आधार की उलझन

संविधान और कानून की अनदेखी के संबंध में बायोमेट्रिक विशिष्ट पहचान संख्या (आधार) का मामला एक नजीर के रूप में प्रकट हुआ है। सियासी विरोध के बावजूद पश्चिम बंगाल के अलावा सभी विधानसभाओं की चुप्पी और पड़ोसी देशों में हो रही ऐसी ही कवायद से अनभिज्ञता हैरान करने वाली है।
भारत का निवासी कौन है? अब यह सवाल इसलिए प्रमुख हो गया है, क्योंकि आधार कानून, 2016 में भारत के निवासी की परिभाषा विचित्र की गई है। इस कानून की धारा- 2 (फ) के अनुसार- कोई व्यक्ति जिसने भारत में नामांकन के लिए आवेदन की तारीख से ठीक पूर्ववर्ती 12 मास में कुल मिलाकर 182 दिन या उससे अधिक की अवधि के लिए निवास किया है, अभिप्रेत है। इस कानून को राष्ट्रपति की सहमति के बाद 26 मार्च को भारत के राजपत्र (गजट) में प्रकाशित कर दिया गया। मगर आधार कानून की धारा (1) (3) के तहत जो बातें कही गई हैं, उसका अर्थ यह हुआ कि आधार कानून अभी लागू नहीं हुआ है।
इस बात का ध्यान तो होगा कि 29 सितंबर, 2010 को सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र के नंदूरबार जिले के थेंभली गांव में यूआईडी/आधार संख्या योजना को शुरू की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने मिलकर दस आदिवासियों को 12 अंकों वाली आधार संख्या दी थी, जो जीवन भर भारत के लोगों की पहचान का एक अनूठा सबूत होगा। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के तत्कालीन अध्यक्ष नंदन नीलेकणी ने कहा था एक व्यक्ति को केवल एक ही आधार नंबर मिलेगा और वह आजीवन उसकी पहचान बनकर रहेगा। प्राधिकरण की वेबसाइट के अनुसार- 16 अप्रैल, 2016 तक 1,00,45,33,560 भारतवासियों को आधार जारी कर दिया गया है।
अब सवाल है कि क्या वे सौ करोड़ से अधिक लोग आधार कानून, 2016 की धारा 2(फ) के अनुसार भारत के ‘निवासी’ हैं? क्योंकि इस कानून के तहत भारतवासी केवल उसे ही माना जाएगा जो कानून सम्मत परिभाषा के अनुसार भारत का ‘निवासी’ हो। सवाल यह भी है कि इस बात को कौन सत्यापित करेगा कि अमुक भारतवासी ने आधार के लिए आवेदन की तारीख से ठीक पहले 12 मास में कुल मिलाकर 182 दिन या उससे अधिक की अवधि के लिए निवास किया है। क्या जिन सौ करोड़ से अधिक लोगों को आधार जारी किया गया है, उनका कानून की परिभाषा के तहत भारत का ‘निवासी’ होना सत्यापित कर लिया गया है? यदि नहीं तो सरकार को इस गैर कानूनी काम के लिए दोषी मानने के अलावा कोई और रास्ता नहीं सूझता।
स्मरण होगा कि केंद्रीय बजट 2009-10 पेश करते वक्त तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सरकार द्वारा प्राधिकरण की स्थापना की घोषणा की थी, ताकि ‘भारतीय नागरिकों की पहचान और बायोमेट्रिक आंकड़ों का एक ऑनलाइन डेटाबेस बनाया जाएगा तथा देश भर में पंजीकरण व पहचान सेवाएं मुहैया कराई जाएंगी।’ नागरिकों को इसके दूरगामी परिणाम को लेकर अंधेरे में रखा गया है। सरकार की कल्याणकारी योजनाएं देश के नागरिकों के लिए हैं। आधार संख्या नागरिकता या पहचान नहीं है, फिर भी इसे कल्याणकारी योजना से जोड़ना अनुचित है। इससे लगता है कि असली मकसद कुछ और है।
सरकार के एक आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, ‘आधार परियोजना दुनिया की सबसे बड़ी बायोमेट्रिक संग्रहण और पहचान परियोजना बनेगी।’ यह एक प्रयोग है, जिसे भारत, बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान जैसे विकासशील देशों के नागरिकों पर विदेशी सरकारों और कंपनियों के जरिए किया जा रहा है। इसमें अलोकतांत्रिक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और रणनीतिक संस्थान भी शामिल है। आधार कानून, 2016 की प्रस्तावना में जो लिखा है, उसका आशय यही है कि यह कानून सरकार को साइबर-बायोमेट्रिक आधार संख्या के प्रयोग द्वारा अनुदान बांटने के लिए अधिकृत करता है। लेकिन कानून की धारा 57 इसकी पोल खोल देता है। धारा 57 के अंग्रेजी में दिए गए प्रावधान और इसके हिंदी में दिए गए प्रावधान में भिन्नता प्रतीत होती है। शायद पूरी बात के सामान्य हिंदी में समझ आने के खतरे के प्रति सरकार सचेत है।
इस बात का खुलासा भी हो चुका है कि स्वाभिमान डिस्ट्रीब्यूशन सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड की ट्रस्ट-आईडी नामक कंपनी ने रेडियो प्रचार किया है कि वह आधार का इस्तेमाल नागरिकों से संबंधित जानकारी इकट्ठा करने के लिए कर सकती है। यह कंपनी नवंबर 2015 से आधार प्रमाणीकरण एजेंसी के रूप में पंजीकृत है। इस संबंध में 16 मार्च को पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखकर कानूनविद डॉ. उषा रामनाथन के लेख के हवाले से सूचित किया। जेटली ने 22 मार्च को इस पत्र का जवाब लिखते हुए और धारा 57 और 8 के हवाले से कहा कि जब तक देश का निवासी अपनी सहमति नहीं देता, तब तक उससे संबंधित जानकारी का प्रयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं होगा। यदि ऐसा होता है तो वह कानून के मुताबिक उसके अधिसूचित होने के बाद दण्डनीय अपराध होगा।
गौरतलब है कि कानून अभी लागू नहीं है। जेटली यह आश्वासन भी नहीं दे रहे हैं कि स्वाभिमान डिस्ट्रीव्यूशन सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड और ट्रस्ट आईडी कंपनियों का ठेका रद्द किया जाएगा। साथ ही उन्हें दण्डित किया जाएगा। यहां जेटली का जवाब संतोषप्रद नहीं है, क्योंकि आधार कानून के तहत कोई देशवासी जिसका आंकड़ा सरकार या कंपनी या किसी व्यक्ति व ठेके के जरिए इकट्ठा और हस्तांतरित किया जाता है, वह व्यक्ति दण्डनीय अपराध का मामला दर्ज नहीं करवा सकता है।
आधार कानून की धारा 47 (1) के अनुसार- ‘प्राधिकरण या उसके द्वारा प्राधिकृत किसी अधिकारी या व्यक्ति द्वारा की गई शिकायत के सिवाय, कोई न्यायालय इस अधिनियम के अधीन दंडनीय किसी अपराध का संज्ञान नहीं करेगा।’ ऐसी स्थिति में जेटली के पत्र से बात स्पष्ट नहीं होती है।
यह सर्वविदित है कि साइबर बायोमेट्रिक आधार संख्या योजना के पैरोकार नंदन नीलेकणी प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से 1 जुलाई, 2014 को मिले थे। उस मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री ने 5 जुलाई, 2014 को आधार परियोजना के समर्थन में घोषणा कर दी। हालांकि, राज्यसभा में प्रतिपक्ष नेता रहते हुए जेटली ने फोन टैपिंग से जुड़े विवाद पर अप्रैल 2013 में तीन पन्ने का एक लेख लिखा था, जिसमें लोगों को ‘आधार’ के खतरे से भी आगाह किया था। आज क्या वे नीलेकणी के प्रभाव में आधार से उत्पन्न ‘जायज खौफ’ के बारे में भूल गए हैं। सितंबर 2013 में नरेन्द्र मोदी ने भी इस पर सवाल उठाए थे। आज भी वे सवाल समीचीन हैं।
कानून की धारा- दो में बताया गया है कि पहचान संबंधी जानकारी में बायोमेट्रिक जानकारी शामिल है। बायोमेट्रिक जानकारी के तहत व्यक्ति की उंगलियों के निशान, आंखों की पुतलियों की तस्वीर और अन्य जैविक विशिष्टता बताने वाले तथ्य आते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इसमें डीएनए और आवाज के नमूने की जानकारी शामिल है। सभी भारतवासियों के बायोमेट्रिक जानकारी इकट्ठा होने के दूरगामी परिणाम के बारे में अभी तक संसद में और नागरिकों के बीच कोई चर्चा नहीं हुई है। आधार कानून, 2016 के अनुसार कोई भी संयुक्त सचिव स्तर या उससे ऊपर का अधिकारी किसी भी भारतवासी के संबंधित जानकारी का खुलासा राष्ट्रहित में कर सकता है। मगर एक बार खुलासा होने के बाद उसे दोबारा गोपनीय कैसे बनाएंगे? इस बारे में कोई प्रावधान नहीं है। बहरहाल, यह बात हैरतंगेज करने वाली है कि सर्वोच्च न्यायालय के दो बार के आदेश के बावजूद साइबर बायोमेट्रिक आधार संख्या और निजता के अधिकार के मामले में अभी तक कोई संविधान पीठ गठित नहीं की गई है।
October 29, 2016 at 11:49 am
Despite court verdicts, the government is yet to formulate a security for protecting the privacy of citizens. The matter is long pending and should be addressed .