अरे! तुमने किया गौर क्या?
सुनीं किसी तरह की आहट क्या?
कहीं पे कुछ बुदबुदाहट,
कहीं से आता शोर है,
गहन पड़े सुनसान वीरानों में,
ज़िन्दा लाशों के शमशानों में,
किसी की धड़कन अब भी बोलती है,
शुकर है, किसी के सीने में बचा हुआ ज़ोर है,
उठो ज़रा और अपने सरों से,
ये हुकूमती टोपियाँ उतार दो,
खोलो भी ये धूल फाँकते इंकलाबी झरोखे,
और नकली देशभक्ति का चशमा निकाल दो,
आँखें मलो और देखो आवाम जाग चुकी है,
ख़ामोशियों को चीरती आवाज़ें पुकारती हैं |
पड़ी हैं सबके पांव में,
मुफलिसी की सख़्त बेड़ियां,
माना घिसड़-घिसड़ कर हैं बढ़ रहे,
और फट चुकी हैं एड़ियां,
डगमगाती सी है चाल पर,
अडिग है मानो बोलियाँ,
कोई तो इनमें बात है,
जो हर एक संग हो लिया,
तुम भी मौन क्यूँ खड़े यहाँ अकेले हो,
चलो साथ क्यूँ ना तुम भी हमारा साथ दो,
बहुत हुए घुटन के दिन,
बहुत कुछ तुमने भी सह लिया,
उनकी झूठी जयकार बहुत हुई,
अब अपने लिए भी कुछ बोल दो,
शरम तुम खाते हो किस बात की?
ये तुम्हारा हक़ है, सीने को ठोक बोल दो!
खुल कर जताओ नाराज़गी अपनी,
पूछो कैसे तुमने शहरों को जाम किया?
सवाल करो बेहिचक सरकार से,
किस हक़ से तुमने मेरा जंगल नीलाम किया?
गुज़र-बसर होता था जिनसे मेरे परिवार का,
कैसे उन मछलियों और तालाबों को तुमने अपने नाम किया?
शान से जहाँ दफ्तर में तुम हर सुबहा को जाते थे,
वो नौकरी क्यूँ जबरन छीन ली तुमसे,
जिससे तुम घर का खर्चा चलाते थे?
कुल-मिलाकर कितना है उधार बताओ गिनके?
बताओ कौन-कौन सी किश्तें बकाया हैं अभी तुमपे?
बोरिया-बिस्तर लाद कर कैसे तुमने आधा देस पैदल नाप लिया?
रटते आए थे जिन किताबों को सालों-साल,
क्या अब तक तुमने उनका एक्ज़ाम दिया?
थोक के भाव कानूनों को चोरी-छिपे क्यूँ पास किया?
कितने गरीबों के खातों में पैसे आए?
कितने किसानों का तुमने कर्ज़ा माफ किया?
विपक्ष के तीखे तानों पे तुम उल्टा उनके पाप गिनाते हो,
सबके गरेबां मैले दिखते हैं तुमको,
तुम अपने कहाँ धुलाते हो?
किसी के तन पर कपड़े नहीं,
और तुम रोज़ के रोज़ नया गमछा खरीद लाते हो?
पिछड़े हुए और भी पिछड़ते जा रहे है,
लेकिन तुम अब भी विकास और कल्याण का राग अलापते हो?
महिलाओं की क्षमता को बस तुमने इतना सम्मान दिया,
तलाक़ पे राजनीति खेल गए,
और फिर अपना पल्ला झाड़ लिया?
क्यूँ औरतों की आबरू से खेलना,
अब भी मर्दों का शौक है?
अपराधी खुलेआम घूम सकता है,
लेकिन औरतों के मंदिर-मस्जिद जाने पर भी रोक है?
औरतों पर ज़ुल्म आज भी क्यूँ एक आम बात है?
लड़कियों की पैदाइश क्यूँ सर झुकाने की बात है?
शिक्षा के नाम पर बस चूल्हा-चौका और बर्तन ही क्यूँ मिलता है?
क्यूँ उसका कुँवारापन एक बोझ समान लगता है?
क्यूँ किसी को पसंद करने के लिए,
उसको केवल इंसान होना काफी नहीं?
क्यूँ इस देश में लोगों को बस आदमी या औरत होना चाहिए?
क्यूँ नहीं हो हक़ किसी को ज़िन्दगी अपनी तरह जीने का?
क्यूँ किसी के नज़रिये का दोश,
किसी और की पहचान पे थोपना चाहिए?
पूछना चाहिए हमको,
कि सरकार विरोधी नारे,
अकसर देशद्रोही कैसे हो जाते हैं?
क्या केवल भारत माता की जय बोलने से,
हम शुद्ध देशभक्त हो जाते हैं?
क्या मेरे घर मे मुझे रहने के लिए सबूत देना ज़रूरी है?
क्या मेरे बाप-दादा की हड्डियाँ यहीं गड़ी हैं,
ये किसी कागज़ पे लिख के देना ज़रूरी है?
क्या लम्बी-चौड़ी प्रतिमाऐं-इमारतें खड़ी करने से,
और चंद बुलेट ट्रेन चलाने से,
हम प्रगतिशील और शक्तिशाली बन पाऐंगे?
पर जब अपने ही घर में भूखे बैठे होंगे,
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तो हम बाहर किसकी भूख मिटा पाऐंगे?
एैसे ही तमाम सवालों का पुलिंदा,
हम सबके ज़हन में कब से तैयार है,
पर जो अगर अब हम उठे नहीं,
तो ये देश यूँ ही सियासी दलदलों में धस्ता चला जाएगा,
अगर अब हम उठे नहीं,
तो नेताओं-चोरों-लुटेरों का मजमा,
हमारे हिंदोस्तान पे सोने की परत चढ़ा के,
इसको अंदर ही अंदर खोखला कर जाएगा,
अगर अब हम उठे नहीं,
तो हर चीज़ का निजीकरण करते-करते,
देश का युवा एक बार फ़िर से ग़ुलाम बन जाएगा,
अगर अब हम उठे नहीं
तो सरकार पे आँख बंद कर विश्वास करके,
हर कोई कानून की आँखों में धूल झोक कर,
न्याय को अपने इशारों पर नचाता नज़र आएगा,
अगर अब हम उठे नहीं,
तो मंज़र बद से बदतर होता चला जाएगा,
अगर अब हम उठे नहीं,
तो आवाज़ों को दबाना और भी आसान हो जाएगा,
अगर अब हम उठे नहीं,
तो झूठ और सच में फर्क खत्म हो जाएगा,
तुम्हारा हक़, तुम्हारा हो कर भी तुम्हारा नहीं रह जाएगा,
इसलिए उठो, आवाज़ उठाओ और सवाल करो!
जो ज़िन्दगी दूसरों के लिए जीते चले आए,
उसे कुछ तो अपने नाम करो| – मुसाफ़िर
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