‘चीख़ें’
- अल्लाम अशरफ़
दिल टूटने की अपनी कोई आवाज़ नहीं होती,
बस ख़ामोशियाँ चीख़ती रहती हैं ख़लाओं में…
भूखे बच्चों का बिलखना जब ना देखा गया,
उम्मीदें खिंचने लगी हमें अपने गाँवों में…
चल पड़े छोड़ के शहरों की चुभती रौनक़,
गाँव धूल रहा है आज भी पाक शोआओं में…
खोखले वादों से जो दर्द मिलता रहा,
सगे से लगने लगे हैं ये छाले हमारे पाँओं में…
पैदाईश भी उन बच्चों की क्या यादें संजोयेगी,
जो पैदा हुए हैं काली सड़कों पे, बेबस हवाओं में…
कलेजा चिरती जाती हैं ख़बरें आज कल,
मौत इंसानियत की, लाशें मज़दूरों की, सिर्फ़ मातम है अब फ़िज़ाओं में…
रहबर-ए-क़ौम कर रहा है मन की बातें,
कोई बतलाओ उसे ज़हर कितना है उसकी अदाओं में…
गर रहे ज़िंदा तो अपनी नस्लों को ये समझना,
मज़हबी जुनून ने वीरान गोदें बना दी माँओं में…
June 1, 2020 at 2:08 pm
Great writing bhau
June 1, 2020 at 6:28 pm
Amazing poem…
June 1, 2020 at 9:56 pm
A great sense of reflection
June 1, 2020 at 10:27 pm
Heart touching
June 4, 2020 at 8:15 pm
Heart touching.