ऐसा न था की हम से बनाई ना गई
बात इतनी तल्ख थी,की सुनाई ना गई
वो कहता रहा मैं अदल का मुहाफीज हूं
जब खुद पे बात आई तो निभाई ना गई
हमने अक्सर कहा,मुख्तलीफ है हम तुमसे
हां कह दिया,मगर ज़ेहन में उतारी ना गई
गलती खुद की मान भी जाता वो मगर
गुरूर की आग, उससे बुझाई ना गई
जो शख्स लफ्जों का था माहिर हर दफा
इस बार खामोश रहा,सफाई जताई ना गई
तमाम भीड़ देखती रही, जारहियत उसकी
किसी से भी निहत्ते की जान बचाई ना गई
वो बो रहा था जेहर ओ नफरत की बीज
शजर ए दोस्ती की, उससे लगाई ना गई
मुंह पर कुछ और था,काम में कुछ और
आइना था में,शकल दोहरी छुपाई ना गई
दीवार उठा कर समझा,गलतियां ओझल हुई
नदी किनारे लाशो की सच्चाई दफनाई ना गई।
~ अकीला ख़ान
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