एक सुबह आंगन में धूप सेकते हुए
एक तितली को उड़ते देखा
देख उसे जाते डाल डाल
से पात पात
मैंने सोचा
क्या तितली का भी घर होता होगा?
होते मेरे भी पंख अगर
क्या मुझे सुहाते ईंटों के घर ?
ख्याल उड़ने का तो है
मुझे भी लुभाता
पर गिरने के डर से मन कुछ सहम सा जाता
कभी खुली आंखों से सपने देखती हूँ
उनमें दिखता है आसमान
नहीं जानती, क्या मैं भरूंगी अपनी उड़ान ?
या समेट लूंगी अपने पंखों को
दबा लूंगी इन ईंटों के बीच
रह जाएंगे बस आंगन, धूप, तितली
और ये ईंटों का मकान ।
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