आरक्षण विरोधी यह क्यों नहीं कबूल करते कि दलितों और पिछड़ों की शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में भागीदारी उनकी आबादी के अनुपात में आज भी बहुत कम है

अभय कुमार

हाल के दिनों में देश में कई लोगों ने आरक्षण की ‘मियाद’ तय करने की वकालत की है। उनका मानना है कि ‘पिछड़ी जातियों को दिए गए आरक्षण की कोई अवधि तय नहीं की गई। इसके कारण भारतीय समाज में संतुलन तेजी से नष्ट हो रहा है।’ वास्तव में वे लोग यह बात हड़बड़ी में कह रहे हैं, क्योंकि कभी भी उन्होंने अपनी दलील साबित करने के लिए किसी शोध का हवाला नहीं दिया है। अनुभव, तथ्य और आंकड़े सभी यही कहते हैं कि आरक्षण सामाजिक ‘संतुलन’ को बिगाड़ता नहीं, बल्कि उसे बनाने में मदद करता है। आरक्षण जातिवाद नहीं फैलाता। यह जातीय भेदभाव और गैरबराबरी को दूर करने की दिशा में काम करता है। आरक्षण सैकड़ों वर्षो से वंचित रहे समुदायों को सामाजिक प्रतिनिधित्व प्रदान करता है और प्रशासन में कायम कुछ खास जातियों के एकाधिकार को खत्म करने की कोशिश करता है। इसलिए आरक्षण खत्म करने या फिर उसकी मियाद तय करने की बात करना न सिर्फ अतार्किक है, बल्कि समता-विरोधी भी है।

ख्याल रहे कि संविधान ने तीन समाजिक वर्गो को आरक्षण मुहैया कराया है। पहला वर्ग एससी (अनुसूचित जाति/दलित) का है, दूसरा एसटी (अनुसूचित जनजाति/आदिवासी)और तीसरा ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) है। एससी को आरक्षण इसलिए दिया गया, क्योंकि वे छुआछूत के शिकार रहे हैं और वे हर क्षेत्र में वंचित रहे हैं। दूसरी तरफ एसटी जातीय समाज से पृथक जंगलों पहाड़ों व दुर्गम स्थानों में रहते रहे हैं, मगर वे भी एससी की ही तरह हर क्षेत्र में वंचित रहे हैं। ओबीसी सामाजिक और शैक्षणिक तौर से पिछड़े हैं। इन वर्गो के आरक्षण पर कुछ लोग सवाल तो उठाते हैं, मगर वे इस बात का जिक्र नहीं करते कि क्या वाकई में ये सामाजिक वर्ग समाज में बराबरी पा चुके हैं?

वे लोग तर्क देते हैं कि ‘हर चीज की एक उम्र होती है, लेकिन आरक्षण की कोई उम्र तय नहीं की गई है।’ उनसे कौन पूछे कि जब हजारों-साल पुरानी जाति अभी तक भी जिंदा है तो उससे उम्र में कहीं छोटा आरक्षण के औचित्य पर क्यों सवाल उठाया जा रहा है? मैं यहां जातीय भेदभाव से जुड़ी घटना की जिक्र करना चाहूंगा। साल 2015 में मेरठ का रहने वाला दलित श्याम ने अपना धर्म इस लिए बदल लिया, क्योंकि उसे मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया। यह सच है कि दलित छुआछूत की वजह से धर्मातरण (घर छोड़) कर रहे हैं।

पिछले दो दशकों में देश में हुए कई सर्वेक्षणों, अध्ययनों और सैद्धांतिक कृतियों से यह साफ है कि अछूत प्रथा किसी पुरानी आदत की तरह आसानी से हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। हालिया भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण (आइएचडीएस-2) के अनुसार हर चार में से एक भारतीय छुआछूत में विश्वास करता है और देश का कोई धर्म, जाति, जनजाति या क्षेत्र इस सामाजिक बुराई से मुक्त नहीं है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सुखदेव थोराट ने अपने सर्वेक्षण ‘दलित्स इन इंडिया’ 2009 में पाया कि उच्च शिक्षित व आर्थिक दृष्टि से संपन्न भारतीय भी अछूत प्रथा से उपजे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। इसी तरह प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री गोपाल गुरु अपने लेख ‘दलित मिडिल क्लास हेंग्स इन एयर’ में उच्च जातियों के मध्यमवर्गीय लोगों द्वारा अपने आर्थिक वर्ग के दलित सदस्यों के साथ किए जाने वाले भेदभाव की चर्चा की है। यहां तक कि विदेशों में रहने वाले भारतीय दलितों को भी छुआछूत का सामना करना पड़ता है।

दलितों और पिछड़ों पर हर रोज देश भर में हमले हो रहे हैं और बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की प्रतिमाएं तोड़ी जा रही हैं। आरक्षण समाप्त करने की बात करने वाले यह क्यों नहीं कबूल करते कि उनकी भागीदारी शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में उनकी आबादी के अनुपात में आज भी बहुत कम है। क्यों अक्सर आरक्षित श्रेणी में ही दलित, आदिवासी और पिछड़े आ पाते हैं। जहां आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, जैसे निजी सेक्टर, वहां उनकी नुमाइंदगी काफी कम है। हां, यह बात भी सही है कि ऊंची जातियों में भी कुछ लोगों के हालात खराब हैं, मगर वे दलितों और पिछड़ों की तरह सामाजिक भेदभाव नहीं ङोलते हैं।

जाति आर्थिक स्थिति को भी बहुत हद तक तय करती है। जाति यह भी तक करती है कि किस को कितना सम्मान मिलेगा और किसको कितनी दुत्कार? जन्म से लेकर मृत्यु तक जाति हमारा पीछा नहीं छोड़ती है। लोगों ने धर्म बदला, देश छोड़े, मगर जाति से पूरी तरह छुटकरा नहीं मिला।

कुछ लोग बेजा ही आरक्षण को ‘मेरिट’ अर्थात योग्यता से जोड़ कर देखते हैं। लोग अक्सर यह तर्क देते हैं कि आरक्षण से ‘मेरिट’ दब जाती है और ‘अयोग्य’ लोग ‘योग्य’ लोगों का हक मर लेते हैं। जो लोग मेरिट की बात करते हैं वह इसे कभी परिभाषित नहीं करते। देश में आलू पैदा करने वाला किसान अपनी खेती से अपने परिवार का अच्छी तरह से भरण-पोषण नहीं कर पता है, वहीं उसी आलू से चिप्स बनाने वाली कंपनियां करोड़ों का मुनाफा कमाती हैं। क्या इसका यह मतलब है कि चिप्स बनाने वाली कंपनियां किसान से ज्यादा योग्य हैं? योग्यता की बात करने वाले कभी योग्यता के मापदंड पर सवाल नहीं उठाते। देश के सुदूर इलाके में क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने वाले गरीब छात्र को जब यह कहा जाए कि राजधानी के एक बड़े प्राइवेट स्कूल में पढ़े बच्चे से अंग्रेजी में मुकाबला कीजिए तो आप को भी पता है कि किसके ज्यादा अंक आएंगे।

आरक्षण का सीधा रिश्ता सामाजिक प्रतिनिधित्व से है। आरक्षण गरीबी-उन्मूलन प्रोग्राम नहीं है। बाबा साहब डॉ. आंबेडकर भी आरक्षण को सामाजिक प्रतिनिधित्व से जोड़ कर देखते थे। 1943 में लिखी अपनी किताब ‘मिस्टर गांधी एंड मंसिपेशन ऑफ अनटचेबल्स’ में उन्होंने कहा था कि यह सोचना गलत है कि बहुसंख्यक समुदाय पर हर हालात में यह भरोसा किया जा सकता है कि वह सब का प्रतिनिधित्व कर पाएगा। अगर दलित, आदिवासी और पिछड़े शैक्षणिक संस्थाओं में नहीं होंगे, अगर वे सरकारी नौकरियों में नहीं होंगे, अगर वे संसद और विधानसभाओं में नहीं होंगे तो उनके समाज के हितों का ख्याल कौन रखेगा?

First published in Dainik Jagran, Rashtriya Sanskaran, April 26, 2018,