताब के लेखक और रायपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर कहते हैं, “बस्तर की पत्रकारिता कठिनतम दौर से गुजर रही है. देश में यहां पत्रकारिता करना सबसे मुश्किल काम है. पत्रकारों को अपनी ख़बर के लिये सोर्स बनाना पड़ता है और इस स्थिति में उसे सबसे संपर्क करना पड़ता है. लेकिन पत्रकार ने पुलिस से संपर्क बनाया तो उसे माओवादियों की नारजगी झेलनी पड़ती है और माओवादियों से उसने संपर्क किया तो पुलिस उससे नाराज़ हो जाती है.”
विधायक और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भूपेश बघेल भी मानते हैं कि पत्रकारों के लिए स्थितियाँ आसान नहीं हैं. उन्होने कहा, “बस्तर में लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं रही है और वहां के आईजी पुलिस एसआरपी कल्लूरी बस्तर के तानाशाह हैं. वहां महिलाओं का उत्पीड़न हो रहा है, आदिवासियों का उत्पीड़न हो रहा है और अगर किसी पत्रकार ने सरकार के खिलाफ लिखा तो उसे माओवादी बता कर जेल में डाल दिया जा रहा है.”

इसी तरह छत्तीसगढ़ के विधानसभा में विपक्ष के नेता टीएस सिंहदेव ने बीबीसी से कहा कि बस्तर पुलिस स्टेट बन गया है या उस दिशा में आगे बढ़ रहा है. उन्होंने कहा, “अगर किसी का दृष्टिकोण अलग है तो उसे राष्ट्रहित के विपरीत कह कर प्रताड़ित किया जा रहा है. यह स्थिति आम लोगों के साथ भी है और मीडिया के लिए भी.”
पिछले 40 सालों से छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता कर रहे दैनिक छत्तीसगढ़ अखबार के संपादक सुनील कुमार कहते हैं, “मैं बस्तर में पत्रकारिता पर कोई ख़तरा नहीं देखता, मैं पूरे के पूरे लोकतंत्र पर एक ख़तरा देख रहा हूं और मुझे यह ख़तरा वहां की वर्दीधारी पुलिस या नक्सलियों की तरफ़ से नहीं दिख रहा है. ये दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं. मुझको खतरा ये दिख रहा है कि राज्य को चलाने वाली जो लोकतांत्रिक ताकतें हैं, जो निर्वाचित ताकतें हैं, वे अगर पुलिस के किए हुये काम के खतरे को नहीं समझ पा रही हैं या अनदेखा कर रही हैं या उसको कम आंक रही हैं तो मैं इसको राज्य के और देश के लोकतंत्र पर एक बड़ा और व्यापक खतरा समझता हूं.”
कुल मिलाकर बस्तर आने से पहले जो सवाल हमारे पास थे उन सवालों की संख्या और बढ़ गई. इन सारे सवालों के जवाब सिर्फ़ पुलिस के पास थे. मैंने फिर से आईजी पुलिस को फ़ोन लगाया लेकिन कई बार कोशिश के बाद भी उनसे बात नहीं पाई.
बस्तर के पुलिस अधीक्षक आरएन दास से बीबीसी संवाददाता मोहन लाल शर्मा ने भी बातचीत की.
मेरा मक़सद सुरक्षाबलों के उन जवानों पर ख़बर करना भी था जो माओवादी हिंसा के शिकार हुए हैं. शुक्रवार को मैंने सुरक्षाबल के ऐसे जवानों से मिलने की कोशिश की. कुछ से मिला भी.

हमने एक ऐसे पुलिसकर्मी से मुलाकात की जो माओवादियों के हमले के बाद लगभग दो सालों से बिस्तर पर हैं और हर दिन मौत की ओर बढ़ रहे हैं. उनकी दोनों किडनी खराब हो चुकी है, पैर लकवाग्रस्त हो गया है, शुगर अपने चरम पर है.
बहरहाल, शुक्रवार देर शाम को खबर मिली कि पत्रकार मालिनी सुब्रह्मणियम ने पुलिस दबाव में जगदलपुर छोड़ने का फैसला किया है.
मालिनी से फ़ोन पर संपर्क किया और उनसे विस्तार से बातचीत की. उनके गंभीर आरोपों को देखते हुए मुझे फिर से पुलिस के जवाब की ज़रूरत थी. लेकिन देर रात तक बार बार फ़ोन करने के बावजूद किसी पुलिस अधिकारी ने जवाब नहीं दिया. इसका उल्लेख करते हुये मैंने रिपोर्ट फाइल कर दी. जिसे पढ़कर आईजी कल्लूरी ने मुझ पर “पूर्वाग्रह से ग्रस्त” होने का आरोप लगाया और कहा कि उन्हें मेरी ज़रूरत नहीं है, क्योंकि राष्ट्रवादी मीडिया उनके साथ है.
http://www.bbc.com/hindi/india/2016/02/160221_bastar_putul_blog_aj
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